Thursday, 3 December 2015

बाईस रुपए का थान ~

 #बाईस रूपए का थान खरीदा था : भाग दो . #बनस्थलीडायरी
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फूफाजी की मदद से थान तो मैं खरीद लाया था  अब बारी थी इसके कपड़े सिलवाने की  और उसमें मेरे एक मात्र मददगार थे बापू बाजार के मेरे ड्रेस डिजाइनर सरदार जसवंत सिंह जी जिनका जिक्र पिछली कड़ी में आया ही है . पूरा का पूरा थान लेकर मैं उनके पास पहुंचा और थान उन्हें थमा कर बोला :

 “ इसमें से पहले पहल तो मेरा ठंडा सूट बनेगा सरदार जी . आगे बचे कपडे का क्या करना है ये बाद में देखा जाएगा . “

सरदार जी ने थान झेल लिया और अपनी ओर से मेरी ऊपर से नीचे तक नाप जोख करने लगे .

थान बाबत टिप्पणी ~
~~~~~~~~~~~~~ ये ऑफ व्हाइट रंग के मोटे सूती कपड़े का बड़ा थान था बगैर धुला बगैर ब्लीच किया हुआ . आगे की इस थान की कहानी गणेश जी के खीर के भगोने वाली होने जा रही थी  जो उल्लेख आगे आएगा , अभी उसे स्थगित करते हैं .

सरदार जी ने क्या किया ?
~~~~~~~~~~~~~~~~  सूती कपड़े की प्रकृति के बारे में सरदार जी बहुत बढ़िया समझते थे  , वो तो एक बड़ी बाल्टी और ये थान लेकर तुरंत नल पर पानी भरने चल दिए ताकि कपड़ा जितना सिकुड़ना है सिलने से पहले ही सिकुड़ लेवे .
ऊनी कोट पैंट में ये बात बाद में भुगती  , समझ ही बाद में आई , खादी चाहे ऊनी हो या सूती उसे सिलने से पहले श्रिंक  किया ही जाना चाहिए . ये ज्ञान आते आते दशक बीत गया था . पर मेरी बात कोई एक दशक की बात थोड़े ही है , ये तो चार दशकों की बात है .

बन गया सूट आखिरकार जुलाहे के थान के कपड़े का जिसे मैंने हाथ सहारे से रखा और विशिष्ट अवसरों पर पहना ख़ास  तौर से  बनस्थली में और राष्ट्रीय और स्थानीय पर्वों पर . हमेशा अपने हाथों से धोया और तीखे साबुनों और ब्लीच से बचाया ताकि  उसका प्राकृतिक रंग जहां तक संभव हो बचा रहे . हां ये बताना तो रह ही गया कि सरदार जी ने कोट की सिलाई पंद्रह  रुपए ली और पैंट की पांच रूपए , यों सूट की कुल सिलाई बैठी बीस रुपए . बचा हुआ थान का कपड़ा सरदार जी ने मुझे लौटा दिया जो भी बहुविध बरता गया . एक सामान्य कमीज और एक सामान्य पैन्ट और भी बन गई . थान का  कुछ भाग अब भी बचा हुआ था .
इस सब सामग्री का क्या हुआ उससे जुडी तीन दोस्तों की बात यहां बताऊंगा पर जब परिसर में मैं वो सूट पहन कर निकलता तो  ये सवाल अक्सर पूछे जाते :
“ कहां से लाए  ? “
“ कौन से खादी भण्डार से मिला ? “
“ ऐसा कपड़ा कहां मिलता है ?”
“ कहां सिलवाया  ? “
इस सब का ले देकर असर ये हुआ कि  हालांकि जुलाहों के हाट तक तो कोई नहीं पहुंचा पर एक तो खादी भंडारों में मोटे कोटिंग के सूती कपड़ों की बिक्री को प्रोत्साहन मिला और सरदार जसवंत सिंह को ग्राहकी मिली .
मोटी सूती खादी के ठंडे सूट हम्मा तुम्मा के पहनने लायक होते हैं ये बात साथियों को भी समझ आने लगी वरना तो ये सरकारी दफ्तरों में चपरासियों की वर्दी मानी जाती थी .

तीन साथियों की बातें :
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1.
  हिंदी विभाग के पद्माकर मैथिल तो इतने खुश हुए कि जल्दी से जल्दी थान का बचा हुआ कपड़ा किसी न किसी उपयोग के लिए ले जाना चाहते थे  , गो कि उनका डील  डोल ऐसा था कि मेरा सिला सिलाया कपड़ा तो उनके किसी काम का था नहीं . वे घर आए , सिंगल विड्थ का पौने तीन मीटर कपड़ा  बचा हुआ था वो ले गए और अपने लिए पतलून सिलवा डाली .
पद्माकर अब हमारे बीच नहीं हैं , ऐसे दोस्त बहुत याद आते हैं .

2.
अंग्रेजी विभाग के रामानंद शर्मा एक गहरे रंग का ठंडे सूट का कपड़ा किसी खादी भण्डार से खरीद लाए और मेरी मिसाल देकर सरदार जसवंत सिंह जी से सूट सिलवाने  पहुंचे .
रामानंद के लिए लड़कियों ने क्या कहानी बनाई वो एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उजागर हुई जो मुझे याद आती है . उन्होंने गाया :

“ वो कौन हैं , वो कौन हैं जो पोस्ट मैन लगते हैं? “
रामानंद के लिए ये इशारा था .

3.
 अंग्रेजी विभाग के कृपाकृष्ण गौतम की बात इन दोनों से अलग रही .
सुबह सुबह गौतम अपने गृह नगर नैनवां से चलकर बनस्थली आए . मुझसे बोले :
“ यार सुमन्त , पहनने के लिए अपनी कोई खादी की कमीज दे कालेज जाना है .”
मैंने कमीजें दिखा दी . उन्हें  ऐतिहासिक थान की कमीज रास आई , पहन कर उस बखत तो कालेज चले गए  पर शाम को उन्होंने स्पष्ट किया कि अब वो मुझे ये कमीज लौटाएंगे नहीं .
गौतम का शरीर भी मेरे जैसा था  इसलिए लगता था मानो उसी के नाप से सिली थी कमीज .
ऐसे थे उस बखत के दोस्त जिनकी बहुत याद आती है आज भी .
थान कथा में बहुत बिलंब हो गया कथा के साथ एक कमीज की तस्वीर जोड़ने की कोशिश करूंगा जो एक उत्तरवर्ती थान में से बनी थी . पहले थान की तो एक पैन्ट ही बची थी .
प्रातःकालीन सभा स्थगित….  
इति.
सतत सहयोग और कथा समीक्षा :
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सुप्रभात
सुमन्त पंड्या .
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर
19 नवम्बर 2015 .

1 comment:

  1. इस संस्मरण पर फिर से चर्चा छेड़ी है फेसबुक पर ।

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