जिन साथियों के साथ मैंने बनस्थली में एक लंबी पारी खेली उसमें एक नाम इतिहास विभाग के डाक्टर पेमा राम का भी है . उन्हीं को लेकर एक रोचक प्रसंग सुनाता हूं .
ज्ञान मंदिर या कि वाणी मंदिर से क्लास पढ़ाकर रवीन्द्र निवास की ओर पैदल पैदल आ रहा था कि एक हस्तक्षेप हुआ . डाक्टर पेमा राम अपनी नई कार से सड़क पर रूककर मुझसे बतियाने लगे .
आखिर ख़ास बात क्या थी ?
उन दिनों आर्थराइटीज के दर्द के कारण मेरी चाल प्रसिद्ध अंग्रेज कवि लॉर्ड बायरन जैसी लगा करती थी , किसी भी स्वजन को देखकर तदनुभूति के कारण दर्द हो आता था . ऐसा ही कुछ डॉक्टर पेमा राम के साथ भी हुआ .
ये सही है कि इस मर्ज का सबसे अच्छा और सुलभ व्यायाम भी पैदल चलना ही है . मैं आभारी हूं वैद्य हरिनारायण का कि उनकी बताई चिकित्सा से कुछ दुरुस्त होकर जब मैं आपाजी आरोग्य मंदिर पहुंचा था तो वैद्य जी बोले थे:
" देखो, आज तो घोड़े की जात चले आ रहे हैं पंड्या जी ."
खैर वो बात तो फिर सही अभी तो उस ख़ास दिन की बात :
रुके और कहने लगे पेमा राम :
"भाई साब आप थोड़ा पैदल चला करो."
बात तो सही थी और उन्होंने एक व्यापक सन्दर्भ में कही थी , ठीक ही तो कही थी . पर मैंने तो तात्कालिक सन्दर्भ को पकड़ लिया और मैंने तुरंत कहा:
" डाक्टर साब मैंने आप को कहा क्या कि मुझे मोटर में बैठाकर ले चलो ?
मैं तो हूं ही पैदल ."
मेरी भी बात सही थी , निरुत्तर हुए डाक्टर पेमा राम .
उन दिनों को याद करता हूं तो पुरानी बातें याद आ जाती हैं .
बनस्थली की यादों के साथ सभा स्थगित .
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