Friday, 30 December 2016

जिसकी तलाश थी वो मिल गया 💍

जिसकी तलाश थी वो मिल गया …..! : तकिया कलाम  की कहानी
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अक्सर ये बात मैं बड़ा गहक के कह दिया करता हूं :

“ जिसकी तलाश थी वो मिल गया .”

ऐसे ही मेरे और भी तकिया कलाम हैं , जैसे :
१.
ये तो बार की बात छै माट साब  .. फेर तो थे जाणो !
और
२.
प्यारे मोहन जी नै ने जाणो ..?

मेरे हर तकिया कलाम का कोई न कोई विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ होता है और मुझे वो सीन याद आने लगता है जब किसी न किसी ने ये बात कही थी और आगे के लिए वो बात मेरे हाथ लग गई .
ख़ैर किस्सगोई के दौरान तकिया कलाम के ये मणके  मैं पिरोता भी रहता हूं और बताता हूं कि बात आईं क़हां से . ख़ैर अभी तो उस शीर्षक पर ही बात करें जो आज की पोस्ट के लिए दिया गया है :

“ जिसकी तलाश थी वो मिल गया .”

अपने आप से बात :
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“ किसकी तलाश थी ?”

इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करूंग़ा .

“ ये किसी व्यक्ति , वस्तु   या विचार किसी की भी तलाश हो सकती है जिसके पूरा होने पर मैं ऐसा कह बैठता हूं और अब तो ये वाक्य बोलना मेरी आदत में शामिल हो चुका है .”

“ पर पहली बार ऐसा कहा किसने था ? “

“ हां वही बताने का प्रयास है आज , ये  विशिष्ट व्यक्ति  की कही बात है जो आज तक मेरी ज़ुबान पर है . “
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अब आगे : फिर वो ही बात .

विशिष्ट अतिथि आए हुए थे , रवीन्द्र निवास में  ठहरे थे और इस बाबत दो एपिसोड मैंने अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर लिखे भी थे . तीसरा एपिसोड जो अभी लिखा जाना बाक़ी है उसमें ही आता है ये प्रसंग  .

प्रसंग ये है कि स्नान के बाद जब वे धुले  और प्रेस  किए हुए कपड़े पहनने लगे तो पाया कि   पतलून में कमर का क्लिप पिचका हुआ है और उसे दुरुस्त किए बिना पतलून पहनना सम्भव नहीं था .
वो बौद्ध दर्शन में एक विचार आता है न  “ अर्थ क्रिया कारित्व “ वही सूझ रहा है मुझे तो यहां इस स्थिति के लिए . ख़ैर  बात आगे …

समस्या समाधान की वो बात सोच ही रहे होंगे कि उनका ध्यान अलमारी के ऊपर के खण की ओर गया  और वो अचानक बोल पड़े :

“ जिसकी तलाश थी वो मिल गया .”
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वहां रखा एक पेचकस उठाकर वो ये बात बोले थे . पिचके क्लिप को दुरुस्त करने के लिए ये उपयुक्त उपकरण था जो उन्हें यहां मिल गया था .

वैसे इस पूरे प्रसंग का तीसरा एपिसोड जब आएगा तो ये बात और स्पष्ट  होएगी  कि आख़िर वो क्लिप पिचका हुआ था क्यों .
आज मैंने पूरी बात बताई कि ये तकियाकलाम  मैंने सीखा क़हां से था .

नमस्कार 🙏

सुमन्त पंड़्या
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी
शनिवार ३१ दिसम्बर २०१६ .
#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya

Wednesday, 28 December 2016

 ज़रा रोक के ..." जयपुर डायरी 😊😊

ज़रा रोक के ….: जयपुर डायरी .

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पुरानी छोटी छोटी बातें कभी कभी याद रह जाती हैं तो वो मैं बताया करता हूं उन्हीं में से एक बात है ये , ये बात उस दिन याद आ गई थी जब मैं आशियाना आँगन मैं लिफ़्ट के केबिन से दूर था और जीवन संगिनी और उनके साथ खड़ी एक मानस पुत्री ने मेरे लिए ऊपर जाती लिफ़्ट रोक ली थी .

तब मुझे याद आया क़िस्सा ,” ज़रा रोक के ….” . लिफ़्ट की क्या बात अपण के लिए तो बस भी रुक जाया करती थी कभी .

क़िस्से का इतिहास और भूगोल  :

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ये बात उन्नीस सौ तिहत्तर पिचहत्तर के दौर की है जब मैं बनस्थली में काम किया करता था , भाई साब उदयपुर में काम करते थे और इधर विनोद और गोपेश जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय में एम ए कक्षाओं में पढ़ा करते थे . घटना तब की है जब भाई साब और भाभी जी और एक छोटी बच्ची रेल से उदयपुर जा रहे थे और इधर मैं ,  विनोद और गोपेश उनको बैठाने रेलवे स्टेशन गए थे .

तब जयपुर शहर  में ताँगे चला करते थे , हम लोग नाहर गढ़ रोड , चाँदपोल बाज़ार से रेलवे स्टेशन इन लोगों के साथ ताँगे में बैठकर चले गए थे और गाड़ी के रवाना होने के बाद हम तीन छड़े लोगों को लौटकर घर आना था . वही नाहर गढ़ रोड .

बाई द वे आज की तारीख़ में तो मुझे छोड़कर इस प्रकरण से से सम्बंधित सभी पात्रों के के पास मोटरें हैं पर ये तो तब की बातें हैं . तब जयपुर रेलवे स्टेशन से बड़ी चौपड़ के बीच लाल रंग की सिटी बसें चला करती थीं . हम लोग नाहरगढ़ रोड आने के लिए इस सिटी बस का उपयोग कर लिया करते थे .

अब तो इस रूट पर बस चलने के हालात स्थगित हैं , जिस दिन भी चलेगी मैट्रो ही चलेगी शायद .

चलो अपण तो उस दिन की बात करते हैं :

उस दिन क्या हुआ था ?

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हम तीन लोग - मैं , विनोद और गोपेश भाई साब - भाभी जी की गाड़ी रवाना होने के बाद जयपुर जंक्शन के प्लेटफ़ार्म से उतर कर सड़क पर आए और अब हम लोग सिटी बस पकड़ना चाहते थे , जो भी शहर के परकोटे में जाने वाली बस मिल जाए .

फिर भूगोल :

-----------   रेलवे प्लेटफ़ार्म और सिटी बस स्टैंड के बीच में  में पर्याप्त दूरी थी जो हमें पैदल तय करनी थी और तब पकड़नी थी बस . बस स्टैंड था तब के थाणे और चुंगी चौकी के भी आगे , शायद अब भी वहीं होगा . इस के बीच में दुपहिया वाहनों का स्टैंड भी था और भी कई अड़ख़ंजे थे .

उधर दूर एक बस रवाना होने की तैयारी में दिख रही है और ये ल्लो वो तो रवाना भी हो गई , अब उसमें बैठने का तो कोई चांस लग नहीं रहा था . ऐसी कोई ख़ास बात भी नहीं थी , अगली बस ली जा सकती थी पर होणहार की बात विनोद को जाने क्या सूझी उसने एक हाथ खड़ा करके बोल दिया :

“ अरे भाई ज़रा रोक के ………… !”

पर चलते रहे धीमी गति से ही क्योंकि अब हमें तो अगली बस ही पकड़नी थी और उसके लिए पर्याप्त समय था . पर तभी एक चमत्कार हुआ जो बस रवाना हो चुकी थी वो ही दो मिनिट में रुक गई और तब तक रुकी रही जब तक हम वहां  पहुँच नहीं गए .

एक एक कर हम तीनों पिछले दरवाज़े से चढ़े तो कंडक्टर ने एक ही सवाल पूछा :

“ और कित्ते हो ..? “

ख़ैर हमने बताया कि हम तो तीन ही हैं  , आश्वस्त होकर कंडक्टर ने सीटी मार दी , चल पड़ी बस .

अब मैंने अपने स्वागत के लिए कंडक्टर के अतिरिक्त उत्साह की वजह पूछी तो वो कंडक्टर युवक बोला वो आप भी जाण लीजिए :

“  भाई साब  ! मेरी बग़ल में से जो भी स्कूटर , मोटर साइकिल  वाला निकलता था  मुझे ताण जाता था :

‘ अरे भाई ज़रा रोक के ….पीछे सवारी है .’

‘ अरे भाई ज़रा रोक के ……..   ‘

‘अरे भाई ज़रा रोक के ..  …….’

अब समझ आई  बात कि हमारे कहे को ले उड़े दुपहिया वाहन वाले और उन्होंने बस कंडक्टर को स्थगन आदेश थमा दिया इस लिए हमारे लिए रुकी रही बस .

कही बात दूर तक पहुँचती है यही है निष्कर्ष इस क़िस्से का .

आप कहो तो सही .

नमस्कार

सुमन्त पंड़्या

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

सोमवार २६ दिसम्बर २०१६ .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी  #sumantpandya

Friday, 23 September 2016

संध्या वंदन 💐 : स्मृतियोंकेचलचित्र 💐💐

संध्या  वंदन 💐

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#स्मृतियोंकेचलचित्र  #sumantpandya #जयपुरडायरी

आज जो बात बताने जा रहा हूं वो तो दुब्बी नामक एक छोटे से गांव के एक किसान की बरसों पहले कही बात है जो उसके सूक्ष्म निरीक्षण पर आधारित खरी बात थी  और किसी भी सुनने वाले को  मुस्कुरा देने को बाध्य कर देने जैसी बात  कहलाएगी आज भी . इस बात को बताने से पहले मुझे इस बात की  पृष्ठभूमि बतानी पड़ेगी सौ साल  पीछे  लौटकर . वही प्रयास करता हूं , बहुत सी बातें बताऊंग तब आप समझ पाएंगे उस भोले ग्रामीण की बात . इसमें मेरी , इसकी , उसकी  , सब की बात जुड़ेगी तब होगी बात साफ़ .

गए दिनों अपने अभिन्न  मित्र श्री गोविन्द राम  केजरीवाल को एक शाम मैंने टिप्पणी में कहा था कि अगली पोस्ट “ संध्या वंदन “ शीर्षक से ही होगी , उस वायदे का निर्वाह भी इस पोस्ट से हो जाएगा .

गए दिनों हम दिल्ली में थे  मैं घर  की बालकॉनी में खड़े खड़े सूर्यास्त का फोटो खींचकर  आपको भेजता और संध्या वंदन लिख देता  वो नई सभ्यता में गुड ईवनिंग कहने  का देशी चलन बनाया  , यहां गुलमोहर में आकर भी मैं सोशल मीडिया पर ,” अभी तो हम हैं “  ऐसा जताने को ऐसा कर देता हूं . पर सौ साल पहले जब हमारे घर में ये नई सभ्यता घुसी नहीं थी तब संध्या वंदन का एक विशिष्ट अभिप्राय था  वो था पूजा पाठ वैदिक ऋचाओं  का उच्चारण साथ में .

सम्प्रति पितृ पक्ष में इस प्रसंग को याद करके मैं  अपने पूर्वजों को भी याद करता हूं और उनकी जीवन शैली का भी अल्प उल्लेख आज करता हूं . देशी राज्यों का ज़माना था ये लोग अपने पांडित्य , ज्योतिष ज्ञान , आयुर्वेदिक चिकित्सा और ऐसे ही ब्राह्मणोचित लक्षणों के कारण जाने जाते थे . अतिराम जी के वंशज , मेरे पूर्वज  किस प्रकार  गुजरात से चलकर  राजस्थान आए वो कहानी  जैसी मैंने सुनी  वो अपने मिलने वालों को मैं यदा कदा सुनाया करता हूं  ,उस कथा के विस्तार में अभी मैं  नहीं जाऊंगा .

ये लोग अपना भोजन खुद तैयार करते थे और जैसा आज भी गुजरातियों की पतली पतली रोटी होती हैं  वैसी ही रोटी बनाते खाते थे . ऐसे ही एक पूर्वज के बारे में किस्सा है जो दुब्बी गांव गया था जो राज्य के द्वारा  अनुदान के रूप में उसे मिला था .

रोटी रोटी का फरक

******************   कृषक ग्रामीण की रोटी तो मोटी रोटी  होती है  और वो भी तब तो मोटे या  मिश्रित अनाज की  हुआ करती थी जिसे आप टिक्कड़ कह सकते हैं  . इसके विपरीत इस गुजराती मूल के व्यक्ति की रोटियां छोटी और  पतली पतली रही होंगी   जिनका उल्लेख आएगा ही अभी जब बात पूरी होने को आएगी . उस ग्रामीण ने इन महाराज की रोटियां भी देखीं और सायंकालीन गतिविधि भी देखी उसपर ही बात है .

 और अब संध्या वंदन 💐

------------------------       जब ये सज्जन , मेरे पूर्वज संध्या वंदन माने पूजा पाठ कर रहे थे तो उस प्रक्रिया के दौरान  विधान के अनुसार आचमन  की भी  क्रिया हुई . आचमन के अंतर्गत  उन्होंने एक आध चम्मच पानी भी मुंह में फेंका  और इस दृष्य को अपनी आंखों से देखकर वो भोला ग्रामीण  ठगा रह गया  . और फिर वो  जो बोला वो ही आज  इस किस्से का  मार्मिक वाक्य है  . ये एक मौलिक अभिवक्ति है जो इतिहास में दर्ज होने लायक है . कोई अनुवाद इस खूबसूरती से अभिव्यक्त शायद न कर पावे .

वो भोला कृषक बोला :

“ जब तो पतरी पतरी  पापरी न नै खाबे करो , खाबे करो   

अब चुच्ची न तै  पानी पी रो है . “ 😊

याने तब तो पतली पतली रोटियों को खाए गया  , खाए गया और अब चम्मचों से पानी पी रहा है .  याने इसने पानी के लिए भी जगह खाली न छोड़ी .

अब उस भोले किसान को संध्या वंदन और उसमें आचमन से क्या  लेना देना . वो जैसा समझा वैसा उसने कहा .

वे दिन और वे लोग ….

इति . 💐

संध्या वंदन 💐

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सुमन्त पंड्या .

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

गुरूवार 22 सितम्बर 2016 .

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Tuesday, 26 July 2016

 आओ बूंदी चलें : स्मृतियों के चलचित्र 

      आओ बूंदी चलें :

      पिछले दिनों अनिल ने बूंदी नगर की एक सुन्दर तस्वीर फेसबुक पर साझा की तब से मुझे भी जब तब बूंदी की याद आ जाती है . एक साल मैंने भी वहां बिताया था . तब के सहपाठी दोस्त याद आ जाते हैं . वहां लौटकर जाना फिर कभी नहीं हुआ पर यादें हैं जो जब तब वहां ले ही जाती हैं .
वर्ष 1961 - मैं ने न्यूं मिडिल स्कूल, बूंदी से स्कूल की कक्षा आठ पास कर ली थी . जब सबसे बड़ी कक्षा पास कर ली तो वहां से टी सी तो लेना ही था . काकाजी* टी सी लेने गए थे और मैं साथ था . दीनानाथ जी हैड माट साब ने टी सी देते हुए काकाजी से जो पूछा और अपनी कही वही बात बताता हूं . पहले एक बात और बताऊं जाने क्यों हैड माट साब को लोग और बच्चे भी पीछे से  ' धुनची जी ' कहते थे और उनका बेटा गणपत भी हम लोगों का सहपाठी था उसने भी उसी वर्ष आठवीं कक्षा पास की थी .

हैड माट साब पूछने लगे :
" टी ओ साब, बेटे को क्या सब्जेक्ट्स दिलाओगे ? "

तब कक्षा नौ में ही फैकल्टी और विषयों का चयन हो जाया करता था .
बाद तक भी यही सिलसिला चला . ये तो बहुत बाद में हुआ  है कि यह चयन ऊंची क्लासों में जाकर होने लगा . बेहतर अंक लाने वाले विद्यार्थी साइंस पढ़ने के लायक माने जाते थे और पड़े गिरे पास हुए आर्ट्स पढ़ने को शापित होते थे . एक बार आर्ट्स में दाखिला लेने वाले आगे आर्ट्स में ही रहते थे . जिन दुखियारों से साइंस नहीं निभ पाती वो  बड़ी क्लासों में इधर आ जाते पर इधर से उधर जा पाने की सुविधा नहीं होती थी .

" ये तो आर्ट्स पढ़ेगा . और आपका भी तो बेटा है , सुमन्त बता रहा था, उसके बारे में क्या तय किया हैड माट साब ?"   काकाजी बोले.

काकाजी का उत्तर उन्हें चौंकाने वाला था , क्योंकि मेरी मार्क लिस्ट से तो साइंस पढ़ने की लायकी सिद्ध जो हो  रही थी . ऐसे ही सवाल जवाब आगे तब भी हुए जब काकाजी मुझे जयपुर में दरबार मल्टी परपज हायर सकेंडरी स्कूल में कक्षा नौ में  में दाखिला करवाने गए .

तब मुझे कहां भान था कि आगे जाकर साइंस पढूंगा , ऐसा वैसा साइंस नहीं - मास्टर साइंस .
खैर अभी तो बात बूंदी की चल रही है  वहीँ लौटते हैं .

माता पिता के सपने :

 तब माता पिता बच्चों के लिए कैसे सपने देखते थे उसका उदाहरण है वो जो तब हैड माट साब ने कहा था . काकाजी को अपने बेटे के बाबत वो बोले :

" वो ही इंजीनेरी के सब्जेक्ट - साइंस  मैथेमेटिक्स ."

इतना ही नहीं  उन्होंने ये भी बताया था कि वो इस बात का भी प्रयास करेंगे कि आगे उनका तबादला जोधपुर का हो जाए ताकि वो बेटे को इंजीनियरी की पढ़ाई करवा सकें . तब ले दे के एक जोधपुर में ही  सरकारी इंजीनियरिंग कालेज हुआ करता था , मंगनी राम बांगड़ मेमोरियल इंजीनियरिंग कालेज .

मुझे आगे का हाल तो नहीं मालूम कि हैड माट साब अपनी योजना में सफल किस हद तक हुए पर कुछ सूत्र बूंदी से तब जुड़े जब बनस्थली में मेरे काम करते हुए एक चित्रकार मित्र बूंदी से आए और मिले और चूंकि वो भी उसी मिडिल स्कूल के पढ़े हुए थे इसलिए स्कूल की यादें ताजा हो गईं , कुछ और  दोस्तों के बारे में भी उन से ही पता चला .

बहरहाल लौटकर वहां जाना नहीं हुआ . जाऊं भी तो उस समय का कौन मिले वहां ?

उसी पुराने समय को याद करते हुए...
प्रातःकालीन सभा स्थगित .

* काकाजी हमारे पिता जो तब बूंदी में ट्रेजरी ऑफिसर थे .

साझा लेखन : Manju Pandya

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
27 जुलाई 2015 . 


ब्लॉग पर पुनः प्रकाशन और लोकार्पण 

२७ जुलाई २०१८.

Monday, 25 July 2016

💐ऋषिकांत की बात : फूफाजी ढोक .💐

    💐 ऋषिकांत की बात : " फूफाजी ढोक ." 💐
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चलते रस्ते बन गया किस्सा है  आज अगर समय ने अनुमति दी तो वही बताए देता हूं .

अब ये तो आए दिन का रंबाद है कि सुबह सुबह कोई किस्सा मांड न पावूं तो मैं अपनी कोई नई या पुरानी जैसी भी सूझे फोटो लगा देवूं और अभिवादन का क्रम शुरु हो जावे .
ऐसे ही गए दिनों एक फोटो मैंने प्रोफाइल पर टांग दी . इस पर आई टिप्पणियों में एक टिप्पणी ऋषिकांत की भी थी जिसे बचपन से ढब्बू कहते आए हैं   ढब्बू ने अपनी समझ से लिखा :

   " फूफा जी ढोक ."   

  फूफाजी ने आशीर्वाद भी दे दिया पर असल में  ढब्बू के लिखे में कुछ टाइप की गड़बड़ से या गफलत में हो गया था :

"  फूफाजी ठोक ! "

  बात   छूट भी जाती पर   टीप पर टीप देते हुए संदीप ने लिखा :

"   ठोक  नहीं  ' ढोक '  ."

  अब मेरा भी  ध्यान गया कि चाहे गफलत में ही सही ठोकने की बात आ गई है तो मैंने आगे सवाल दाग दिया :?

" किसको ठोकना है ऋषिकांत  बता ? फूफाजी तो ठोक देंगे . "
 
अब ऋषिकांत का तो ध्यान जाता सा जावे , इस बीच क्या हुआ बताता हूं .

😊 बात पर बात याद आई पिछली शताब्दी की 💐💐
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   कमला मेरी देखरेख में अपना एम् फिल डेसर्टेशन लिख रही थी .  उसके प्रबंध में ढाका का नाम बड़ा महत्वपूर्ण था  विषय के शीर्षक में भी और इबारत में भी पर वो जब भी कुछ लिखकर लाती ' ढाका '  को  ' ठाका '  ही लिखा होता और सुधारना पड़ता , आखिर में मैंने तो यह तय किया कि ये बात टाइपिस्ट को ही बता देवेंगे कि   " ठाका " नहीं  " ढाका " लिखा जाना है .
और इस प्रकार निभ गई बात  , हो गया कमला का शोध प्रबंध पूरा .
ये  पिछले जमाने की बनस्थली की बातें हैं जो बरबस याद आ जाती हैं .

😊 और एक बात कहने की 💐💐
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जाने ऐसा क्यों है कि अंग्रेजी की ए बी सी डी जिसको देखो याद होती है , छोटे छोटे बच्चों से ये वर्णमाला बुलवाकर मां बाप बड़े राजी होते हैं पर हिंदी की वर्णमाला में बड़े बच्चे भी चूक जाते हैं .
क्या तो करो आप अब जो वस्तुस्थिति है सो है . मुझे तो " जोशी बाबा " ने हिंदी / देवनागरी की वर्णमाला और बारहखड़ी पहले पहल सिखाई थी , रोमन अक्षर तो बहुत बाद में पहचानने लगा था . मैं उन जोशी बाबा को नमन करता हूँ  जिनका  सिखाया अक्षर ज्ञान आज दिन तक काम आ रहा है . यही अक्षर ज्ञान मैंने कमला का शोध प्रबन्ध  जांचते हुए दोहराया था .

कभी जोशी बाबा बाबत भी लिखूंगा , देखिएगा  जरूर .

😊 फिर ढब्बू की बात  💐💐
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   जब दो बार मैंने ये सवाल दाग दिया :

"  किसको ठोकना है ??? . "

    तो ऋषिकांत माने मेरा प्यारा ढब्बू हरकत में आया और उसने जो लिखा उसे मैं अल्टीमेट  कहूंगा   . उसने लिखा :

"  फूफाजी ! अपने आशीर्वाद रूपी डंडे से मुझे ठोक दो .! " 💐

   😊 अब अपनी बात 💐💐
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  जाने क्यों  गए दिनों से ऐसे किसी को ठोक देने जैसे विचार मेरे मन में आ जाते हैं , ऐसा तो मैं नहीं हुआ करता था , पर अब ऋषि के इस " आशीर्वाद के डंडे " के विचार ने मुझे एक नई सूझ दी है  , अब किसी छोटे मोटे को ठोको तो आशीर्वाद के डंडे से ठोको . यही तो है अब अपने पास .

अब ये पोस्ट तो जाने लायक बन गई पर अभी ढब्बू की भूआ की इस पर स्वीकृति बाकी है .
तदर्थ पोस्ट जारी ..........
आशीर्वाद ऋषिकांत 💐

सुप्रभात
Good Manju PandyaझRishi Kant BhattRishi Kant Bhatt

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सुमन्त पंड्या .
Sumantpandya.
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
    बुधवार 29 जून 2016

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Wednesday, 13 July 2016

💐💐 बनस्थली की रेल यात्रा : स्मृतियों के चलचित्र 💐💐

     

      बनस्थली की रेल यात्रा : स्मृतियों के चलचित्र .
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     #बनस्थलीडायरी         #रेलयात्रा

  मैंने एक बार की बात बताई थी जब मैं इस रूट पर अकेले यात्रा कर रहा था और
नव सभ्य लोगों से पाला पड़ा था , मैंने चाकसू पर ग्रामीणों के लिए दरवाजा खोल दिया था . उस दिन समय कम था इस लिए और प्रसंग वहां जुड़ नहीं पाए थे . आज जितना सा समय है उसमें एक और प्रसंग ......
करते हैं बात ......

गाड़ी की बाबत :
---------------     लोहारू से सवाई माधोपुर के लिए छोटी लाइन की गाड़ी जाया करती थी . हम लोग भी सामान से लदे फदे इस में यात्रा करते और विद्यापीठ की लाल बस निवाई पर बनस्थली के लिए सवारियों को लेने आती . हम लोग यात्रा पूरी कर बनस्थली पहुंच जाते .

एक बार की बात :
------------------ जयपुर  स्टेशन पर ब्रदर एस बी माथुर साब भी सपरिवार मिल गए , मेरे साथ भी परिवार था . हम दोनों को और बच्चों को भी अपना अपना साथ मिल गया . सुविधा पूर्वक गाड़ी में बैठ गए और अभियान दल गंतव्य की ओर चल पड़ा .
उस दिन कोई बरसों में ऐसा हुआ कि हाथ में एक क्लिप बोर्ड सा पकडे टी टी ई किसी छोटे स्टेशन पर हमारे डब्बे में चढ़ आए . सुन्दर व्यक्तित्व के स्वामी ये रेलवे अधिकारी सफ़ेद कपड़े याने कमीज पैंट काला ठंडा कोट और लाल टाई पहने थे  और टिकिट चैक करने आए थे . मुझपर नज़र पड़ते ही उनके चहरे  पर चमक आ गई और क्षण भर में मैं भी उन्हें पहचान गया . आखिर कौन थे वो...?

राजस्थान कालेज की याद आ गई .
------------------------------------ ये टी टी ई निकले राजस्थान कालेज में पढ़े हुए अवतार नारायण माथुर 'दीपक ' जो कालेज की हिंदी साहित्य परिषद  के छात्र संयोजक हुआ करते थे . दीपक उपनाम से वो उन दिनों कविता कहानियां भी लिखा करते थे ,  पत्रिका भी निकाला करते थे .
पुराने दोस्त को इस भूमिका में पाकर मुझे तो बड़ा अच्छा लगा . दीपक बी ए करने के बाद ही भारतीय रेल की सेवा में चले गए थे . मुझे इससे याद आया के पी सक्सेना  जीवन भर भारतीय रेल की सेवा में रहे और साहित्य जगत में भी अपनी अद्भुत रचना धर्मिता के लिए जाने गए .
मुझे आश्चर्य इस बात का भी हुआ कि दीपक को मेरा बनस्थली में होना पहले से पता था और सूचना का माध्यम थे बनस्थली से आते जाते यात्री जो उन्हें रेल की ड्यूटी के दौरान टकराए होंगे . ये वो ज़माना था जब बनस्थली में सब को सब जानते थे .
खैर टिकट तो चैक हो गए पर अंत में शानदार रहा ब्रदर का उठकर अवतार नारायण माथुर 'दीपक' का अभिनन्दन करना .
ब्रदर  अंग्रेजी में बोले :
" वी हैव बीन ट्रेवलिंग ऑन  दिस रूट फ़ॉर लास्ट सो मैनी ईयर्स . दिस इज फॉर द फर्स्ट  टाइम दैट समवन हैज कम टु  एग्जामिन अवर टिकेट्स ..
सो वी फेलिसिटेट यू ......"
दीपक को अगले डब्बे में जाना था पर मुलाक़ात बड़ी बढ़िया रही उस दिन .
और प्रसंग फिर कभी .
बिछुड़े साथियों और सुनहरे पलों को याद करते हुए .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
सुप्रभात .

समीक्षा: Manju Pandya

सुमन्त पंड्या
Sumant Pandya.
आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
13 जुलाई 2015 .
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Saturday, 18 June 2016

💐💐 बनस्थली में मेरा घर : विशिष्ट अतिथि का आगमन ( 2 )

   

    44 रवीन्द्र निवास : बनस्थली में मेरा घर : विशिष्ठ अतिथि का आगमन - ( 2 )
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#बनस्थलीडायरी     #जेटलीसाब

आगे का वृत्तांत . 💐💐

14 अगस्त को  ये संस्मरण लिखना आरम्भ किया था , बीच में दो दिन का टाइम आउट ले लिया , उसकी कैफियत फिर कभी , आज उस बात को आगे बढ़ाता हूं .     - सुमन्त.
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उस रात गौतम लिवा लाए और जेटली साब और श्रीमती जेटली 44 रवीन्द्र निवास आ गए और ऐसे निश्चिन्त हो गए जैसे अपने ही स्थान पर आ गए हों, मैं तो वहां था ही गौतम भी उस रात वहीँ रहे , उनको कोई असुविधा न हो इस बात का खयाल रखने को . वो तो यहां आकर ठहरने का विचार पहले ही व्यक्त कर चुके थे .

इस घर में   गृहिणी उपस्थित नहीं थी और भोजन की संभवतः काम चलाऊ व्यस्था ही थी . वो लोग मेहमान घर से पहले ही चले आए थे अन्यथा रात का भोजन वहां हो सकता था. अब समस्या यह दरपेश थी कि चार लोगों के भोजन की क्या व्यवस्था हो .  एक युवा गृहिणी नहीं थी तो क्या हुआ अब मां आ गई थी और इस बात का जिम्मा उन्होंने ले लिया .

मम्मी ( श्रीमती जेटली ) ने रसोई में पहुंचकर मुझे उस क्षेत्र से लगभग निष्कासित कर दिया , पिता श्री ( जेटली साब ) कमरे में बैठे , मैं और गौतम छत पर शयन स्थल की व्यवस्था करने चले गए , मौसम को देखते हुए वही उचित था . बिस्तर बिछ गए , ठंडे होने लगे , हम लोग फिर नीचे आ गए .

उस रात का मीनू .
-----------------               निष्कासित होने के बाद मैं तो रसोई में कोई मदद कर ही नहीं सकता था . मम्मी ने खुद ब खुद किसी डब्बे से  मंगोड़ी ढूंढ निकाली , मसाले , घी , आटा ढूंढ लिया . छोटे मोटे  रसोई के उपकरण जैसे तवा , चिमटा , चकला - बेलन ,परात , सास पैन और सबसे महत्वपूर्ण गैस कनेक्शन थे ही . इन्हीं साधनों और उपकरणों की मदद से मंगोड़ी , आलू टमाटर की रसे दार सब्जी और गरमा गरम रोटियां बना डाली . कुछ एक थाली कटोरियाँ चम्मच भी थे ही मेरी नई गृहस्थी की रसोई में .
मौसम के तापमान को देखते हुए माता पिता दोनों भोजन लिए छत पर पहुंचे  और जेटली साब ने आवाज दी :

" आओ बच्चों खाना खा लो."

हम दोनों, मैं और गौतम , नीचे ये देख रहे थे कि गौतम रात यहां रुकेंगे तो बदलने को कोई और कपड़ों का जोड़ होवे . पर कुल मिलाकर गौतम को उस रात  एक अंगोछा रास आया वो उन्होंने लपेट लिया और ऊपर जाकर हम भोजन में शामिल हो गए .
उस दिन कई दिनों के बाद हम दो दोस्तों ने मां के हाथ का खाना खाया .
ये सारी संयोगों से  हुई बातें हैं .

अभी बात बाकी रही पर टाइम आउट .
बात क्या बाकी रही बहुत ख़ास बात बाकी रही , इस अधूरी बात को ही स्वीकार कीजिए .

सुप्रभात

प्रातःकालीन सभा स्थगित.....
सह अभिवादन Manju Pandyaya

सुमन्त पंड्या .
गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
17 अगस्त 2015 .

Thursday, 16 June 2016

💐💐 अनायास .... सीरी मिल गया 💐💐

     

        अनायास ..... : सीरी मिल गया 💐

____________      #सीरी
#sumantpandya

____________   टी ए बिल बनाने में कौनसे वेद के मंतर पढ़ने पड़ते हैं पर बात की बात है अपन ने एक टेक धर दी कि बाबू लोग बनाते हैं टी ए बिल और हम तो खाली  दस्तखत कर दिया करते हैं . अब बाबू लोग का अपना रुतबा वो क्यों माने किसी चाहवे जिस की बात . कैसे सुलझा मामला , आज वही वाकया बताता हूं :

बात अटकी कहां पर थी ?
__________________वर्ष 1984 -85 के आस पास की ही बात है , राजस्थान यूनिवर्सिटी के कॉमर्स कालेज परिसर में सेन्ट्रल इवेलुएशन का पड़ाव ख़तम होने के बाद हम लोगों के रिलीव होने का मौक़ा था और बाबू लोगों ने हमें कोरे टी ए बिल थमा दिए थे भरने के लिए , उसी मौके पर उलझी थी गोट .
सच में मुझे पता नहीं था कि मेरा प्रतिदिन का डी ए क्या था , और भाड़ा तथा इन्सिडेंटल चार्जेज क्या कुछ दर्ज करने  थे इसीलिए यह बात आ गई थी . पर बाबू लोग किसी प्राध्यापक को क्यों गांठें .
तभी बात को और उलझाते हुए एक बाबू ने ये कह दिया :
" सामने दीख रहे कमरे में डी आर * साब बैठे हैं , आप तो उनसे हमारी शिकायत कर देवो , हम नहीं  बनाएंगे टी ए बिल , आप को खुद ही बनाना पडेगा ."
* डिप्टी रजिस्ट्रार.
मैंने भी तब तो कह दिया :" शिकायत ही करूंगा."
पर मुझे खुद लग रहा था कि अब अपनी शान में बट्टा ही लगने वाला है , कोई डी आर इन बाबू लोगों से वो काम नहीं करवा सकता जिसके लिए ये नट गए .
खैर मैं जाली का किंवाड़ ठेल कर उस कमरे में दाखिल हुआ जिधर बाबू लोगों ने बताया था . मुझे सामने पाकर यूनिवर्सिटी के अधिकारी के चेहरे पर चमक आ गई और वो बोला ," सुमन्त !"
मैं भी खुश हो गया , काहे के डी आर , ये तो अपना सीरी निकला .

सीरी के बाबत :
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सीरी का वास्तविक नाम श्री नारायण शर्मा , मेरे ननिहाल के गांव सकट का रहने वाला और राजस्थान कालेज का मेरा साथी डिबेट का जोड़ीदार था जो बी ए करने के बाद राजस्थान यूनिवर्सिटी में काम करने लगा था .
वैसे गांव देहात की जुबान में सीरी का मतलब भी पार्टनर ही होता है .
वही सीरी अब डिप्टी रजिस्ट्रार हो गया था .

बात शुरु हुई :" अरे तेरे बाबू लोग एक टी ए बिल बना कर नहीं दे सकते मुझको ?"
सीरी बोला :" राजा, तेरा बिल मैं बनाऊंगा , बैठ ."

और ये कहकर कागजात उसने अपने हाथ में ले लिए .
उस दिन उसका 'राजा' कहकर बोलना मुझे आज भी याद आ जाता है .
रह गई टेक, बिल भी बनवाकर लाया , चाय भी पीकर आया .
उस दौर के तो और भी कई किस्से हैं पर अब समय नहीं है .......
.....फिर कभी सही .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
इति.
समर्थन :Manju Pandyaa

सुप्रभात.
Good morning.

सुमन्त पंड्या.
Sumant Pandya.
आशियाना आंगन, भिवाड़ी.
17 जून 2015.
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अपडेट :
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गए बरस भिवाड़ी में लिखी थी ये पोस्ट , आज फेसबुक ने याद दिलाया . जिस दौर का ये किस्सा है उसी दौर की कई एक मजेदार बातें हैं , उनपर भी पोस्ट बणाऊंगा पर अभी हाल कोई न कोई से पार्क जाना है अतः जिनने पहले न देखी होवे वो जरूर देखें ये पोस्ट .
फेसबुक पर तो डालूंगा ही इस तरज़ की पोस्ट ब्लॉग पर भी मांड देवूंगा .
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सुप्रभात .
Good morning.
- सुमन्त पंड्या .
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
  शुक्रवार 17 जून 2016 .

Monday, 13 June 2016

अटकळ से ली गई सेल्फ़ी , अब जैसी भी आई डाल दी ब्लॉग पर और तो क्या करता !

ये तब की बात है जब आई टैब मिनी हासिल नहीं हुआ था  और मैं टैब से कुछ अटकलपच्ची करता रहता था , संग्रह से ली गई फ़ोटो जड़ने पर पोस्ट फ़ेल हो जाया करती थी । अपण भी लगे रहते  और हुआ ये कि फ़्रंट कैमरा से अपनी ही फ़ोटो ले डाली । जैसी भी थी कर दी अपलोड और क्या करता ।
अब दोहराऊँगा अपना तकिया कलाम :
" ये तो बार की बात छै माट साब फेर तो  थे जाणो ......" 😊

Monday, 25 April 2016

😊😊हीरा - मोती : भाग तीन 😊😊💐💐

    

        😊😊 हीरा - मोती की कहानी : तीसरा भाग - 💐💐

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   विगत दो कड़ियों में मैंने बताने का प्रयास किया कि हीरा मोती की  जोड़ी ने रिश्तों  का एक ऐतिहासिक , प्रामाणिक आधार खोज लिया था और मेरे बनस्थली के सेवाकाल का  आखिरी दशक आते आते मेरे आत्मीय स्वजन के रूप में इन्हें मान्यता मिल चुकी थी . होली पर मेरी दुर्गत कर जाते वो कोई बात नहीं सेवा में समर्पित ऐसे रहते कि मेरे यार दोस्त भी मेरा नाम लेकर इन्हें जोत लेते तो ये  काम को तत्पर रहते .

बताने की ख़ास बात : 😊😊

*******************    जिस बात से आगे के लिए सीख मिली वो बात कल बताने से रह गई थी वही आज बताने का प्रयास होगा .

कल मैंने बताने की शुरुआत तो की थी कि 13 दिसंबर 1995 का दिन नजदीक आ रहा था और मैंने शर्मा जी की मार्फ़त दोनों सालों  पर दबाव बनाया था कि जीजा श्री को वो सिल्वर जुबली के मौके पर सम्मानित करते हुए सूट का कपड़ा तो देवें ही देवें  .

“ अकेले नहीं दे सकते तो दोनों मिलकर देवो .”

शर्मा जी ने थोड़ा बचत का रास्ता भी निकाल दिया था .

पर अब सोचता हूं ये लोभ मेरे मन में आया ही क्यूँ  ? ऐसा मंगत्या तो मैं था नहीं , पहनने ओढ़ने के कपड़ों का कोई घाटा भी नहीं था

बनस्थली से बचे खुचे सामानों के जो अवशेष यहां  गुलमोहर तक आए हैं  उनमें से वारड्रोब की एक झलक आप को दिखाऊं तो आप भी कह बैठेंगे कि क्यों नीयत बिगाड़ी पर जो कुछ हुआ वो होनहार की बात .

आखिर बात कैसे बिगड़ी ?

***********************        13 दिसंबर से कुछ दिनों पहले ही मुझे बुखार चढ़ने लगा और बुखार तो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया . ये तो भली जाणो कि इला यादव के पति डॉक्टर अशोक यादव उन दिनों  परिसर के ही गार्गी निवास में रह रहे थे और चिकित्सकीय देखभाल के लिए उपलब्ध थे उन्होंने स्थिति को सम्हाला .अंदेशा था कि कहीं ये  सेरेब्रल मलेरिया बुखार न हो और इसके लिए डाक्टर साब ने उस समय खून की जांच के लिए निवाई के अस्पताल में बुलाया जब बुखार चरम पर हो .

नतीजतन एक सौ पांच डिग्री बुखार की हालत में मुझे व्यास जी निवाई लेकर गए ताकि खून की जांच हो सके और ये नौबत आई  थी ठीक सिल्वर जुबली के दिन  याने 13 दिसंबर 1995 को . अच्छी मनी जुबली . मैं किसी समारोह में सम्मिलित नहीं हो पाया और जान के लाले पड़े सो अलग .

इस वाकए ने मुझे ये सीख दी कि उपहार सूंत लेने के मेरे कपटी विचार ने ही ये नौबत ला दी . अच्छी  मनी जुबली . मैं तो यहां तक कहने लग गया था कि सारे खोटे काम इसी तारीख को होते हैं . उस दिन मैंने ये भी सौगन खाई कि आगे किसी जुबली पर सालों से किसी उपहार की मांग करके मंगत्या नहीं बनूंगा .

ये भी स्पष्टीकरण आवश्यक है कि हीरा - मोती भी किसी दबाव के आगे झुके नहीं , अडिग रहे दोनों , मुझे दोनों से ऐसी ही उम्मीद थी , जुबली के मौके पर  इन्होंने कुछ नहीं  परखाया . और तो और , शायद उन्हें स्थिति की गंभीरता का पता भी नहीं चला , मेरी तबियत पूछने भी नहीं आए .

पर जो भी हुआ ये रहेंगे तो मेरे हीरा - मोती ही . इनकी बाबत फुटकर संस्मरण और आगे जोड़ूंगा .

😊😊*********************************************😊😊

सुप्रभात .

सुमन्त पंड्या .

 @ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

 मंगलवार 26 अप्रेल 2016 .

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