बनस्थली डायरी : हास्य सम्राट रंग लाल .
यदि आपने शांता कुञ्ज से सटे पुराने मेहमान घर में भोजन किया और रंगा जी से नहीं मिले तो आपने कुछ खो दिया यही समझ लीजिए .
भोजन हंसी ख़ुशी के वातावरण में ही हो रंगा जी इस सिद्धांत के प्रतिपादक हुआ करते थे . रंगा वो कड़ी भी है जो मुझे राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद से जोड़ती है . उन्हें भी भोजन परोसा था और मुझे भी , केवल समय का अंतराल बीच में है .
छीले के पत्तों से बनी पत्तलों और दोनों में भोजन परोसा जाता . दाल, चावल , सब्जी से लबालब भरी बाल्टी से रंगा जी पत्तल में भोजन परोसने लगते तो दाल का दोना डगमगाने लगता , दाल पत्तल में बिखरने को होती और रंगा जी तुरत कहते :
"मैंने प्याज पहले ही दे दिया है , एक प्याज टुकड़ा लगाओ दोने के बराबर दोना रुक़ जाएगा ."
ये बात तो मुझे बार बार याद आती है कि भोजन के अंत से पहले पापड़ लाया जाता और मैं कहता :
" रंगा जी, पापड़ मुझे जाते बखत देना , पापड़ खाते रास्ता कट जाएगा और मैं घर पहुंच जाऊंगा ."
रंगा जी तुरत कहते :
"ये तो आप अभी खाओ , जाते बखत दूसरा देऊंगा ."
और जब मैं चौक में टंकी के सामने हाथ धोकर जेब से रूमाल निकाल रहा होता तो रंगा जी मेरे लिए दूसरा पापड़ लिए खड़े होते .
मेरे लिए उन्होंने दो बार पापड़ का विशेष प्रावधान कर दिया था , यह मैं कैसे भूल सकता हूं .
अगर उस जमाने के रंगा जी से आप मिले होते तो यह कहना सही होता :
"अब टेंशन जाएगा पेंशन लेने !"
किसी जमाने में शांताकुंज के द्वार पर छब्बीस नंबर का सार्वजनिक टेलीफोन हुआ करता था , रंगलाल याने रंगा जी वहां भी ड्यूटी देते .
फोन आने पर कह बैठते :
" मैं प्रोफ़ेसर रंगा बोल रहा हूं ."
ये वो ज़माना था जब संसद में प्रोफ़ेसर रंगा का नाम हुआ करता था .
ये सुनकर दूसरी ओर से बोल रहे अभिजन कहते :
"रंगा , तू कब सुधरेगा ?"
ऐसे मेरे प्रिय जन रंगा जी को याद करते हुए .
इति प्रातःकालीन सभा .
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