Thursday, 3 December 2015

पोरम्परा ३

       
       #बनस्थलीडायरी   #पोरम्परा: मर्दाना धोती की बात ~ भाग तीन .
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      बनस्थली का दीक्षांत समारोह  :

          ये सारा का सारा मर्दाना धोती प्रसंग  बनस्थली विद्यापीठ के  प्रतिवर्ष होने वाले दीक्षांत समारोह से जुड़ गया और इसे पोरम्परा का नाम दिया सेठ जी ने  आज प्रयास करूंगा कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई ये बताऊं .
दीक्षांत समारोह की तैयारी :
-----------------------------    जब अस्सी के दशक में विद्यापीठ को विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और प्रतिवर्ष  उपाधि वितरण के लिए दीक्षांत समारोह आयोजित किए जाने लगे तो डिग्री लेने वाली छात्राओं के  लिए ड्रेस कोड भी निर्धारित किया गया . अलग अलग संकाय के लिए समान  बॉर्डर वाली साड़ियां तैयार करवाई गईं और आगे चलकर एक सुन्दर दृष्य  उत्पन्न हुआ प्रतिवर्ष आयोजित ऐसे समारोह में . यहां एक नुक्ता बचा हुआ था . उसी की बात बताऊंगा .

उन दिनों तिवारी जी ( श्री विद्याधर तिवारी )  विद्यापीठ में प्रिंसीपल की भूमिका से रिटायर होने के बाद विद्या मंदिर में ओ एस डी के रूप में कार्यरत थे और एकेडेमिक सेक्शन का काम भी देखते  थे  . मुझे याद आता है है कि हम में से कुछ लोगों ने उनके सामने ये प्रश्न उठाया था कि और सब कोई डिग्री लेने वाली तो  लड़कियां - महिलाएं ही होंगी और साड़ी / जनाना धोती का ड्रैस कोड उनके लिए उचित होगा पर पी एच डी डिग्री पाने वाला तो कोई पुरुष दीक्षार्थी भी होवेगा उस के लिए साडी का ड्रैस कोड कैसे अनुकूल होगा . तिवारी जी ने हमारा सुझाव मानते हुए एक दुप्पट्टे / उत्तरीय का ड्रैस कोड इस कटेगरी के लिए निर्धारित कर दिया और शेष पोशाक का प्रश्न खुला रहा . कुल बात ये कि पी एच डी का दीक्षार्थी एक ख़ास दुपट्टा लगा कर मंच पर डिग्री लेने आएगा .

और वो दिन आ गया :
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मेरी  जानकारी के अनुसार बनस्थली विद्यापीठ के विश्वविद्यालय बनने के  बाद पहले पी एच डी  के पुरुष दीक्षार्थी  शिक्षा संकाय  ( एज्यूकेशन फैकेल्टी ) के  श्री गोपीनाथ शर्मा थे . समारोह के दिन उन्हें दुपट्टा मिल गया और वो एकेमेडेमिक सेक्शन के डिप्टी रजिस्ट्रार भंवर लाल जी से पूछने गए कि और वस्त्र क्या धारण कर के आवें . भंवर लाल जी ने जो तजवीज बताई उसी से एक परम्परा का श्री गणेश हो गया . भंवर लाल जी बोले :
“ धोती कुर्ता पहन कर आइए , उसी के साथ दुपट्टे का मेल बढ़िया रहेगा .”

पंडित जी ने भंवर लाल जी की बात मान ली . धोती , कुर्ता और दुपट्टा धारण कर उपाधि लेने गए और समारोह की शोभा  बढ़ाई .

अब तो यह निर्धारित हो गया कि पुरुष  पी एच डी दीक्षार्थी का ड्रैस कोड होगा ~ धोती , कुर्ता और दुपट्टा . पंडित जी के पास ये पहनावा उपलब्ध था और उनके लिए सहज था . उन्होंने पहना और  डिग्री हासिल की .
एक परम्परा की स्थापना यहीं से हो गई .

संयोग से अगले समारोह में शिक्षा संकाय के ही मेरे अभिन्न मित्र श्री विनोद जोशी को पी एच डी की डिग्री मिलने वाली थी और समारोह की पूर्व संध्या को वो मेरे पास आए थे . तब से मैं इस समारोह के पुरुष वस्त्र विन्यास से कुछ ऐसा जुड़ा मानो धोती पहनाना मेरा ही परमाधिकार हो . कई एक विभूतियां 44 रवीन्द्र निवास में आईं जिनमें से कुछ एक का मैं विशेष नामोल्लेख करना चाहूंगा .
आम तौर पर कुर्ते तो सब कोई के पास होते हैं पर धोती हर कोई के पास नहीं होती इसी  लिए जोशी जी मुझसे धोती लेने आए थे उस दिन तो .
अपनी कहूं तो उन  दिनों मेरी अवस्था के लोगों में परिसर में धोती कुर्ता पहनने वालों में मेरी भी पहचान थी . और बड़ी अवस्था के लोगों में तो धोती का चलन था पर मेरी पीढ़ी में तो नहीं के बराबर था .
मैंने अपना धोतियों का संग्रह जोशी जी के सामने ला दिया और वे अपनी पसंद की धोती ले गए . अगले दिन समारोह से पहले जोशी जी 44 रवीन्द्र निवास में ही धोती पहनने आए तो पता लगा कि उनको घर ले जाकर धोती को फिर से धोना सुखाना और प्रेस करना पड़ा क्योंकि धोती में नील लगी होने के कारण कुर्ता धोती  का रंग आपस में मेल नहीं खा रहा था . उन दिनों मैं औरों की देखा देखी सफ़ेद सूती खादी के कपड़ों में रॉबिन लिक्विड नील का प्रयोग किया करता था . खैर ये तो एक इतर बात थी जो मुझे यों ही याद रही . ख़ास बात ये कि उस दिन जोशी जी  44 रवीन्द्र निवास से ही तैयार होकर डिग्री लेने गए , धोती उन्हें मैंने ही पहनाई .

इस बार से यह स्थापित हो गया कि पी एच डी का दीक्षार्थी यदि कोई पुरुष है तो समारोह के लिए  उसे धोती मैं ही पहनाता  हूं .

अगली बार एक समारोह के दिन गणित  विभाग के सोमानी जी  रवीन्द्र निवास में हमारे घर की ओर आते हुए दिखाई दिए . सोमानी वैसे तो बनस्थली से कहीं बाहर चले गए थे , मेरा उनसे परिचय जब यहां काम करते थे तब का था पर कभी घर नहीं आए थे . उस दिन उन के हाथ में एक मर्दाना धोती देख कर सहज प्रश्न किया :

“ क्यों सोमानी जी  , पी एच डी की डिग्री मिलने वाली है  ?”
उन्होंने स्वीकृति में सर हिलाया और मैं बोला :
“ वाह , बहुत खुशी की बात , आ जाओ आप को तैयार कर देते हैं .”

शाम को हमारे पड़ोस के नवाल जी ने बताया कि उनके संपर्क में आए थे सोमानी जी , लेखानुभाग में एस ओ थे नवाल जी अतः उनको सब कोई लोग जानते ही थे . और उन्होंने ही बताया कि वो मेरे घर की दिशा इंगित कर बोले थे :
“ उनके पास जाइए , वो पहनाएंगे आप को धोती .”

सच कहूं उन दिनों  44 रवीन्द्र निवास किसी रूप में ग्रीन रूम से कम नहीं लगता था जहां से रेसिपिएंट्स ऑफ डिग्री  बन संवर कर जाया करते थे .
जो और कुछ बातें याद आ गईं तो वो भी बताऊंगा वरना यों तो बात हो ही गई है लगभग पूरी .
पिछली शताब्दी के इष्ट मित्रों को याद करते हुए ..
सायंकालीन सभा स्थगित .
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शुभ संध्या .
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सुमन्त पंड्या
लेखन अनुमति :
@आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
26 नवम्बर 2015 .

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