" पीवूं नी बापजी चाख़ूं हूं ..."
एक भोला ग्रामीण किसी झरने या तालाब से अँजुरी में भरकर पानी पीने लगा तो अचानक कोई पक्षी बोल पड़ा :
" पीऊ ..पीऊ .."
उसे लगा कि उसके पानी पीने पर आपत्ति है तो वो अपनी सफ़ाई में बोला :
" पीऊं नी बाप जी चाख़ूं हूं ।"
ये तो है क़िस्सा ।
आज क्यों याद आया ?
बात इत्ती सी है कि मैंने विद्यार्थी के रूप में राजनीति शास्त्र पढ़ा और अध्यापक बनकर चार दशक तक राजनीति शास्त्र पढ़ाया भी है पर ‘ एंटायर पलिटिकल साइंस ‘ पढा होने की ड़ींग अलबत्ता कभी नहीं हाँकी थी । सोशल मीडिया पर लोक रंजन चर्चाएँ ही की । कल मुझे जाने क्या सूझी कि छोटी मोटी राजनीति विषयक टिप्पणी युक्त पोस्ट अपनी वाल पर जोड़ दी ।कि मेरी बात पर भक्त अटकने चले आए । टिप्पणी करने वालों की मनोदशा और और प्रतिबद्धता को समझते हुए मैंने उनसे न अटकना ही बेहतर समझा ।
अभी हाल तो इत्ता ही क़हूंगा :
" पीवूं नी बाप जी चाख़ूं हूं ।"
जो मुझे जानते हैं वो बोध कथा का इशारा समझेंगे , भक्तों को समझाने का ठेका तो मैं लेना नहीं चाहता वो लोग अपणा स्वाध्याय जारी रखें ।
बिना बात समझे मुझसे न ही अटकें तो बेहतर होगा ।
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