राजस्थानी बोध कथा :
राजनीति में शिखर पुरुष की डेमोक्रेसी देखकर ही ये बोध कथा याद आई ।
क्या है बोधकथा ?
लीजिए ----
सासू मां का राज पाट तो पहले ही छिन गया था अब उनकी उपेक्षा भी होने लगी थी । खिन्न मनस्थिति में वो घर के बाहर चबूतरे पर जा बैठी और दिन भर बाट जोहती रही कि कोई न कोई तो उनकी सुध लेगा , उन्हें मनाने आएगा ।
दिन बीत गया , कोई न आया अब अंदर वापिस भी कैसे जाएं ?
जब कोई उपाय न सूझा तो घर की बकरी , जो जंगल से चर कर लौट आ रही थी , उसके सींग में अपना पल्लू फंसाकर कुछ इस तरह बुद बुदाती हुई घर में घुसी :
" बोका की मां मैं तो आवै ही छी ए , पण म्हारो मान कौनै ! "
ऐसा लग रहा था मानो बकरी उन्हें मनाकर घर के अंदर ला रही है ।
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नमस्कार ।
संध्या वंदन ।
इसे मेरी नान पॉलिटिकल पोस्ट के रूप में स्वीकार कीजिए ।
गुलमोहर , जयपुर ।
शनिवार २४ जून २०१७ ।
ब्लॉग पर प्रकाशित
जयपुर
२६ जून २०१७ ।
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