ज़रा रोक के ….: जयपुर डायरी .
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पुरानी छोटी छोटी बातें कभी कभी याद रह जाती हैं तो वो मैं बताया करता हूं उन्हीं में से एक बात है ये , ये बात उस दिन याद आ गई थी जब मैं आशियाना आँगन मैं लिफ़्ट के केबिन से दूर था और जीवन संगिनी और उनके साथ खड़ी एक मानस पुत्री ने मेरे लिए ऊपर जाती लिफ़्ट रोक ली थी .
तब मुझे याद आया क़िस्सा ,” ज़रा रोक के ….” . लिफ़्ट की क्या बात अपण के लिए तो बस भी रुक जाया करती थी कभी .
क़िस्से का इतिहास और भूगोल :
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ये बात उन्नीस सौ तिहत्तर पिचहत्तर के दौर की है जब मैं बनस्थली में काम किया करता था , भाई साब उदयपुर में काम करते थे और इधर विनोद और गोपेश जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय में एम ए कक्षाओं में पढ़ा करते थे . घटना तब की है जब भाई साब और भाभी जी और एक छोटी बच्ची रेल से उदयपुर जा रहे थे और इधर मैं , विनोद और गोपेश उनको बैठाने रेलवे स्टेशन गए थे .
तब जयपुर शहर में ताँगे चला करते थे , हम लोग नाहर गढ़ रोड , चाँदपोल बाज़ार से रेलवे स्टेशन इन लोगों के साथ ताँगे में बैठकर चले गए थे और गाड़ी के रवाना होने के बाद हम तीन छड़े लोगों को लौटकर घर आना था . वही नाहर गढ़ रोड .
बाई द वे आज की तारीख़ में तो मुझे छोड़कर इस प्रकरण से से सम्बंधित सभी पात्रों के के पास मोटरें हैं पर ये तो तब की बातें हैं . तब जयपुर रेलवे स्टेशन से बड़ी चौपड़ के बीच लाल रंग की सिटी बसें चला करती थीं . हम लोग नाहरगढ़ रोड आने के लिए इस सिटी बस का उपयोग कर लिया करते थे .
अब तो इस रूट पर बस चलने के हालात स्थगित हैं , जिस दिन भी चलेगी मैट्रो ही चलेगी शायद .
चलो अपण तो उस दिन की बात करते हैं :
उस दिन क्या हुआ था ?
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हम तीन लोग - मैं , विनोद और गोपेश भाई साब - भाभी जी की गाड़ी रवाना होने के बाद जयपुर जंक्शन के प्लेटफ़ार्म से उतर कर सड़क पर आए और अब हम लोग सिटी बस पकड़ना चाहते थे , जो भी शहर के परकोटे में जाने वाली बस मिल जाए .
फिर भूगोल :
----------- रेलवे प्लेटफ़ार्म और सिटी बस स्टैंड के बीच में में पर्याप्त दूरी थी जो हमें पैदल तय करनी थी और तब पकड़नी थी बस . बस स्टैंड था तब के थाणे और चुंगी चौकी के भी आगे , शायद अब भी वहीं होगा . इस के बीच में दुपहिया वाहनों का स्टैंड भी था और भी कई अड़ख़ंजे थे .
उधर दूर एक बस रवाना होने की तैयारी में दिख रही है और ये ल्लो वो तो रवाना भी हो गई , अब उसमें बैठने का तो कोई चांस लग नहीं रहा था . ऐसी कोई ख़ास बात भी नहीं थी , अगली बस ली जा सकती थी पर होणहार की बात विनोद को जाने क्या सूझी उसने एक हाथ खड़ा करके बोल दिया :
“ अरे भाई ज़रा रोक के ………… !”
पर चलते रहे धीमी गति से ही क्योंकि अब हमें तो अगली बस ही पकड़नी थी और उसके लिए पर्याप्त समय था . पर तभी एक चमत्कार हुआ जो बस रवाना हो चुकी थी वो ही दो मिनिट में रुक गई और तब तक रुकी रही जब तक हम वहां पहुँच नहीं गए .
एक एक कर हम तीनों पिछले दरवाज़े से चढ़े तो कंडक्टर ने एक ही सवाल पूछा :
“ और कित्ते हो ..? “
ख़ैर हमने बताया कि हम तो तीन ही हैं , आश्वस्त होकर कंडक्टर ने सीटी मार दी , चल पड़ी बस .
अब मैंने अपने स्वागत के लिए कंडक्टर के अतिरिक्त उत्साह की वजह पूछी तो वो कंडक्टर युवक बोला वो आप भी जाण लीजिए :
“ भाई साब ! मेरी बग़ल में से जो भी स्कूटर , मोटर साइकिल वाला निकलता था मुझे ताण जाता था :
‘ अरे भाई ज़रा रोक के ….पीछे सवारी है .’
‘ अरे भाई ज़रा रोक के …….. ‘
‘अरे भाई ज़रा रोक के .. …….’
अब समझ आई बात कि हमारे कहे को ले उड़े दुपहिया वाहन वाले और उन्होंने बस कंडक्टर को स्थगन आदेश थमा दिया इस लिए हमारे लिए रुकी रही बस .
कही बात दूर तक पहुँचती है यही है निष्कर्ष इस क़िस्से का .
आप कहो तो सही .
नमस्कार
सुमन्त पंड़्या
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
सोमवार २६ दिसम्बर २०१६ .
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