ब्लॉग लिखने का बार बार प्रयास कर रहा हूं और विफल हो रहा हूं . प्रयासरत हूं , कभी तो सफलता मिलेगी ही .
Sunday, 6 December 2015
Saturday, 5 December 2015
" प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ? "
मेरी कहावत : "प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?"
उस दिन जब संस्कृतज्ञों के सम्मलेन में प्यारे मोहन जी बनस्थली आए और घर ( 44 रवीन्द्र निवास) मिलने आए तो इस कहावत की चर्चा चल पड़ी जो अनायास एक आगंतुक की बात से बन गई थी और मेरी जबान पर आ गई थी . एक अरसे से मैं इस कहावत को बरतता आया लेकिन प्यारे मोहन जी को उस दिन इस कहावत के बाबत बताया था .
हुआ क्या था? कैसे बनी कहावत ?
#नाहरगढ़रोड
आज वही बताने जा रहा हूं . हुआ यूं था कि नाहरगढ़ की सड़क पर जंगजीत महादेव के सामने हमारे घर के चौक में आकर एक आगंतुक ने ऊपर की मंजिल की ओर झांकते हुए आवाज लगाईं :
"प्यारे मोहन जी.......प्यारे मोहन जी "
ये आवाज सुनकर हमारे बापू (ताऊ जी) सक्रिय हो गए . उन्होंने पूरा नाम ठीक से सुना नहीं और हरि मोहन का नाम पुकारा यह समझकर हरि मोहन को बुलाने लग गए . " हरि मोहन जी.... हरि मोहन जी ."
बापू भी पहली मंजिल के बांए हिस्से में खड़े थे और पहली मंजिल के सामने वाले हिस्से में हरि मोहन नाम का युवक रहता था जिस तक यह आवाज पहुंचने की संभावना थी . आगंतुक इस पुकार का परिणाम जानने को चौक में तटस्थ खड़ा था .
स्पष्टीकरण : हरि मोहन किसी भी रूप में प्यारे मोहन जी से सम्बंधित नहीं था, न ही उन्हें जानता था . प्यारे मोहन जी हम सब के सुपरिचित थे और सात चौक की व्यासों की हवेली के निवासी थे , इस हवेली का रास्ता हमारे घर के बराबर से जाता था . सब तो प्यारे मोहन जी को जानते थे , अगर नहीं जानता था तो सिर्फ हरि मोहन .
आगंतुक किसी गफलत में बराबर के रास्ते से न जाकर हमारे घर के चौक में चला आया था और अपने आतिथेय को खोज रहा था . आवाज हरि मोहन को दी जा रही थी तो भी वो समझ रहा था कि प्यारे मोहन जी के घर में कोई हरि मोहन भी होगा .
कई आवाजें पड़ने के बाद सामने की ओर से झरोखे में हरि मोहन निकल कर आया और उसका आगंतुक से संवाद हुआ वहीँ बात पूरी हुई और मेरे लिए एक कहावत भी बन गई :
हरि मोहन प्रश्न सूचक दृष्टि से आगंतुक को देखने लगा . आगंतुक ने पूछा:
प्यारे मोहन जी ?
हरि मोहन ने कहा: कौन प्यारे मोहन ?
आगंतुक ललाट तक अपनी चार अंगुलियां लेजाकर बोला ;
" प्यारे मोहन जी न नी जाणो ...!?" *
अब माजरा साफ़ हो गया था . बापू जिन्होंने आगंतुक को मिलवाने में मध्यस्तता की थी वो भी बात को समझ गए थे और अब वो बोले आगंतुक से :
" आप यहां से बाहर जाओ और बराबर के रास्ते से पीछे के चौक में चले जाओ , वहां मिलेंगे आपको प्यारे मोहन जी."
* मेरे लिए तब से ये कहावत बन गई :" प्यारे मोहन जी न नी जाणो ?"
अर्थात " आप प्यारे मोहन जी को नहीं जानते ?!"
समर्थन और सुझाव :
सुप्रभात .
सुमन्त.
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
3 अप्रेल 2015 .मेरी कहावत : प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?
मेरी कहावत : "प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?"
उस दिन जब संस्कृतज्ञों के सम्मलेन में प्यारे मोहन जी बनस्थली आए और घर ( 44 रवीन्द्र निवास) मिलने आए तो इस कहावत की चर्चा चल पड़ी जो अनायास एक आगंतुक की बात से बन गई थी और मेरी जबान पर आ गई थी . एक अरसे से मैं इस कहावत को बरतता आया लेकिन प्यारे मोहन जी को उस दिन इस कहावत के बाबत बताया था .
हुआ क्या था? कैसे बनी कहावत ?
#नाहरगढ़रोड
आज वही बताने जा रहा हूं . हुआ यूं था कि नाहरगढ़ की सड़क पर जंगजीत महादेव के सामने हमारे घर के चौक में आकर एक आगंतुक ने ऊपर की मंजिल की ओर झांकते हुए आवाज लगाईं :
"प्यारे मोहन जी.......प्यारे मोहन जी "
ये आवाज सुनकर हमारे बापू (ताऊ जी) सक्रिय हो गए . उन्होंने पूरा नाम ठीक से सुना नहीं और हरि मोहन का नाम पुकारा यह समझकर हरि मोहन को बुलाने लग गए . " हरि मोहन जी.... हरि मोहन जी ."
बापू भी पहली मंजिल के बांए हिस्से में खड़े थे और पहली मंजिल के सामने वाले हिस्से में हरि मोहन नाम का युवक रहता था जिस तक यह आवाज पहुंचने की संभावना थी . आगंतुक इस पुकार का परिणाम जानने को चौक में तटस्थ खड़ा था .
स्पष्टीकरण : हरि मोहन किसी भी रूप में प्यारे मोहन जी से सम्बंधित नहीं था, न ही उन्हें जानता था . प्यारे मोहन जी हम सब के सुपरिचित थे और सात चौक की व्यासों की हवेली के निवासी थे , इस हवेली का रास्ता हमारे घर के बराबर से जाता था . सब तो प्यारे मोहन जी को जानते थे , अगर नहीं जानता था तो सिर्फ हरि मोहन .
आगंतुक किसी गफलत में बराबर के रास्ते से न जाकर हमारे घर के चौक में चला आया था और अपने आतिथेय को खोज रहा था . आवाज हरि मोहन को दी जा रही थी तो भी वो समझ रहा था कि प्यारे मोहन जी के घर में कोई हरि मोहन भी होगा .
कई आवाजें पड़ने के बाद सामने की ओर से झरोखे में हरि मोहन निकल कर आया और उसका आगंतुक से संवाद हुआ वहीँ बात पूरी हुई और मेरे लिए एक कहावत भी बन गई :
हरि मोहन प्रश्न सूचक दृष्टि से आगंतुक को देखने लगा . आगंतुक ने पूछा:
प्यारे मोहन जी ?
हरि मोहन ने कहा: कौन प्यारे मोहन ?
आगंतुक ललाट तक अपनी चार अंगुलियां लेजाकर बोला ;
" प्यारे मोहन जी न नी जाणो ...!?" *
अब माजरा साफ़ हो गया था . बापू जिन्होंने आगंतुक को मिलवाने में मध्यस्तता की थी वो भी बात को समझ गए थे और अब वो बोले आगंतुक से :
" आप यहां से बाहर जाओ और बराबर के रास्ते से पीछे के चौक में चले जाओ , वहां मिलेंगे आपको प्यारे मोहन जी."
* मेरे लिए तब से ये कहावत बन गई :" प्यारे मोहन जी न नी जाणो ?"
अर्थात " आप प्यारे मोहन जी को नहीं जानते ?!"
समर्थन और सुझाव :
सुप्रभात .
सुमन्त.
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
3 अप्रेल 2015 .प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?
मेरी कहावत : प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?
मेरी कहावत : "प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?"
उस दिन जब संस्कृतज्ञों के सम्मलेन में प्यारे मोहन जी बनस्थली आए और घर ( 44 रवीन्द्र निवास) मिलने आए तो इस कहावत की चर्चा चल पड़ी जो अनायास एक आगंतुक की बात से बन गई थी और मेरी जबान पर आ गई थी . एक अरसे से मैं इस कहावत को बरतता आया लेकिन प्यारे मोहन जी को उस दिन इस कहावत के बाबत बताया था .
हुआ क्या था? कैसे बनी कहावत ?
#नाहरगढ़रोड
आज वही बताने जा रहा हूं . हुआ यूं था कि नाहरगढ़ की सड़क पर जंगजीत महादेव के सामने हमारे घर के चौक में आकर एक आगंतुक ने ऊपर की मंजिल की ओर झांकते हुए आवाज लगाईं :
"प्यारे मोहन जी.......प्यारे मोहन जी "
ये आवाज सुनकर हमारे बापू (ताऊ जी) सक्रिय हो गए . उन्होंने पूरा नाम ठीक से सुना नहीं और हरि मोहन का नाम पुकारा यह समझकर हरि मोहन को बुलाने लग गए . " हरि मोहन जी.... हरि मोहन जी ."
बापू भी पहली मंजिल के बांए हिस्से में खड़े थे और पहली मंजिल के सामने वाले हिस्से में हरि मोहन नाम का युवक रहता था जिस तक यह आवाज पहुंचने की संभावना थी . आगंतुक इस पुकार का परिणाम जानने को चौक में तटस्थ खड़ा था .
स्पष्टीकरण : हरि मोहन किसी भी रूप में प्यारे मोहन जी से सम्बंधित नहीं था, न ही उन्हें जानता था . प्यारे मोहन जी हम सब के सुपरिचित थे और सात चौक की व्यासों की हवेली के निवासी थे , इस हवेली का रास्ता हमारे घर के बराबर से जाता था . सब तो प्यारे मोहन जी को जानते थे , अगर नहीं जानता था तो सिर्फ हरि मोहन .
आगंतुक किसी गफलत में बराबर के रास्ते से न जाकर हमारे घर के चौक में चला आया था और अपने आतिथेय को खोज रहा था . आवाज हरि मोहन को दी जा रही थी तो भी वो समझ रहा था कि प्यारे मोहन जी के घर में कोई हरि मोहन भी होगा .
कई आवाजें पड़ने के बाद सामने की ओर से झरोखे में हरि मोहन निकल कर आया और उसका आगंतुक से संवाद हुआ वहीँ बात पूरी हुई और मेरे लिए एक कहावत भी बन गई :
हरि मोहन प्रश्न सूचक दृष्टि से आगंतुक को देखने लगा . आगंतुक ने पूछा:
प्यारे मोहन जी ?
हरि मोहन ने कहा: कौन प्यारे मोहन ?
आगंतुक ललाट तक अपनी चार अंगुलियां लेजाकर बोला ;
" प्यारे मोहन जी न नी जाणो ...!?" *
अब माजरा साफ़ हो गया था . बापू जिन्होंने आगंतुक को मिलवाने में मध्यस्तता की थी वो भी बात को समझ गए थे और अब वो बोले आगंतुक से :
" आप यहां से बाहर जाओ और बराबर के रास्ते से पीछे के चौक में चले जाओ , वहां मिलेंगे आपको प्यारे मोहन जी."
* मेरे लिए तब से ये कहावत बन गई :" प्यारे मोहन जी न नी जाणो ?"
अर्थात " आप प्यारे मोहन जी को नहीं जानते ?!"
समर्थन और सुझाव :
सुप्रभात .
सुमन्त.
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
3 अप्रेल 2015 .Friday, 4 December 2015
#बनस्थली डायरी : उत्तरवर्ती थान कथा : भाग एक .
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#बनस्थलीडायरी : उत्तरवर्त्ती थान कथा : भाग एक
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वो तो पिछली शताब्दी की और बनस्थली में मेरे सेवा काल की शुरुआत की बात थी और पुरानी बात थी जब मैंने बाईस रूपए का थान खरीदा था और थान की कहानी गणेश जी की खीर के भगोने की तरह लंबी चली थी . मेरी विगत दो कड़ियों में आई पोस्ट में उस बाबत थोड़ी बात आई , आज प्रयास करता हूं कि उत्तरवर्ती थान की कहानी भी यहां मांडूं जिसके तार तो महामहिम ए पी जे अब्दुल कलाम तक से जुए थे , ये बात भी आगे एक जगह आएगी .
अंतराल की कहानी .
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समय बदला , शताब्दी बदल गई . फूफाजी भी नहीं रहे जो मुझे माणक चौक चोपड़ के खंदे से थान दिलवा कर लाए थे . सरदार जसवंत सिंह ने सिलाई का कारोबार ही बंद कर दिया . मोटे रेजे का ठंडा सूट फिर से सिलवाने की हसरत कहीं मन में ही दबी रह गई . इस हसरत को अचानक घटी एक घटना ने फिर से जगा दिया . इस बीच मेरे नए ड्रेस डिजाइनर भी तैयार हो गए और बदले समय के अनुसार जो नया जोड़ और जाकट तैयार हुई उसी की कहानी कहूंगा .
इस जोड़ ने तो मुझे मुख्य अतिथि के रूप में प्रेजेंटेबल भी बना दिया , हो सका तो वो बात भी बताऊंगा .
थान मिल गया .
~~~~~~~~~ एक दिन पप्पू मुझे अपनी लाल रंग की वैन से घर छोड़ने आया . जैसे ही मैं वैन से उतरने लगा तो मुझे उसकी वैन में पीछे की ओर एक वैसा ही थान रखा दिखाई दिया जैसा कभी बीसवीं शताब्दी में संयोगों से जुट गया था और मैंने पप्पू से इस थान की बाबत पूछा . पप्पू , खानदानी कलाकार , बनस्थली से पश्चिम में कोई पंद्रह किलोमीटर दूर एक जुलाहे से वो थान लेकर आया था और उसकी आगे इसके कलात्मक उपयोग की योजना थी . पप्पू ने ये भी बताया कि ऐसे ही थान के कपड़े की बनी एक जाकट वो महामहिम ए पी जे अब्दुल कलाम को भी पहना चुका था . इस थान के प्रति अपना लगाव मैंने भी जताया और कहा कि ऐसा एक थान मैं भी लेना चाहूंगा . एक बार तो पप्पू मेरी बात सुनकर चला गया लेकिन थोड़ी देर बाद घर आकर जो थान उसकी मोटर में रखा था वो ही दे गया . उसका तो उस ग्रामीण जुलाहे से सतत संपर्क था .
अब योजना बनने लगी इस नए थान के उपयोग की . नए जमाने के हिसाब से नए दाम थे . वही छोटे अर्ज का(सिंगिल विड्थ का ) पंद्रह मीटर का थान मेरे पास आ गया था और लागत बैठी सात सौ पचास रूपए .
थानोपयोग के मददगार :
~~~~~~~~~~~~~~ इस बीच निवाई के राजू और रामू , सरगम गारमेंट्स के मालिक , मेरे ड्रेस डिजाइनर बन चुके थे और वस्त्र विन्यास की उनकी सौंदर्य दृष्टि अत्यंत सुरुचिपूर्ण थी . अब थान इस युवकों के हवाले था और उनसे ही इस विषय में मैंने विचार विमर्श किया .
अब ठंडा जोधपुरी कोट सिलवाना तो कारीगर की लागत और भुगतान के हिसाब से बूते के बाहर लगा . राजू और रामू की सलाह पर मैंने पहला काम तो ये किया कि इस थान से सफारी सूट सिलवा डाला और अगली योजना में डाला जवाहर जाकट की सिलाई को . ये जाकेट भी लोक आकर्षण का विषय बनी . जाकट की कहानी आगे , अभी पहले सफारी सूट की बात .~~~
इस सफारी सूट के तैयार होने के बाद मुझें मुख्य अतिथि की भूमिका के लिए पहला निमंत्रण महिमा के स्कूल से मिला था . मैं वहां तो गया ही निवाई में ही तो काम करती थी तब महिमा , स्कूल के अलावा घर लौटने से पहले सरगम गारमेंट्स के यहां भी गया राजू और रामू को शाबाशी देने , उन्होंने मेरे मन माफिक थानोपयोग का श्री गणेश कर दिया था .
समय नहीं है अतः उत्तरवर्त्ती थान कथा अभी हाल के लिए स्थगित करता हूं ..
उस सुखद समय को याद करते हुए
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
सुप्रभात .
तकनीकी सहयोग और समीक्षा : Manju pandya .
~~~~~~~~~~~~~
सुमन्त पंड्या .
@ गुलमोहर कैम्प , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
21 नवम्बर 2015 .
अब प्रयास करता हूं कि उत्तरवर्ती थान कथा को अपने ब्लॉग पर अंकित कर सकूं जिसका नाम है रवीन्द्र निवास से गुलमोहर .
Thursday, 3 December 2015
पोरम्परा ३
#बनस्थलीडायरी #पोरम्परा: मर्दाना धोती की बात ~ भाग तीन .
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बनस्थली का दीक्षांत समारोह :
ये सारा का सारा मर्दाना धोती प्रसंग बनस्थली विद्यापीठ के प्रतिवर्ष होने वाले दीक्षांत समारोह से जुड़ गया और इसे पोरम्परा का नाम दिया सेठ जी ने आज प्रयास करूंगा कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई ये बताऊं .
दीक्षांत समारोह की तैयारी :
----------------------------- जब अस्सी के दशक में विद्यापीठ को विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और प्रतिवर्ष उपाधि वितरण के लिए दीक्षांत समारोह आयोजित किए जाने लगे तो डिग्री लेने वाली छात्राओं के लिए ड्रेस कोड भी निर्धारित किया गया . अलग अलग संकाय के लिए समान बॉर्डर वाली साड़ियां तैयार करवाई गईं और आगे चलकर एक सुन्दर दृष्य उत्पन्न हुआ प्रतिवर्ष आयोजित ऐसे समारोह में . यहां एक नुक्ता बचा हुआ था . उसी की बात बताऊंगा .
उन दिनों तिवारी जी ( श्री विद्याधर तिवारी ) विद्यापीठ में प्रिंसीपल की भूमिका से रिटायर होने के बाद विद्या मंदिर में ओ एस डी के रूप में कार्यरत थे और एकेडेमिक सेक्शन का काम भी देखते थे . मुझे याद आता है है कि हम में से कुछ लोगों ने उनके सामने ये प्रश्न उठाया था कि और सब कोई डिग्री लेने वाली तो लड़कियां - महिलाएं ही होंगी और साड़ी / जनाना धोती का ड्रैस कोड उनके लिए उचित होगा पर पी एच डी डिग्री पाने वाला तो कोई पुरुष दीक्षार्थी भी होवेगा उस के लिए साडी का ड्रैस कोड कैसे अनुकूल होगा . तिवारी जी ने हमारा सुझाव मानते हुए एक दुप्पट्टे / उत्तरीय का ड्रैस कोड इस कटेगरी के लिए निर्धारित कर दिया और शेष पोशाक का प्रश्न खुला रहा . कुल बात ये कि पी एच डी का दीक्षार्थी एक ख़ास दुपट्टा लगा कर मंच पर डिग्री लेने आएगा .
और वो दिन आ गया :
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मेरी जानकारी के अनुसार बनस्थली विद्यापीठ के विश्वविद्यालय बनने के बाद पहले पी एच डी के पुरुष दीक्षार्थी शिक्षा संकाय ( एज्यूकेशन फैकेल्टी ) के श्री गोपीनाथ शर्मा थे . समारोह के दिन उन्हें दुपट्टा मिल गया और वो एकेमेडेमिक सेक्शन के डिप्टी रजिस्ट्रार भंवर लाल जी से पूछने गए कि और वस्त्र क्या धारण कर के आवें . भंवर लाल जी ने जो तजवीज बताई उसी से एक परम्परा का श्री गणेश हो गया . भंवर लाल जी बोले :
“ धोती कुर्ता पहन कर आइए , उसी के साथ दुपट्टे का मेल बढ़िया रहेगा .”
पंडित जी ने भंवर लाल जी की बात मान ली . धोती , कुर्ता और दुपट्टा धारण कर उपाधि लेने गए और समारोह की शोभा बढ़ाई .
अब तो यह निर्धारित हो गया कि पुरुष पी एच डी दीक्षार्थी का ड्रैस कोड होगा ~ धोती , कुर्ता और दुपट्टा . पंडित जी के पास ये पहनावा उपलब्ध था और उनके लिए सहज था . उन्होंने पहना और डिग्री हासिल की .
एक परम्परा की स्थापना यहीं से हो गई .
संयोग से अगले समारोह में शिक्षा संकाय के ही मेरे अभिन्न मित्र श्री विनोद जोशी को पी एच डी की डिग्री मिलने वाली थी और समारोह की पूर्व संध्या को वो मेरे पास आए थे . तब से मैं इस समारोह के पुरुष वस्त्र विन्यास से कुछ ऐसा जुड़ा मानो धोती पहनाना मेरा ही परमाधिकार हो . कई एक विभूतियां 44 रवीन्द्र निवास में आईं जिनमें से कुछ एक का मैं विशेष नामोल्लेख करना चाहूंगा .
आम तौर पर कुर्ते तो सब कोई के पास होते हैं पर धोती हर कोई के पास नहीं होती इसी लिए जोशी जी मुझसे धोती लेने आए थे उस दिन तो .
अपनी कहूं तो उन दिनों मेरी अवस्था के लोगों में परिसर में धोती कुर्ता पहनने वालों में मेरी भी पहचान थी . और बड़ी अवस्था के लोगों में तो धोती का चलन था पर मेरी पीढ़ी में तो नहीं के बराबर था .
मैंने अपना धोतियों का संग्रह जोशी जी के सामने ला दिया और वे अपनी पसंद की धोती ले गए . अगले दिन समारोह से पहले जोशी जी 44 रवीन्द्र निवास में ही धोती पहनने आए तो पता लगा कि उनको घर ले जाकर धोती को फिर से धोना सुखाना और प्रेस करना पड़ा क्योंकि धोती में नील लगी होने के कारण कुर्ता धोती का रंग आपस में मेल नहीं खा रहा था . उन दिनों मैं औरों की देखा देखी सफ़ेद सूती खादी के कपड़ों में रॉबिन लिक्विड नील का प्रयोग किया करता था . खैर ये तो एक इतर बात थी जो मुझे यों ही याद रही . ख़ास बात ये कि उस दिन जोशी जी 44 रवीन्द्र निवास से ही तैयार होकर डिग्री लेने गए , धोती उन्हें मैंने ही पहनाई .
इस बार से यह स्थापित हो गया कि पी एच डी का दीक्षार्थी यदि कोई पुरुष है तो समारोह के लिए उसे धोती मैं ही पहनाता हूं .
अगली बार एक समारोह के दिन गणित विभाग के सोमानी जी रवीन्द्र निवास में हमारे घर की ओर आते हुए दिखाई दिए . सोमानी वैसे तो बनस्थली से कहीं बाहर चले गए थे , मेरा उनसे परिचय जब यहां काम करते थे तब का था पर कभी घर नहीं आए थे . उस दिन उन के हाथ में एक मर्दाना धोती देख कर सहज प्रश्न किया :
“ क्यों सोमानी जी , पी एच डी की डिग्री मिलने वाली है ?”
उन्होंने स्वीकृति में सर हिलाया और मैं बोला :
“ वाह , बहुत खुशी की बात , आ जाओ आप को तैयार कर देते हैं .”
शाम को हमारे पड़ोस के नवाल जी ने बताया कि उनके संपर्क में आए थे सोमानी जी , लेखानुभाग में एस ओ थे नवाल जी अतः उनको सब कोई लोग जानते ही थे . और उन्होंने ही बताया कि वो मेरे घर की दिशा इंगित कर बोले थे :
“ उनके पास जाइए , वो पहनाएंगे आप को धोती .”
सच कहूं उन दिनों 44 रवीन्द्र निवास किसी रूप में ग्रीन रूम से कम नहीं लगता था जहां से रेसिपिएंट्स ऑफ डिग्री बन संवर कर जाया करते थे .
जो और कुछ बातें याद आ गईं तो वो भी बताऊंगा वरना यों तो बात हो ही गई है लगभग पूरी .
पिछली शताब्दी के इष्ट मित्रों को याद करते हुए ..
सायंकालीन सभा स्थगित .
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शुभ संध्या .
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सुमन्त पंड्या
लेखन अनुमति :
@आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
26 नवम्बर 2015 .
बाईस रुपए का थान ~
#बाईस रूपए का थान खरीदा था : भाग दो . #बनस्थलीडायरी
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फूफाजी की मदद से थान तो मैं खरीद लाया था अब बारी थी इसके कपड़े सिलवाने की और उसमें मेरे एक मात्र मददगार थे बापू बाजार के मेरे ड्रेस डिजाइनर सरदार जसवंत सिंह जी जिनका जिक्र पिछली कड़ी में आया ही है . पूरा का पूरा थान लेकर मैं उनके पास पहुंचा और थान उन्हें थमा कर बोला :
“ इसमें से पहले पहल तो मेरा ठंडा सूट बनेगा सरदार जी . आगे बचे कपडे का क्या करना है ये बाद में देखा जाएगा . “
सरदार जी ने थान झेल लिया और अपनी ओर से मेरी ऊपर से नीचे तक नाप जोख करने लगे .
थान बाबत टिप्पणी ~
~~~~~~~~~~~~~ ये ऑफ व्हाइट रंग के मोटे सूती कपड़े का बड़ा थान था बगैर धुला बगैर ब्लीच किया हुआ . आगे की इस थान की कहानी गणेश जी के खीर के भगोने वाली होने जा रही थी जो उल्लेख आगे आएगा , अभी उसे स्थगित करते हैं .
सरदार जी ने क्या किया ?
~~~~~~~~~~~~~~~~ सूती कपड़े की प्रकृति के बारे में सरदार जी बहुत बढ़िया समझते थे , वो तो एक बड़ी बाल्टी और ये थान लेकर तुरंत नल पर पानी भरने चल दिए ताकि कपड़ा जितना सिकुड़ना है सिलने से पहले ही सिकुड़ लेवे .
ऊनी कोट पैंट में ये बात बाद में भुगती , समझ ही बाद में आई , खादी चाहे ऊनी हो या सूती उसे सिलने से पहले श्रिंक किया ही जाना चाहिए . ये ज्ञान आते आते दशक बीत गया था . पर मेरी बात कोई एक दशक की बात थोड़े ही है , ये तो चार दशकों की बात है .
बन गया सूट आखिरकार जुलाहे के थान के कपड़े का जिसे मैंने हाथ सहारे से रखा और विशिष्ट अवसरों पर पहना ख़ास तौर से बनस्थली में और राष्ट्रीय और स्थानीय पर्वों पर . हमेशा अपने हाथों से धोया और तीखे साबुनों और ब्लीच से बचाया ताकि उसका प्राकृतिक रंग जहां तक संभव हो बचा रहे . हां ये बताना तो रह ही गया कि सरदार जी ने कोट की सिलाई पंद्रह रुपए ली और पैंट की पांच रूपए , यों सूट की कुल सिलाई बैठी बीस रुपए . बचा हुआ थान का कपड़ा सरदार जी ने मुझे लौटा दिया जो भी बहुविध बरता गया . एक सामान्य कमीज और एक सामान्य पैन्ट और भी बन गई . थान का कुछ भाग अब भी बचा हुआ था .
इस सब सामग्री का क्या हुआ उससे जुडी तीन दोस्तों की बात यहां बताऊंगा पर जब परिसर में मैं वो सूट पहन कर निकलता तो ये सवाल अक्सर पूछे जाते :
“ कहां से लाए ? “
“ कौन से खादी भण्डार से मिला ? “
“ ऐसा कपड़ा कहां मिलता है ?”
“ कहां सिलवाया ? “
इस सब का ले देकर असर ये हुआ कि हालांकि जुलाहों के हाट तक तो कोई नहीं पहुंचा पर एक तो खादी भंडारों में मोटे कोटिंग के सूती कपड़ों की बिक्री को प्रोत्साहन मिला और सरदार जसवंत सिंह को ग्राहकी मिली .
मोटी सूती खादी के ठंडे सूट हम्मा तुम्मा के पहनने लायक होते हैं ये बात साथियों को भी समझ आने लगी वरना तो ये सरकारी दफ्तरों में चपरासियों की वर्दी मानी जाती थी .
तीन साथियों की बातें :
~~~~~~~~~~~~~~
1.
हिंदी विभाग के पद्माकर मैथिल तो इतने खुश हुए कि जल्दी से जल्दी थान का बचा हुआ कपड़ा किसी न किसी उपयोग के लिए ले जाना चाहते थे , गो कि उनका डील डोल ऐसा था कि मेरा सिला सिलाया कपड़ा तो उनके किसी काम का था नहीं . वे घर आए , सिंगल विड्थ का पौने तीन मीटर कपड़ा बचा हुआ था वो ले गए और अपने लिए पतलून सिलवा डाली .
पद्माकर अब हमारे बीच नहीं हैं , ऐसे दोस्त बहुत याद आते हैं .
2.
अंग्रेजी विभाग के रामानंद शर्मा एक गहरे रंग का ठंडे सूट का कपड़ा किसी खादी भण्डार से खरीद लाए और मेरी मिसाल देकर सरदार जसवंत सिंह जी से सूट सिलवाने पहुंचे .
रामानंद के लिए लड़कियों ने क्या कहानी बनाई वो एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उजागर हुई जो मुझे याद आती है . उन्होंने गाया :
“ वो कौन हैं , वो कौन हैं जो पोस्ट मैन लगते हैं? “
रामानंद के लिए ये इशारा था .
3.
अंग्रेजी विभाग के कृपाकृष्ण गौतम की बात इन दोनों से अलग रही .
सुबह सुबह गौतम अपने गृह नगर नैनवां से चलकर बनस्थली आए . मुझसे बोले :
“ यार सुमन्त , पहनने के लिए अपनी कोई खादी की कमीज दे कालेज जाना है .”
मैंने कमीजें दिखा दी . उन्हें ऐतिहासिक थान की कमीज रास आई , पहन कर उस बखत तो कालेज चले गए पर शाम को उन्होंने स्पष्ट किया कि अब वो मुझे ये कमीज लौटाएंगे नहीं .
गौतम का शरीर भी मेरे जैसा था इसलिए लगता था मानो उसी के नाप से सिली थी कमीज .
ऐसे थे उस बखत के दोस्त जिनकी बहुत याद आती है आज भी .
थान कथा में बहुत बिलंब हो गया कथा के साथ एक कमीज की तस्वीर जोड़ने की कोशिश करूंगा जो एक उत्तरवर्ती थान में से बनी थी . पहले थान की तो एक पैन्ट ही बची थी .
प्रातःकालीन सभा स्थगित….
इति.
सतत सहयोग और कथा समीक्षा :
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सुप्रभात
सुमन्त पंड्या .
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर
19 नवम्बर 2015 .
Tuesday, 1 December 2015
लम्बरदार स्कूल की याद : भाग पांच ~ प्रधान मंत्री की विदाई .
लम्बरदार स्कूल विषयक संस्मरण :
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लेखन का एक प्रयास मेरे ब्लॉग पर :
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लेखन का एक प्रयास मेरे ब्लॉग पर :
लम्बरदार स्कूल की याद : भाग पांच ~ प्रधान मंत्री की विदाई .
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विगत अक्टूबर माह में मैंने सत्र 1962 -63 की अपनी स्कूली शिक्षा के संस्मरणों पर आधारित पोस्ट लिखना प्रारम्भ किया था . केवल मोटा मोटी कुछ बातें ही बताई थीं चार कड़ियों के अंतर्गत और फिर वो क्रम छूट गया था . दीपावली आते आते घरेलू व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई थीं और पुराने काल खंड के बारे में सोचने का समय ही नहीं था .
इस प्रसंग में बहुत सी छोटी छोटी बातें हैं बताने लायक , दिखाने लायक . उस बाबत बहुत सी सामग्री मेरे तीर्थ ( मेरे जन्म स्थान , पैतृक आवास ) में रखी है . अगली तीर्थ यात्रा के बाद वो भी यहां फेसबुक पर जोड़ूंगा , आप को दिखाऊंगा , अभी यहां भिवाड़ी में बैठे एक प्रसंग के बारे में सोच पा रहा हूं और वो ही बताने जा रहा हूं .
अगला सत्र :
~~~~~~~ अगला सत्र उन्नीस सौ तिरेसठ चोंसठ प्रारम्भ हो गया , नए सत्र में संसद और मंत्रिमंडल का नए सिरे से चुनाव होता इस से पहले ही एक नई परिस्थिति उत्पन्न हो गई जिसके चलते मेरा स्कूल छोड़ना लाजमी हो गया अन्यथा मेरे रहते प्रधान मंत्री पद का कोई अन्य दावेदार नहीं था .
स्कूल प्रशासन में शीर्ष पर भी महत्वपूर्ण बदलाव ये हुआ था कि श्री गोपाल लाल शर्मा , हैड मास्टर साहब का तबादला हो गया था उनका विदाई समारोह आयोजित करने का जिम्मा मैंने ही निभाया था . नए हैड मास्टर साहब श्री बी पी जोशी आए थे , जिन्हें उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उसी वर्ष राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था . जोशी जी की भी पुराने हैड मास्टर साब की तरह मुझपर वैसी ही छत्र छाया थी .
काकाजी ( हमारे पिताजी ) का ट्रांसफर अजमेर का हो गया . परिवार को अजमेर जाना था और इस लिए मेरे टी सी के लिए स्कूल में आवेदन दिया गया . ये बात मेरे लिए सुखद नहीं थी और न ही सुखद थी मेरे अध्यापकों और साथियों के लिए . हैड मास्टर साहब को अध्यापकों और साथियों की ओर से ये सुझाव मिला कि प्रधान मंत्री की विदाई पार्टी आयोजित होनी चाहिए और उसे उन्होंने मान लिया .
आखिर जिस दिन मुझे परिवार के साथ अजमेर जाना था उसके पहले दिन उधर काकाजी अपने ट्रेजरी ऑफिस विदाई पार्टी के लिए गए और मैं अपने स्कूल गया विदा होने .
मेरे समझ कितनी थी इसका अनुमान आज मैं स्वयं लगा सकता हूं . विदाई पार्टी में मेरे एक अध्यापक एक मुहावरा बोले थे और मैंने घर आकर उसका अर्थ अपने घर वालों से पूछा था . मुहावरा था,” होनहार बिरवान के होत चीकने पात .” अब आप भी अनुमान लगा लीजिए .
बहरहाल मुझे साथियों ने और अध्यापकों ने भाव विभोर कर दिया था . इतनी मालाओं से मुझे लाद दिया था कि अगर उस दिन स्कूल सायकल न ले गया होता तो घर भी कैसे लेकर आता . मेरे घर वाले सब ये देखकर चकित थे कि जितनी मालाएं ट्रेजरी से लौटने पर काकाजी की सायकल के हैंडिल पर टंगी थी लगभग उतनी ही मालाएं स्कूल से लौटने पर मेरे साथ थीं .
मेरा स्कूल छूटने के साथ ही प्रधान मंत्री के रूप में कार्यकाल भी समाप्त हो गया था . वो एक ऐसा शैक्षिक सत्र रहा जिसके दौरान मैं एक एक कर तीन शहरों के तीन स्कूलों में पढ़ने गया था .
पहले अजमेर और उसके कुछ महीनों बाद जयपुर पहुंचने के बाद भी लम्बरदार स्कूल के छात्र साथियों से मेरा पत्र व्यवहार और संपर्क रहा .
मेरे ही मंत्रिमंडल का एक साथी नेमुद्दीन मेरे बाद प्रधान मंत्री बना ये भी एक साथी ने मुझे पत्र में लिखा था .
अभी हाल के लिए बचपन के उन सुनहरे दिनों को याद करते हुए
प्रातःकालीन सभा स्थगित ….
सुप्रभात .
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सुमन्त पंड्या
सह अभिवादन
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी
1 दिसंबर 2016 .
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