Thursday, 1 June 2017

बातें बनस्थली की :   ऊर्जा संकट : बनस्थली डायरी

बातें बनस्थली की : ऊर्जा संकट .

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वर्ष / सत्र 1975 - 76 के दौरान न जाने क्या हुआ था उसका व्यापक सन्दर्भ तो अब याद नहीं पर इतना याद है कि 44 रवीन्द्र निवास में ईँधन रीत रहा था , रसोई में गैस बीत गई थी और रहा सहा मिट्टी का तेल भी बीतने के कगार पर था . विभाग में तब नई आई अरुणा वत्स की स्थिति भी हमारे रसोई घर जैसी ही थी वे तो ईंधन के नाम पर मिट्टी के तेल पर ही आश्रित थी . वे तब 16 रवीन्द्र निवास में आ बसी थी और उनसे भी मेरे परिवार के ऐतिहासिक कारणों से सम्बन्ध प्रगाढ़ थे . इस मुसीबत ने मंगल वार के दिन हमें निवाई के बाजार में जा खड़ा किया था , चाहते थे कि हमारे रीते पात्र मिट्टी के तेल से भर जावें और अगले कुछ दिनों खाना पकाना संभव होवे . तीन वयस्क - मैं , जीवन संगिनी और अरुणा वत्स और साथ में एक तीन साल का बच्चा खड़े निवाई के बजार में और ये चाहें कि निवाई के इस फेरे में और कुछ जुटा पावें न पावें तेल जरूर से जुटा लेवें .

सुनकर आघात लगा :

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मैं यही कहूंगा कि तेल के दूकानदार ने जो कुछ कहा वो सुनकर तो मुझे आघात ही लगा था . उसने कहा कि तेल राशन कार्ड धारक को ही मिल सकता है और ऐसा कोई उपकरण हमारे पास था नहीं . मरता क्या न करता मैंने तेल जुटाने का वैकल्पिक और वैधानिक उपाय जानना चाहा तो व्यापारी बोला :


"तहसील से परमिट बनवा लाइए उसके आधार पर मिल सकता है आपको तेल ."


मैंने साथ के दो वयस्कों से तहसील यात्रा की अनुमति मांगी , अनुमति न मिलने पर सब के सब एक साथ हो लिए और पूछते पाछते तहसील पहुंचे . निवाई की तहसील का इतिहास और भूगोल उस दिन ही जाना था वरना तो हम लोगों को काम ही क्या पड़ता था वहां जाने का . रोना वही कि किसी तरह तेल का परमिट मिल जाए .

मुझे उम्मीद तो कम ही थी कि अभियान सफल हो जाएगा पर फिर भी मैं अपने शिष्टमंडल के साथ तहसील परिसर तक गया यही सोच कर कि प्रयत्न तो करना ही चाहिए आगे जो होगा देखा जाएगा .

तहसील का माहौल वही था जैसा सरकारी दफ्तरों या अदालतों का होता है . मुसीबत के मारे इलाके के नागरिक यहां वहां डोल रहे थे . कोई नक़ल लेने को कोई रकम जमा करवाने को और दफ्तर चल रहा था अपनी गति से , हालात वैसे ही थे जैसे ' राग दरबारी ' में श्री लाल शुक्ल बता चुके हैं तो मैं उससे बढ़िया भला क्या बताऊंगा . बहरहाल तहसीलदार साब इजलास में बैठे अपना काम निबटा रहे थे ऐसा पता लगा .मैं किसी भी सूरत में किसी छोटे अहलकार से मिलने के बजाय तहसीलदार साब से मिलकर ही अपना ऊर्जा संकट बताना चाहता था .

जाने मुझे क्या सूझी कि मैं दरबान को ठेलता हुआ तहसील के इजलास में ही जा घुसा यह सोच कर कि होगी सो देखी जाएगी . मेरे लगभग साथ साथ या कि पीछे पीछे मेरा वो शिष्ट मंडल जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूं .

यहां यह बताना भी उपयुक्त होगा कि तहसीलदार सरकार के कई एक विभागों का प्रतिनिधित्व करता है जिनमे उसकी एक हैसियत द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट की भी होती है , इसी नाते वो इजलास में बैठकर कुछ मिसिल निबटा रहे थे . न्यायाधीश की कुर्सी पर तहसीलदार साब और बगल की कुर्सी पर उनका रीडर . मुवक्किल शायद बाहर रहे होंगे और बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे होंगे . जबरिया अंदर घुस आए नागरिक को इजलास में आया देखकर तहसीलदार साब ने नजर ऊपर उठाई .


और पासा पलट गया , वो मेरी ओर देख रहे थे मैं उनकी ओर .

(क्रमशः .....)


आज समय की कमी और संचार साधन की कमजोरी के चलते मुझे उठना पड़ेगा .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

अभी ' इति' नहीं कहूंगा 

क्योंकि आप पूछेंगे ही ' फिर क्या हुआ ?'

( क्रमशः ...)

सुमन्त पंड़्या 

(Sumant Pandya.)

गुलमोहर कैम्प , जयपुर .

1 जून 2015.

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दो बरस पहले ये अधूरा संस्मरण जब मैंने पहली बार लिखा था तो  मेरे मित्रों को उत्सुकता जागी थी कि आगे क्या हुआ होगा ?  कौन थे तहसीलदार  ?  मेरे अभिन्न मित्र श्री गोविंद राम केजरीवाल ने जो कहा वो यहां उद्धृत करता हूं साभार :

"गोविन्द रोटी खाइये, बिन रोटी सब सून".. (आज से महीना भी है जून).. ऊर्जा के बिना भी सब सून ही सून... "रासनकार्ड" के बिना भी सब सून... आपके रोज-मर्राह काम आये ना आये इसे रखना जरूरी है.. 

सरकारी दफ्तर की कल्पना, वहां का "राग-दरबारी" माहौल, फिर तहसीलदार तो पूरी तहसील का "कलेक्टर" ठहरा.. आपने जो हिम्मत दिखाई अपने "शिष्टमंडल" के साथ उनके दफ्तर में दाखिल होने की, लगता है कि कल आने वाली आपकी पोस्ट में "ऊर्जा" के साथ साथ बहुत कुछ मिलेगा... "

डाक्टर दुर्गा प्रसाद अग्रवाल ने जो कुछ कहा वो भी कम उत्साह वर्धक नहीं है :

" अरे इतना दिलचस्प वृत्तांत चल रहा था...कि यह कम्बख़्त ब्रेक आ गया! बस कुछ विज्ञापनों की कमी रह गई, वर्ना पूरा टीवी का स्वाद मिल जाता! "

और केजरीवाल जी ने बात में बात मिला दी :

" इतना लम्बा ब्रेक तो टीवी में भी कभी नहीं होता... लगता है सुमन्तजी पाठकों के धीरज का भी हाथों हाथ इम्तिहान ले रहे हैं... "

भाई यादवेंद्र ने भी कह दिया :

"  भाई साहब आप तो हमको भी क्लाइमेक्स पर ले जाकर रीता छोड़ गये .... "

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ये प्रतिक्रियाओं की बानगी मात्र है । सब कोई की प्रतिक्रियाओं का समावेश इसमें नहीं कर पाया हूं । 

आज इस संस्मरण की पहली कड़ी ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं ।

जयपुर 

गुरुवार १ जून २०१७ ।

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