Tuesday, 26 July 2016

 आओ बूंदी चलें : स्मृतियों के चलचित्र 

      आओ बूंदी चलें :

      पिछले दिनों अनिल ने बूंदी नगर की एक सुन्दर तस्वीर फेसबुक पर साझा की तब से मुझे भी जब तब बूंदी की याद आ जाती है . एक साल मैंने भी वहां बिताया था . तब के सहपाठी दोस्त याद आ जाते हैं . वहां लौटकर जाना फिर कभी नहीं हुआ पर यादें हैं जो जब तब वहां ले ही जाती हैं .
वर्ष 1961 - मैं ने न्यूं मिडिल स्कूल, बूंदी से स्कूल की कक्षा आठ पास कर ली थी . जब सबसे बड़ी कक्षा पास कर ली तो वहां से टी सी तो लेना ही था . काकाजी* टी सी लेने गए थे और मैं साथ था . दीनानाथ जी हैड माट साब ने टी सी देते हुए काकाजी से जो पूछा और अपनी कही वही बात बताता हूं . पहले एक बात और बताऊं जाने क्यों हैड माट साब को लोग और बच्चे भी पीछे से  ' धुनची जी ' कहते थे और उनका बेटा गणपत भी हम लोगों का सहपाठी था उसने भी उसी वर्ष आठवीं कक्षा पास की थी .

हैड माट साब पूछने लगे :
" टी ओ साब, बेटे को क्या सब्जेक्ट्स दिलाओगे ? "

तब कक्षा नौ में ही फैकल्टी और विषयों का चयन हो जाया करता था .
बाद तक भी यही सिलसिला चला . ये तो बहुत बाद में हुआ  है कि यह चयन ऊंची क्लासों में जाकर होने लगा . बेहतर अंक लाने वाले विद्यार्थी साइंस पढ़ने के लायक माने जाते थे और पड़े गिरे पास हुए आर्ट्स पढ़ने को शापित होते थे . एक बार आर्ट्स में दाखिला लेने वाले आगे आर्ट्स में ही रहते थे . जिन दुखियारों से साइंस नहीं निभ पाती वो  बड़ी क्लासों में इधर आ जाते पर इधर से उधर जा पाने की सुविधा नहीं होती थी .

" ये तो आर्ट्स पढ़ेगा . और आपका भी तो बेटा है , सुमन्त बता रहा था, उसके बारे में क्या तय किया हैड माट साब ?"   काकाजी बोले.

काकाजी का उत्तर उन्हें चौंकाने वाला था , क्योंकि मेरी मार्क लिस्ट से तो साइंस पढ़ने की लायकी सिद्ध जो हो  रही थी . ऐसे ही सवाल जवाब आगे तब भी हुए जब काकाजी मुझे जयपुर में दरबार मल्टी परपज हायर सकेंडरी स्कूल में कक्षा नौ में  में दाखिला करवाने गए .

तब मुझे कहां भान था कि आगे जाकर साइंस पढूंगा , ऐसा वैसा साइंस नहीं - मास्टर साइंस .
खैर अभी तो बात बूंदी की चल रही है  वहीँ लौटते हैं .

माता पिता के सपने :

 तब माता पिता बच्चों के लिए कैसे सपने देखते थे उसका उदाहरण है वो जो तब हैड माट साब ने कहा था . काकाजी को अपने बेटे के बाबत वो बोले :

" वो ही इंजीनेरी के सब्जेक्ट - साइंस  मैथेमेटिक्स ."

इतना ही नहीं  उन्होंने ये भी बताया था कि वो इस बात का भी प्रयास करेंगे कि आगे उनका तबादला जोधपुर का हो जाए ताकि वो बेटे को इंजीनियरी की पढ़ाई करवा सकें . तब ले दे के एक जोधपुर में ही  सरकारी इंजीनियरिंग कालेज हुआ करता था , मंगनी राम बांगड़ मेमोरियल इंजीनियरिंग कालेज .

मुझे आगे का हाल तो नहीं मालूम कि हैड माट साब अपनी योजना में सफल किस हद तक हुए पर कुछ सूत्र बूंदी से तब जुड़े जब बनस्थली में मेरे काम करते हुए एक चित्रकार मित्र बूंदी से आए और मिले और चूंकि वो भी उसी मिडिल स्कूल के पढ़े हुए थे इसलिए स्कूल की यादें ताजा हो गईं , कुछ और  दोस्तों के बारे में भी उन से ही पता चला .

बहरहाल लौटकर वहां जाना नहीं हुआ . जाऊं भी तो उस समय का कौन मिले वहां ?

उसी पुराने समय को याद करते हुए...
प्रातःकालीन सभा स्थगित .

* काकाजी हमारे पिता जो तब बूंदी में ट्रेजरी ऑफिसर थे .

साझा लेखन : Manju Pandya

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
27 जुलाई 2015 . 


ब्लॉग पर पुनः प्रकाशन और लोकार्पण 

२७ जुलाई २०१८.

Monday, 25 July 2016

💐ऋषिकांत की बात : फूफाजी ढोक .💐

    💐 ऋषिकांत की बात : " फूफाजी ढोक ." 💐
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चलते रस्ते बन गया किस्सा है  आज अगर समय ने अनुमति दी तो वही बताए देता हूं .

अब ये तो आए दिन का रंबाद है कि सुबह सुबह कोई किस्सा मांड न पावूं तो मैं अपनी कोई नई या पुरानी जैसी भी सूझे फोटो लगा देवूं और अभिवादन का क्रम शुरु हो जावे .
ऐसे ही गए दिनों एक फोटो मैंने प्रोफाइल पर टांग दी . इस पर आई टिप्पणियों में एक टिप्पणी ऋषिकांत की भी थी जिसे बचपन से ढब्बू कहते आए हैं   ढब्बू ने अपनी समझ से लिखा :

   " फूफा जी ढोक ."   

  फूफाजी ने आशीर्वाद भी दे दिया पर असल में  ढब्बू के लिखे में कुछ टाइप की गड़बड़ से या गफलत में हो गया था :

"  फूफाजी ठोक ! "

  बात   छूट भी जाती पर   टीप पर टीप देते हुए संदीप ने लिखा :

"   ठोक  नहीं  ' ढोक '  ."

  अब मेरा भी  ध्यान गया कि चाहे गफलत में ही सही ठोकने की बात आ गई है तो मैंने आगे सवाल दाग दिया :?

" किसको ठोकना है ऋषिकांत  बता ? फूफाजी तो ठोक देंगे . "
 
अब ऋषिकांत का तो ध्यान जाता सा जावे , इस बीच क्या हुआ बताता हूं .

😊 बात पर बात याद आई पिछली शताब्दी की 💐💐
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   कमला मेरी देखरेख में अपना एम् फिल डेसर्टेशन लिख रही थी .  उसके प्रबंध में ढाका का नाम बड़ा महत्वपूर्ण था  विषय के शीर्षक में भी और इबारत में भी पर वो जब भी कुछ लिखकर लाती ' ढाका '  को  ' ठाका '  ही लिखा होता और सुधारना पड़ता , आखिर में मैंने तो यह तय किया कि ये बात टाइपिस्ट को ही बता देवेंगे कि   " ठाका " नहीं  " ढाका " लिखा जाना है .
और इस प्रकार निभ गई बात  , हो गया कमला का शोध प्रबंध पूरा .
ये  पिछले जमाने की बनस्थली की बातें हैं जो बरबस याद आ जाती हैं .

😊 और एक बात कहने की 💐💐
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जाने ऐसा क्यों है कि अंग्रेजी की ए बी सी डी जिसको देखो याद होती है , छोटे छोटे बच्चों से ये वर्णमाला बुलवाकर मां बाप बड़े राजी होते हैं पर हिंदी की वर्णमाला में बड़े बच्चे भी चूक जाते हैं .
क्या तो करो आप अब जो वस्तुस्थिति है सो है . मुझे तो " जोशी बाबा " ने हिंदी / देवनागरी की वर्णमाला और बारहखड़ी पहले पहल सिखाई थी , रोमन अक्षर तो बहुत बाद में पहचानने लगा था . मैं उन जोशी बाबा को नमन करता हूँ  जिनका  सिखाया अक्षर ज्ञान आज दिन तक काम आ रहा है . यही अक्षर ज्ञान मैंने कमला का शोध प्रबन्ध  जांचते हुए दोहराया था .

कभी जोशी बाबा बाबत भी लिखूंगा , देखिएगा  जरूर .

😊 फिर ढब्बू की बात  💐💐
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   जब दो बार मैंने ये सवाल दाग दिया :

"  किसको ठोकना है ??? . "

    तो ऋषिकांत माने मेरा प्यारा ढब्बू हरकत में आया और उसने जो लिखा उसे मैं अल्टीमेट  कहूंगा   . उसने लिखा :

"  फूफाजी ! अपने आशीर्वाद रूपी डंडे से मुझे ठोक दो .! " 💐

   😊 अब अपनी बात 💐💐
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  जाने क्यों  गए दिनों से ऐसे किसी को ठोक देने जैसे विचार मेरे मन में आ जाते हैं , ऐसा तो मैं नहीं हुआ करता था , पर अब ऋषि के इस " आशीर्वाद के डंडे " के विचार ने मुझे एक नई सूझ दी है  , अब किसी छोटे मोटे को ठोको तो आशीर्वाद के डंडे से ठोको . यही तो है अब अपने पास .

अब ये पोस्ट तो जाने लायक बन गई पर अभी ढब्बू की भूआ की इस पर स्वीकृति बाकी है .
तदर्थ पोस्ट जारी ..........
आशीर्वाद ऋषिकांत 💐

सुप्रभात
Good Manju PandyaझRishi Kant BhattRishi Kant Bhatt

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सुमन्त पंड्या .
Sumantpandya.
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
    बुधवार 29 जून 2016

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Wednesday, 13 July 2016

💐💐 बनस्थली की रेल यात्रा : स्मृतियों के चलचित्र 💐💐

     

      बनस्थली की रेल यात्रा : स्मृतियों के चलचित्र .
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     #बनस्थलीडायरी         #रेलयात्रा

  मैंने एक बार की बात बताई थी जब मैं इस रूट पर अकेले यात्रा कर रहा था और
नव सभ्य लोगों से पाला पड़ा था , मैंने चाकसू पर ग्रामीणों के लिए दरवाजा खोल दिया था . उस दिन समय कम था इस लिए और प्रसंग वहां जुड़ नहीं पाए थे . आज जितना सा समय है उसमें एक और प्रसंग ......
करते हैं बात ......

गाड़ी की बाबत :
---------------     लोहारू से सवाई माधोपुर के लिए छोटी लाइन की गाड़ी जाया करती थी . हम लोग भी सामान से लदे फदे इस में यात्रा करते और विद्यापीठ की लाल बस निवाई पर बनस्थली के लिए सवारियों को लेने आती . हम लोग यात्रा पूरी कर बनस्थली पहुंच जाते .

एक बार की बात :
------------------ जयपुर  स्टेशन पर ब्रदर एस बी माथुर साब भी सपरिवार मिल गए , मेरे साथ भी परिवार था . हम दोनों को और बच्चों को भी अपना अपना साथ मिल गया . सुविधा पूर्वक गाड़ी में बैठ गए और अभियान दल गंतव्य की ओर चल पड़ा .
उस दिन कोई बरसों में ऐसा हुआ कि हाथ में एक क्लिप बोर्ड सा पकडे टी टी ई किसी छोटे स्टेशन पर हमारे डब्बे में चढ़ आए . सुन्दर व्यक्तित्व के स्वामी ये रेलवे अधिकारी सफ़ेद कपड़े याने कमीज पैंट काला ठंडा कोट और लाल टाई पहने थे  और टिकिट चैक करने आए थे . मुझपर नज़र पड़ते ही उनके चहरे  पर चमक आ गई और क्षण भर में मैं भी उन्हें पहचान गया . आखिर कौन थे वो...?

राजस्थान कालेज की याद आ गई .
------------------------------------ ये टी टी ई निकले राजस्थान कालेज में पढ़े हुए अवतार नारायण माथुर 'दीपक ' जो कालेज की हिंदी साहित्य परिषद  के छात्र संयोजक हुआ करते थे . दीपक उपनाम से वो उन दिनों कविता कहानियां भी लिखा करते थे ,  पत्रिका भी निकाला करते थे .
पुराने दोस्त को इस भूमिका में पाकर मुझे तो बड़ा अच्छा लगा . दीपक बी ए करने के बाद ही भारतीय रेल की सेवा में चले गए थे . मुझे इससे याद आया के पी सक्सेना  जीवन भर भारतीय रेल की सेवा में रहे और साहित्य जगत में भी अपनी अद्भुत रचना धर्मिता के लिए जाने गए .
मुझे आश्चर्य इस बात का भी हुआ कि दीपक को मेरा बनस्थली में होना पहले से पता था और सूचना का माध्यम थे बनस्थली से आते जाते यात्री जो उन्हें रेल की ड्यूटी के दौरान टकराए होंगे . ये वो ज़माना था जब बनस्थली में सब को सब जानते थे .
खैर टिकट तो चैक हो गए पर अंत में शानदार रहा ब्रदर का उठकर अवतार नारायण माथुर 'दीपक' का अभिनन्दन करना .
ब्रदर  अंग्रेजी में बोले :
" वी हैव बीन ट्रेवलिंग ऑन  दिस रूट फ़ॉर लास्ट सो मैनी ईयर्स . दिस इज फॉर द फर्स्ट  टाइम दैट समवन हैज कम टु  एग्जामिन अवर टिकेट्स ..
सो वी फेलिसिटेट यू ......"
दीपक को अगले डब्बे में जाना था पर मुलाक़ात बड़ी बढ़िया रही उस दिन .
और प्रसंग फिर कभी .
बिछुड़े साथियों और सुनहरे पलों को याद करते हुए .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
सुप्रभात .

समीक्षा: Manju Pandya

सुमन्त पंड्या
Sumant Pandya.
आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
13 जुलाई 2015 .
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