Tuesday, 13 November 2018

दस रुपए का मोल : बनस्थली ड़ायरी 

नमस्कार स्वजनों 🙏

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क्या पूछा क़हां से ?

आशियाना आँगन भिवाड़ी से .🌻


आज गई शताब्दी का एक प्रसंग याद आ गया सोचा आपको वो ही बता देवूं . ये बताते हुए किसी का अनादर नहीं कर रहा केवल बात कर रहा हूं . तो सुनो स्वजनों :


गई शताब्दी में १९७१ की जुलाई में जब हम लोग ४४ रवींद्र निवास में रहने लगे तो हमारे घर के आगे की पंक्ति में हमारे प्रिय साथी माधोराम जी रहा करते थे , उनकी बड़ी बढ़िया आदत थी जो आज बहुत याद आ रही है . क्या करते थे वही बताता हूं .

बनस्थली में मंगलवार का साप्ताहिक अवकाश होता था . यदि उस दिन साथियों के साथ जयपुर जाने की योजना बनती तो वो सोमवार को ही बैंक हो आते और अपने बचत खाते से रुपये दस कंटान निकाल कर लाते तथा मंगल को हो आते जयपुर . सारा कैश घर में लाकर या बड़ा रोकड़ा घर में रखते ही नहीं . और ये भी तब कि जब बनस्थली में ले दे कर एक ही सहकारी बैंक था .


अब क्यों याद आई ये बात ?


इसलिए कि कैसा तो ज़माना था , रुपए दस में बनस्थली से जयपुर का आण जाण . किराया भाड़ा हो जाता और रूपए दो रुपए बच ही जाते थे आज तो दस रूपए की हालत ये है कि उस पर छोरा माँड़ देता है :


"सोनम गुप्ता बेवफ़ा है ."


तब दस रूपए की बड़ी इज्जत थी . तब माधोराम जी जैसे साथी थे जो दस रूपए में जयपुर यात्रा कर आया करते थे . 


ये और क़हूं कि मेरे लिखे में रत्ती भर भी अतिशयोक्ति नहीं है .

ये सच है .

वे दिन और वे लोग बहुत ही याद आते हैं 


#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya


आभार और आदर सहित  


सुमन्त पंड़्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

 मंगलवार १५ नवम्बर २०१६ .


प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ........

नोटबंदी के बाद हमलोग भिवाड़ी चले गए थे और अनायास आई विपत्ति को झेल रहे थे मिलजुलकर . उन दिनों पैसे , टके , बैंक की पुरानी बातें मुझे बहुत याद आया करती थी . ऐसी ही एक बात मैंने इस पोस्ट में लिखी थी . आज इसका ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण कर रहा हूं .

@  जयपुर     गुरुवार   १५ नवम्बर २०१८ .


5 comments:

  1. Interesting!
    जी हां,मुझे भी याद है वह समय, मैं 500 रू.वेतनपर पार्ला महाविद्यालयमें पढाती थी और मुंबई विश्व विद्यालायमें एम. ए. करती थी... प्रज्ञा छोटी थी. एस.पी. महाविद्यालयसे मुंबई विश्व विद्यालायमें व्याख्याता बनी तो केवल रू. 800 वेतनपर..स्केलके अनुसार... लेकीन सब खर्चे पुरे होते थे. जब वाशी रहने आयी तब भी वेतन 1400/ 1500 था! कभी ऊन दिनों हम सारी जमाई रद्दी बेचनेका सोचते थे तब प्रज्ञा पूछती, 'आई, क्या फिलहाल हम गरीब बन गये हैं... यह तो हलकासा उपरोध था.. याने हम अन्य समय ठीक ठाक सुखवस्तू रहें ऐसी उसकी सोच थी और वह गलत नहीं थी... हमारी आवश्यकताये मर्यादित थी और बाजारमें तौलनिक स्वरूप सस्ताई थी!

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    1. आभार आपका स्मिता जी , आपने तो वैब पर कमेन्ट दिया , अच्छा लगा .

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  2. Interesting!
    जी हां,मुझे भी याद है वह समय, मैं 500 रू.वेतनपर पार्ला महाविद्यालयमें पढाती थी और मुंबई विश्व विद्यालायमें एम. ए. करती थी... प्रज्ञा छोटी थी. एस.पी. महाविद्यालयसे मुंबई विश्व विद्यालायमें व्याख्याता बनी तो केवल रू. 800 वेतनपर..स्केलके अनुसार... लेकीन सब खर्चे पुरे होते थे. जब वाशी रहने आयी तब भी वेतन 1400/ 1500 था! कभी ऊन दिनों हम सारी जमाई रद्दी बेचनेका सोचते थे तब प्रज्ञा पूछती, 'आई, क्या फिलहाल हम गरीब बन गये हैं... यह तो हलकासा उपरोध था.. याने हम अन्य समय ठीक ठाक सुखवस्तू रहें ऐसी उसकी सोच थी और वह गलत नहीं थी... हमारी आवश्यकताये मर्यादित थी और बाजारमें तौलनिक स्वरूप सस्ताई थी!

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  3. सन 71 में मैं तीन सौ से कुछ कम रुपयों में कोटा से निकल कर मुम्बई घूम आया था एक सप्ताह वहाँ रहा भी और कुछ खरीददारी भी की थी। वहाँ एक बात समझ आई थी कि शहर तो ठीक है बस रहने की जगह की बहुत किल्लत है।

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