Friday, 30 December 2016

जिसकी तलाश थी वो मिल गया 💍

जिसकी तलाश थी वो मिल गया …..! : तकिया कलाम  की कहानी
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अक्सर ये बात मैं बड़ा गहक के कह दिया करता हूं :

“ जिसकी तलाश थी वो मिल गया .”

ऐसे ही मेरे और भी तकिया कलाम हैं , जैसे :
१.
ये तो बार की बात छै माट साब  .. फेर तो थे जाणो !
और
२.
प्यारे मोहन जी नै ने जाणो ..?

मेरे हर तकिया कलाम का कोई न कोई विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ होता है और मुझे वो सीन याद आने लगता है जब किसी न किसी ने ये बात कही थी और आगे के लिए वो बात मेरे हाथ लग गई .
ख़ैर किस्सगोई के दौरान तकिया कलाम के ये मणके  मैं पिरोता भी रहता हूं और बताता हूं कि बात आईं क़हां से . ख़ैर अभी तो उस शीर्षक पर ही बात करें जो आज की पोस्ट के लिए दिया गया है :

“ जिसकी तलाश थी वो मिल गया .”

अपने आप से बात :
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“ किसकी तलाश थी ?”

इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करूंग़ा .

“ ये किसी व्यक्ति , वस्तु   या विचार किसी की भी तलाश हो सकती है जिसके पूरा होने पर मैं ऐसा कह बैठता हूं और अब तो ये वाक्य बोलना मेरी आदत में शामिल हो चुका है .”

“ पर पहली बार ऐसा कहा किसने था ? “

“ हां वही बताने का प्रयास है आज , ये  विशिष्ट व्यक्ति  की कही बात है जो आज तक मेरी ज़ुबान पर है . “
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अब आगे : फिर वो ही बात .

विशिष्ट अतिथि आए हुए थे , रवीन्द्र निवास में  ठहरे थे और इस बाबत दो एपिसोड मैंने अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर लिखे भी थे . तीसरा एपिसोड जो अभी लिखा जाना बाक़ी है उसमें ही आता है ये प्रसंग  .

प्रसंग ये है कि स्नान के बाद जब वे धुले  और प्रेस  किए हुए कपड़े पहनने लगे तो पाया कि   पतलून में कमर का क्लिप पिचका हुआ है और उसे दुरुस्त किए बिना पतलून पहनना सम्भव नहीं था .
वो बौद्ध दर्शन में एक विचार आता है न  “ अर्थ क्रिया कारित्व “ वही सूझ रहा है मुझे तो यहां इस स्थिति के लिए . ख़ैर  बात आगे …

समस्या समाधान की वो बात सोच ही रहे होंगे कि उनका ध्यान अलमारी के ऊपर के खण की ओर गया  और वो अचानक बोल पड़े :

“ जिसकी तलाश थी वो मिल गया .”
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वहां रखा एक पेचकस उठाकर वो ये बात बोले थे . पिचके क्लिप को दुरुस्त करने के लिए ये उपयुक्त उपकरण था जो उन्हें यहां मिल गया था .

वैसे इस पूरे प्रसंग का तीसरा एपिसोड जब आएगा तो ये बात और स्पष्ट  होएगी  कि आख़िर वो क्लिप पिचका हुआ था क्यों .
आज मैंने पूरी बात बताई कि ये तकियाकलाम  मैंने सीखा क़हां से था .

नमस्कार 🙏

सुमन्त पंड़्या
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी
शनिवार ३१ दिसम्बर २०१६ .
#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya

Wednesday, 28 December 2016

 ज़रा रोक के ..." जयपुर डायरी 😊😊

ज़रा रोक के ….: जयपुर डायरी .

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पुरानी छोटी छोटी बातें कभी कभी याद रह जाती हैं तो वो मैं बताया करता हूं उन्हीं में से एक बात है ये , ये बात उस दिन याद आ गई थी जब मैं आशियाना आँगन मैं लिफ़्ट के केबिन से दूर था और जीवन संगिनी और उनके साथ खड़ी एक मानस पुत्री ने मेरे लिए ऊपर जाती लिफ़्ट रोक ली थी .

तब मुझे याद आया क़िस्सा ,” ज़रा रोक के ….” . लिफ़्ट की क्या बात अपण के लिए तो बस भी रुक जाया करती थी कभी .

क़िस्से का इतिहास और भूगोल  :

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ये बात उन्नीस सौ तिहत्तर पिचहत्तर के दौर की है जब मैं बनस्थली में काम किया करता था , भाई साब उदयपुर में काम करते थे और इधर विनोद और गोपेश जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय में एम ए कक्षाओं में पढ़ा करते थे . घटना तब की है जब भाई साब और भाभी जी और एक छोटी बच्ची रेल से उदयपुर जा रहे थे और इधर मैं ,  विनोद और गोपेश उनको बैठाने रेलवे स्टेशन गए थे .

तब जयपुर शहर  में ताँगे चला करते थे , हम लोग नाहर गढ़ रोड , चाँदपोल बाज़ार से रेलवे स्टेशन इन लोगों के साथ ताँगे में बैठकर चले गए थे और गाड़ी के रवाना होने के बाद हम तीन छड़े लोगों को लौटकर घर आना था . वही नाहर गढ़ रोड .

बाई द वे आज की तारीख़ में तो मुझे छोड़कर इस प्रकरण से से सम्बंधित सभी पात्रों के के पास मोटरें हैं पर ये तो तब की बातें हैं . तब जयपुर रेलवे स्टेशन से बड़ी चौपड़ के बीच लाल रंग की सिटी बसें चला करती थीं . हम लोग नाहरगढ़ रोड आने के लिए इस सिटी बस का उपयोग कर लिया करते थे .

अब तो इस रूट पर बस चलने के हालात स्थगित हैं , जिस दिन भी चलेगी मैट्रो ही चलेगी शायद .

चलो अपण तो उस दिन की बात करते हैं :

उस दिन क्या हुआ था ?

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हम तीन लोग - मैं , विनोद और गोपेश भाई साब - भाभी जी की गाड़ी रवाना होने के बाद जयपुर जंक्शन के प्लेटफ़ार्म से उतर कर सड़क पर आए और अब हम लोग सिटी बस पकड़ना चाहते थे , जो भी शहर के परकोटे में जाने वाली बस मिल जाए .

फिर भूगोल :

-----------   रेलवे प्लेटफ़ार्म और सिटी बस स्टैंड के बीच में  में पर्याप्त दूरी थी जो हमें पैदल तय करनी थी और तब पकड़नी थी बस . बस स्टैंड था तब के थाणे और चुंगी चौकी के भी आगे , शायद अब भी वहीं होगा . इस के बीच में दुपहिया वाहनों का स्टैंड भी था और भी कई अड़ख़ंजे थे .

उधर दूर एक बस रवाना होने की तैयारी में दिख रही है और ये ल्लो वो तो रवाना भी हो गई , अब उसमें बैठने का तो कोई चांस लग नहीं रहा था . ऐसी कोई ख़ास बात भी नहीं थी , अगली बस ली जा सकती थी पर होणहार की बात विनोद को जाने क्या सूझी उसने एक हाथ खड़ा करके बोल दिया :

“ अरे भाई ज़रा रोक के ………… !”

पर चलते रहे धीमी गति से ही क्योंकि अब हमें तो अगली बस ही पकड़नी थी और उसके लिए पर्याप्त समय था . पर तभी एक चमत्कार हुआ जो बस रवाना हो चुकी थी वो ही दो मिनिट में रुक गई और तब तक रुकी रही जब तक हम वहां  पहुँच नहीं गए .

एक एक कर हम तीनों पिछले दरवाज़े से चढ़े तो कंडक्टर ने एक ही सवाल पूछा :

“ और कित्ते हो ..? “

ख़ैर हमने बताया कि हम तो तीन ही हैं  , आश्वस्त होकर कंडक्टर ने सीटी मार दी , चल पड़ी बस .

अब मैंने अपने स्वागत के लिए कंडक्टर के अतिरिक्त उत्साह की वजह पूछी तो वो कंडक्टर युवक बोला वो आप भी जाण लीजिए :

“  भाई साब  ! मेरी बग़ल में से जो भी स्कूटर , मोटर साइकिल  वाला निकलता था  मुझे ताण जाता था :

‘ अरे भाई ज़रा रोक के ….पीछे सवारी है .’

‘ अरे भाई ज़रा रोक के ……..   ‘

‘अरे भाई ज़रा रोक के ..  …….’

अब समझ आई  बात कि हमारे कहे को ले उड़े दुपहिया वाहन वाले और उन्होंने बस कंडक्टर को स्थगन आदेश थमा दिया इस लिए हमारे लिए रुकी रही बस .

कही बात दूर तक पहुँचती है यही है निष्कर्ष इस क़िस्से का .

आप कहो तो सही .

नमस्कार

सुमन्त पंड़्या

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

सोमवार २६ दिसम्बर २०१६ .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी  #sumantpandya