Monday, 5 November 2018

Nostalgia : How innocent !

Nostalgia - How innocent !


पुरानी बातें याद आ जाती हैं ।बाते छोटी छोटी हैं पर बताने का मन करता है तो सोचा साझा कर दूं ।

हम लोग उदयपुर में थे । ओझा साब काकाजी ( हमारे पिता जी ) के विभाग में थे और जब आते तो भूपालपुरा में हमारे घर आकर ठहरते । पुराने जयपुर में सब लोग सब लोगों को जानते थे । ओझा साब के साथ बाई जी, उनकी जीवन संगिनी भी आतीं । बाई जी काकाजी के मित्र नारायण जी ज्योतिषी की बेटी थीं । 

    ओझा साब कई कई दिन तक आडिट पार्टी के मुखिया के रूप में जनजातीय क्षेत्र में रह कर आते । वहां के अनुभव बताते । एक दौर पूरा होता तो उदयपुर आते ।उदयपुर उनका मुख्यालय था ।


एक भोला ग्रामीण उन्हें दूध लाकर देता । वे सेर भर दूध लेते । कभी दूध सेर होता कभी सेर से कम । यह उसके पास दूध की उपलब्धता पर निर्भर था । अंत में हिसाब के समय वह चाहता कि पूरा एक सेर प्रतिदिन के हिसाब से ही उसे भुगतान मिले । उसका तर्क होता :


डोबो दूध न दे तो मूं कांई करूं ? पया तो लूं हीज । अर्थात् पशु दूध न दे तो मैं क्या कर सकता हूं ? पैसे तो लूंगा ही ।

और इस सादगी पर ओझा साब निहाल हो जाते ।


उदयपुर डायरी का ये संस्मरण जब मैंने पहली बार बताया तो प्रियंकर पालीवाल जो बोले वो मुझे बहुत अच्छा लगा , वो बोले :

" सही बात ! अब जानवर को तो कुछ नहीं कह सकते पर आदमी को तो समझाया जा सकता है . भले और भोलेपन के अपने तर्क होते हैं . और भले लोग ही इन तर्कों को समझ सकते हैं . अच्छा लगा यह प्रसंग ."


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