~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
#बनस्थलीडायरी : उत्तरवर्त्ती थान कथा : भाग एक
~~~~~~~~~~~~ ~~~~~~~~~~~~~ ~~~~~~
वो तो पिछली शताब्दी की और बनस्थली में मेरे सेवा काल की शुरुआत की बात थी और पुरानी बात थी जब मैंने बाईस रूपए का थान खरीदा था और थान की कहानी गणेश जी की खीर के भगोने की तरह लंबी चली थी . मेरी विगत दो कड़ियों में आई पोस्ट में उस बाबत थोड़ी बात आई , आज प्रयास करता हूं कि उत्तरवर्ती थान की कहानी भी यहां मांडूं जिसके तार तो महामहिम ए पी जे अब्दुल कलाम तक से जुए थे , ये बात भी आगे एक जगह आएगी .
अंतराल की कहानी .
~~~~~~~~~~~~
समय बदला , शताब्दी बदल गई . फूफाजी भी नहीं रहे जो मुझे माणक चौक चोपड़ के खंदे से थान दिलवा कर लाए थे . सरदार जसवंत सिंह ने सिलाई का कारोबार ही बंद कर दिया . मोटे रेजे का ठंडा सूट फिर से सिलवाने की हसरत कहीं मन में ही दबी रह गई . इस हसरत को अचानक घटी एक घटना ने फिर से जगा दिया . इस बीच मेरे नए ड्रेस डिजाइनर भी तैयार हो गए और बदले समय के अनुसार जो नया जोड़ और जाकट तैयार हुई उसी की कहानी कहूंगा .
इस जोड़ ने तो मुझे मुख्य अतिथि के रूप में प्रेजेंटेबल भी बना दिया , हो सका तो वो बात भी बताऊंगा .
थान मिल गया .
~~~~~~~~~ एक दिन पप्पू मुझे अपनी लाल रंग की वैन से घर छोड़ने आया . जैसे ही मैं वैन से उतरने लगा तो मुझे उसकी वैन में पीछे की ओर एक वैसा ही थान रखा दिखाई दिया जैसा कभी बीसवीं शताब्दी में संयोगों से जुट गया था और मैंने पप्पू से इस थान की बाबत पूछा . पप्पू , खानदानी कलाकार , बनस्थली से पश्चिम में कोई पंद्रह किलोमीटर दूर एक जुलाहे से वो थान लेकर आया था और उसकी आगे इसके कलात्मक उपयोग की योजना थी . पप्पू ने ये भी बताया कि ऐसे ही थान के कपड़े की बनी एक जाकट वो महामहिम ए पी जे अब्दुल कलाम को भी पहना चुका था . इस थान के प्रति अपना लगाव मैंने भी जताया और कहा कि ऐसा एक थान मैं भी लेना चाहूंगा . एक बार तो पप्पू मेरी बात सुनकर चला गया लेकिन थोड़ी देर बाद घर आकर जो थान उसकी मोटर में रखा था वो ही दे गया . उसका तो उस ग्रामीण जुलाहे से सतत संपर्क था .
अब योजना बनने लगी इस नए थान के उपयोग की . नए जमाने के हिसाब से नए दाम थे . वही छोटे अर्ज का(सिंगिल विड्थ का ) पंद्रह मीटर का थान मेरे पास आ गया था और लागत बैठी सात सौ पचास रूपए .
थानोपयोग के मददगार :
~~~~~~~~~~~~~~ इस बीच निवाई के राजू और रामू , सरगम गारमेंट्स के मालिक , मेरे ड्रेस डिजाइनर बन चुके थे और वस्त्र विन्यास की उनकी सौंदर्य दृष्टि अत्यंत सुरुचिपूर्ण थी . अब थान इस युवकों के हवाले था और उनसे ही इस विषय में मैंने विचार विमर्श किया .
अब ठंडा जोधपुरी कोट सिलवाना तो कारीगर की लागत और भुगतान के हिसाब से बूते के बाहर लगा . राजू और रामू की सलाह पर मैंने पहला काम तो ये किया कि इस थान से सफारी सूट सिलवा डाला और अगली योजना में डाला जवाहर जाकट की सिलाई को . ये जाकेट भी लोक आकर्षण का विषय बनी . जाकट की कहानी आगे , अभी पहले सफारी सूट की बात .~~~
इस सफारी सूट के तैयार होने के बाद मुझें मुख्य अतिथि की भूमिका के लिए पहला निमंत्रण महिमा के स्कूल से मिला था . मैं वहां तो गया ही निवाई में ही तो काम करती थी तब महिमा , स्कूल के अलावा घर लौटने से पहले सरगम गारमेंट्स के यहां भी गया राजू और रामू को शाबाशी देने , उन्होंने मेरे मन माफिक थानोपयोग का श्री गणेश कर दिया था .
समय नहीं है अतः उत्तरवर्त्ती थान कथा अभी हाल के लिए स्थगित करता हूं ..
उस सुखद समय को याद करते हुए
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
सुप्रभात .
तकनीकी सहयोग और समीक्षा : Manju pandya .
~~~~~~~~~~~~~
सुमन्त पंड्या .
@ गुलमोहर कैम्प , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
21 नवम्बर 2015 .
अब प्रयास करता हूं कि उत्तरवर्ती थान कथा को अपने ब्लॉग पर अंकित कर सकूं जिसका नाम है रवीन्द्र निवास से गुलमोहर .
No comments:
Post a Comment