Wednesday, 28 June 2017

अतरा मनख जीम्या ..अतरा मनख जीम्या ... अठी तो .....

अतरा मनख जीम्या , अतरा मनख जीम्या , अठी तो खेरो ही नी आयो …। 


(१)


किसी ज़माने की मधुबन , उदयपर की बात है वही बताता हूं और ये बात क्यों याद आई ये भी ।


दलाल सदन में किसी रात बड़ी भारी दावत हुई , बहुत सारे लोग आए और देर रात तक चली दावत ।

अगले दिन सुबह का परिदृष्य ये था कि रात हुई दावत के प्रमाण घर के अहाते में बिखरे पड़े थे और बराबर के घर के अहाते में खड़े बुज़ुर्गवार ये बड़बड़ाते हुए सुने गए थे :


“ अतरा मनख जीम्या , अतरा मनख जीम्या …. अठी तो खेरो ही नी आयो !”


वे शायद बीती रात की दावत में आमन्त्रित नहीं थे , शायद ये ही खिन्नता का कारण रहा हो । ख़ैर , जो भी रही हो बात , मुझे तो कहन याद आ गई वो ही दोहराई है ।


(२)


एक और कहन है गोस्वामी तुलसी दास की , वो इस प्रकार :


“ सकल पदारथ हैं जग मांही। करमहीन नर पावत नाहीं ।।”


बातें याद क्यों आयीं ? वही बताता हूं ।


जयपुर के जवाहर कलाकेंद्र स्थित इंडियन काफ़ी हाउस में गए हुए थे घर के सब लोग और सब के लिए विभिन्न भोज़्य पदार्थ उपलब्ध थे जो सब के सब मौज शौक़ से खा रहे थे पर मैं उन में से एक के लिए भी अधिकृत नहीं था । मेरे लिए तो घर से रोटियाँ ले जाईं गईं थी मैंने वो ही खाईं । ये सब स्वास्थ्य कारणों से परहेज़ बरतने के कारण , ख़ैर मेरा पेट भर गया , कोई ख़ास बात भी नहीं वैसे ।

ऊपर से सब ने मँगाकर शरबत भी पीया मेरे लिए तो वो भी निषिद्ध था ।

ले देकर हारे के हरिनाम एक काफी ही बच रही थी जो मैं पी सकता था पर वो भी तो आती सी आवे । जब सब लोग शरबत का पूरा पूरा मज़ा ले चुके तब उसके बाद आई काफ़ी जिसमें तो ख़ैर और लोग भी मेरे साथ शामिल हुए ।


काफ़ी का ऐतिहासिक और सम सामयिक महत्व 

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बनस्थली में सेवाकाल के अंतिम दशक से लगाकर गए दिनों यहां और अन्यत्र रहने के दौरान भी मेरी भोर में काफ़ी बनाकर पीने की आदत ही रही । “ प्राइवेट काफ़ी डन “ ये भोर की जगार की एक स्टेटस रहती आई है । कुछ तकनीकी कारणों से ये गतिविधि भी गए कुछ दिनों से स्थगित रही , ये भी एक बात है ।

जब भी इंडियन काफ़ी हाउस गया , चाहे विद्यार्थी जीवन नें चाहे बाद में , काफ़ी पीने का तो शौक़ रहा ही था ।

ऐसे में जब उस दिन काफ़ी का प्याला एक अंतराल के बाद सामने आया तो उसकी फ़ोटो ये कहते हुए अपलोड की थी कि इस बाबत इबारत बाद में लिखूंग़ा ।

ये हुई आज वो बक़ाया इबारत पूरी ।

सुप्रभात 

नमस्कार 

सुमन्त पंड़्या 

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर ।

गुरुवार २९ जून २०१७ ।

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Sunday, 25 June 2017

बोका की मां आवै ही छी ए  ..   : राजस्थानी बोध कथा :

राजस्थानी बोध कथा :


राजनीति में शिखर पुरुष की डेमोक्रेसी देखकर ही ये बोध कथा याद आई ।

क्या है बोधकथा ?

लीजिए ----


सासू मां का राज पाट तो पहले ही छिन गया था अब उनकी उपेक्षा भी होने लगी थी । खिन्न मनस्थिति में वो घर के बाहर चबूतरे पर जा बैठी और दिन भर बाट जोहती रही कि कोई न कोई तो उनकी सुध लेगा , उन्हें मनाने आएगा ।

दिन बीत गया , कोई न आया अब अंदर वापिस भी कैसे जाएं ?

जब कोई उपाय न सूझा तो घर की बकरी , जो जंगल से चर कर लौट आ रही थी , उसके सींग में अपना पल्लू फंसाकर कुछ इस तरह बुद बुदाती हुई घर में घुसी :


" बोका की मां मैं तो आवै ही छी ए , पण म्हारो मान कौनै ! "


ऐसा लग रहा था मानो बकरी उन्हें मनाकर घर के अंदर ला रही है ।

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नमस्कार ।

संध्या वंदन ।

इसे मेरी नान पॉलिटिकल पोस्ट के रूप में स्वीकार कीजिए ।


गुलमोहर , जयपुर ।

शनिवार २४ जून २०१७ ।


ब्लॉग पर प्रकाशित 

जयपुर 

२६ जून २०१७ ।

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Friday, 9 June 2017

बैंक में अपनी खातेदारी : स्मृतियों के चलचित्र 

बैंक में अपनी खातेदारी  : स्मृतियों के चलचित्र 

बनस्थली डायरी

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सन दो हजार चार में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनस्थली में पांव पसार रहा था . इस बैंक के वहां आने और बैंक को वहां लाने का फैसला तो प्रबंध का था उस बाबत न मुझे कुछ मालूम और न मुझे कुछ कहना . नतीजे में हो ये रहा था कि विद्यामंदिर में बैठकर बैंक वाले अधिकाधिक कर्मचारियों के खाते खोल डालने पर उतारू थे . तस्वीर भी वो ही उतार लेंगे , किसी आई डी की भी मांग नहीं करेंगे और तो और जीरो बैलेंस पर भी खाता खोल देंगे , डेबिट कार्ड भी बनवा देंगे . और जाने क्या क्या ?..

मैं भी आगया इस लपेटे में पर मेरी उस क्षण स्थिति ये थी कि जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी और मेरे लिए ये अपने उसूल के खिलाफ था कि बिना कोई नकदी दिए खाता खुलवाऊं , आखिर जिस दिन मैं अठारह साल का हुआ उस दिन काकाजी मुझे बैंक ले गए थे , पांच रूपए नकद की पे इन स्लिप भर कर मेरा खाता खुलवाया था और उसी दिन हाथ के हाथ तीन सौ रुपये और जमा करवाए थे . बैंक ने तत्काल पासबुक और चैक बुक जारी कर दी थी , ये बात थी जयपुर की जिसे तो मैं अपने बचपन की यादों से जोड़ता हूं . उसी दिन मेरे दोनों भाइयों के भी खाते खुलवाए गए थे उसकी बात तो वो दोनों ही बताएंगे मैं तो अपनी बताऊं वो बैंक वाले मुझे कहते हैं कि के वाई सी कंप्लाइंट नहीं है और या तो के वाई सी लाओ या बंद करो ये खाता . ये शहर का सबसे पुराना वो बैंक है जिसकी सबसे ज्यादा शिकायतें बैंकिंग लोकपाल के पास आती हैं . खैर वो तो मैं अलग से निबटूंगा किसी रोज अभी तो चलें वापस बनस्थली .


विद्यामंदिर - लेखानुभाग ( अप्रेल 2004 .)

____________________________ इस मामले में मैं अपने को भाग्यशाली ही मानता हूं कि जब भी मुझे लगा कि मदद चाहिए तो कहीं न कहीं से , किसी न किसी से तुरंत मदद मिली .

उस दिन भी यही हुआ अपनी प्रतिष्ठा को , उसूल को बनाए रखने के लिए तब के डिप्टी रजिस्ट्रार द्विवेदी जी से उचंत में लिए रूपए /₹500 और खाता खुलवा डाला जो खातेदारी आज भी जारी है . खैर अनुभव अच्छा ही रहा . बचपन के पांच रूपए की उस दिन के पांच सौ से बराबरी उसी दिन देखी मैंने .


स्टेट बैंक की निवाई शाखा में .

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कुछ दिनों बाद बैंक की शाखा में बेटे के साथ पहुंचा और कैशियर के कैबिन के सामने कोई इन्कम टैक्स चालान की रकम जमा करवाने को मैं खड़ा ही हुआ था कि कुछ ऐसा हुआ जिसका अर्थ मैं न समझ पाया . कैशियर के रूप में बैठा अनजान व्यक्ति सीट से उठ खडा हुआ और मुझसे बोला :


" आपने क्यों तकलीफ की , भैया को ही भेज दिया होता . इतनी गर्मी में

..."

खैर मामला मेरा था इसलिए गया था मैं तो , फटफटिया चलाने के चक्कर में ले गया था बेटे को तो , तो हो गई वो बात .


जयपुर की बस में बनस्थली मोड़ पर :

_________________________एक दिन बनस्थली मोड़ पर निवाई से आ रही जयपुर जाने वाली बस में मैं चढ़ा तो बस भरी हुई थी पर मुझे बस में चढ़ आया देखकर एक व्यक्ति अपनी अच्छी भली सीट छोड़कर उठ खड़ा हुआ और मुझे बैठाकर ही माना . आश्चर्य कि ये वही व्यक्ति था जो कैशियर कैबिन में उस दिन अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ था !


तीसरी बार आमना सामना :

__________________एक दिन शाम के बखत विद्यामंदिर में बैंक वालों ने फिर से कैम्प लगाया ग्राहक सेवा के निमित्त और मेरा वहां जाना हुआ डेबिट कार्ड में अशुद्ध छपे मेरे नाम को सुधरवाने बाबत बात करने को . उस दिन महिमा को घर से बुलाया मैंने फोन करके और मेरे लिए गर्व की बात थी कि उसने ₹5000/ की रकम देकर खाता खुलवाया जो उसके लिए नक्कछू रकम थी उसे नकद वेतन मिलने लगा था .

उस कैम्प में ख़ास बात ये थी कि कैशियर के रूप में वही व्यक्ति बैठ हुआ था जिससे दो बार आमना सामना हो चुका था और मैं उसे जानता न था .

पूछा मैंने : "कौन है ये व्यक्ति ?"

उत्तर मिला :" ये हनुमान है साब ."~


इस व्यक्ति द्वारा किए गए दो बार के व्यवहार से मेरी उत्सुकता चूंकि इतनी बढ़ गई थी इस लिए मैं उठकर उसके पास गया और नाम से संबोधित कर पूछा:

" हनुमान जी , पहली बार बैंक में आप अपनी सीट छोड़ कर उठ खड़े हुए थे , दूसरी बार बस में मुझे सीट पर बैठाने को उठ खड़े हुए और आज आप ने पांच हजार की रकम बिना गिने रसीद दे दी जबकि अपना तो कोई पूर्व परिचय भी नहीं रहा , ऐसा कैसे .? "

हनुमान जी ने एक अति संक्षिप्त वक्तव्य देकर मेरे सवाल को ही लगभग खारिज कर दिया .

" आप मेरे लिए पिता समान हैं इसलिए ."

 आज की दुनियां में आदर पाकर भी लोग शंकालु हो जाते हैं , मेरे लिए तो वहां शंका करने की कोई वजह नहीं थी .


साक्षात हनुमान जी की मधुर स्मृति के साथ ,

विलंबित प्रातःकालीन सभा स्थगित 


सुमन्त  पंड़्या 

गुलमोहर कैम्प, जयपुर .

4 जून 2015 .

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बैंक खातेदारी विषयक एक और चर्चित संस्मरण आज अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं । इसका लिंक भी फ़ेसबुक पर देऊंगा ।

जयपुर 

शुक्रवार ९ जून २०१७ ।

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अजमेर यात्रा : पिछली शताब्दी की याद - स्मृतियों के चलचित्र 

अजमेर यात्रा : पिछली शताब्दी की एक याद .

_______________________________ #अजमेरयात्रा उस शाम मैं जयपुर के सिंधी कैम्प बस स्टैंड से बस बदलकर अजमेर जाने वाली बस में बैठा था और एक ख़ास निमित्त से अजमेर जा रहा था . अगले दिन मुझे महार्षि दयानंद विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के अधीन प्राध्यापकों के एक रिफ्रेशर कोर्स में भाषण देना था . 

पहला सवाल तो रात पड़े ठिकाने पर उतरने और पहुंचने का था .बचपन में कुछ महीने अजमेर शहर में रहा और स्कूल की ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ा भी था पर शहर के भूगोल का तब का ज्ञान बेमाने था . मैंने बस में नजर दौड़ाई कि तभी एक जाना पहचाना व्यक्ति दीख गया और तुरंत मेरी सहायता को मेरी सीट के पास मुझे समझाने को चला आया . ये रुजबेह नामक युवक था जो उन दिनों बनस्थली में मैनेजमेंट फैकल्टी में प्राध्यापक था और उस रात अपने घर अजमेर जा रहा था . उसने मुझे उस स्थान पर उतरने की सलाह दी जहां से मैं पैदल पैदल विश्वविद्यालय परिसर पहुंच सकता था और मैंने वैसा ही किया भी था .

सुविधा पूर्वक मैं गेस्ट हाउस तो पहुंच गया वहां मेरे ठहरने खाने की व्यवस्था थी , मेरा नाम दर्ज था , पर सवाल तो अगले दिन का था , बोलना क्या है ये तो तय नहीं था . मैं उसी परिसर में विभाग के मुखिया राजेन्द्र जोशी के घर पहुंचा , मुझे कोई ऐसा प्रसंग चुनना था जो अब तक इस जमावड़े में अछूता रहा हो . खैर उनसे मिलकर यह भी तय हो गया कि मैं हंटिंगटन के विचार " क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन " पर बात करूंगा और वही काम मैंने अगले दिन किया भी .


अब कुछ इतर बातें : 

_____________उस रात मुझे लगा कि जीवन संगिनी भी मेरे लिए वैसे ही चिंतित थीं जैसे मां बाप अपने अल्प वयस्क बालक के लिए चिंता करते हैं कि ठिकाने पर पहुंचा कि नहीं . मिसेज जोशी से मिलने पर पता लगा कि उनका फोन इस बाबत वहां पहले ही आ चुका था . खैर पास के पी सी ओ पर जाकर मैंने घर पर फोन किया और अपने कुशल समाचार दिए , बहरहाल जोशी जी के घर पर उस समय एस टी डी की सुविधा नहीं थी .

रात काली कर दी कुछ कागज़ मांडने में जिन्हें मैं उन दिनों ' तीतरी' कहा करता था ताकि बोलते बोलते नींचे झांकूं तो कुछ सहारा मिल जाए .

सुबह हुई , पुरोहित जी मिल गए जो उदयपुर से आए थे , जोशी जी के तो वे गुरु थे ही उनका स्नेह भाव मेरे प्रति भी वैसा ही था , अपने सेवा काल की समाप्त्ति के बाद वे कई बार बनस्थली भी आ और पर्याप्त समय ठहर चुके थे इस नाते मुझे अच्छे से जानते थे . पुरोहित जी से मिलने पर मैंने रात की बात बताई कि ,"ठंड लगी" तो वो कहने लगे:" आप बैड कवर ही ओढ़ लेते , लगता है आप अनुभवी सेमिनारिस्ट नहीं हैं , ऐसी जगहों में कम ठहरे हैं " और मैं ऐसा अनाड़ी था तब कि जो बिछा है वही ओढ़ना है मुझे तो ये भी नहीं पता था . खैर रात हुआ जो हुआ , सुबह आदतन जल्दी उठा था , शक्ल सूरत ठीक की ( हजामत बनाई ) उपलब्ध गरम पानी से नहाया और तैयार होकर पुरोहित जी के साथ हो लिया . ठण्ड का बखत था इस लिए खूब सारे कपडे पहन लिए इससे शरीर की मेरी कमजोरी भी प्रायः छिप जाया करती है .


मौकाए वारदात पर :

______________ उस दिन मेरी ख़ुशी का पारावार इसलिए नहीं था कि कोर्स में भागीदार मेरे पास पढ़ी हुई दो छात्राएं - राजरानी माथुर और अलका चौहान भी वहां उपस्थित थीं जो अब पर्याप्त अनुभवी प्राध्यापिकाएं थीं और अपने अलग अलग समय में बनस्थली से पढकर गईं थीं . एक ने उस दिन मेरे स्वागत के निमित्त बोला और दूसरी ने आभार व्यक्त किया था . खैर और बात करें ....

अपने सम्बोधन में मैंने कोर्स के भागीदारों को पर्याप्त आदर देते हुए अपने साथी ही माना था और किसी भी रूप में ये नहीं जताया था कि मैं कोई ऐसा विद्वान हूं कि उनके सब प्रश्नों का उत्तर दे दूंगा . पर एक छोटी सी बात जो उस दिन की याद रही वही बताता हूं ...

 एक युवा प्राध्यापक जो राजस्थान विश्वविद्यालय के ही पढ़े हुए थे एक ऐसी बात ले आए जिसका उत्तर देने में द्वंद्व था . ये गेना साब की लिखी पाठ्य पुस्तक में लिखे का हवाला देकर सवाल पूछने लगे ..


गेना साब के बारे में..

_____________ वे मेरे गुरु भाई भी हैं और गुरु भी हैं , उन्हें मैं तब से जानता हूं जब उनकी गिनती युवा प्राध्यापकों में होती थी मैं विभाग में विद्यार्थी था और एक और बुजुर्ग पीढ़ी के लोग थे पढ़ाने के लिए . आगे चलकर उन्होंने बड़ी बढ़िया किताबें लिखी हैं उस पेपर के लिए जो वो पढ़ाया करते थे . मुझे तो एक बार वे स्वयं और एक बार उनका प्रकाशक किताबों की प्रतियां भी दे गए थे , मैं भी कम्पेरेटिव पॉलिटिक्स का पेपर पढ़ाया करता था . 

पर जिस विचार को लेकर जिस धरातल पर उस दिन चर्चा हुई थी उसमें पाठ्य पुस्तक का जिक्र तो पूरी तरह सन्दर्भ से बाहर था क्योंकि उन किताबों में वैसा उल्लेख ही नहीं आया . नॉटी बॉय स्टाइल में युवक ने तो सवाल दाग दिया था और मुझे देना था उसका उत्तर . मैनें उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया और शेष उपस्थित लोगों को जो कहा वो यह था :


" इन्हें मुझसे कोई सवाल थोड़े ही पूछना है .... इन्हें तो ये सिद्ध करना है कि ये भी मेरे गुरु भाई हैं ..... और मैं इनकी ये हैसियत स्वीकार करता हूं ."


इस से अधिक और भला मैं क्या कहता .


अपने जीवन के सुनहरे पलों को याद करते हुए .

आज की प्रातःकालीन सभा स्थगित 

सुप्रभात .


सुमन्त पंड़्या 

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

8 जून 2015 .

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चर्चित पोस्ट आज ब्लॉग पर प्रकाशित  

जयपुर 

९ जून २०१७ ।

Thursday, 1 June 2017

बातें बनस्थली की : ऊर्जा संकट - भाग दो : बनस्थली डायरी ✍🏼

बातें बनस्थली की :ऊर्जा संकट - भाग दूसरा .

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स्पष्टीकरण :

________ सच कहता हूं मुझे नहीं पता कि ऐसा कैसे हुआ कि मेरे टैब पर बाबा जी की छाया पड़ गई , ये कमबख्त जब तब अनुलोम विलोम करने लगता है . कल सुबह भी यही होने लगा और मैंने ये वाली पोस्ट अधूरी स्थगित कर दी . आप सब के प्यार भरे सन्देश अधूरी पोस्ट पर भी आए और अनुरोध से आरम्भ होकर धमकी की , नहीं नहीं चेतावनी की भाषा तक नौबत पहुंच गई तो कोशिश करता हूं कि आज तो हो ही जाए बात पूरी .

तो हो जाए .....

स्वगत कथन :

_________ अब बातें बनाना बंद कर सुमन्त , ले जीवन संगिनी से अनुमति और पोस्ट पूरी कर .

खबरदार कर बाबाजी को जो मेरे टैब को 'अनुलोम ' ' विलोम ' करवाया तो

....मैं भी देख लूंगा ....और तो क्या ?


आज की बात : कल की पोस्ट से आगे .

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 अपन खड़े पाए गए निवाई तहसील में , साहब के इजलास में , खाली झोले झंडे और मिनी कनस्तर से लैस मय पारिवारिक शिष्टमंडल के .

ऐसे तो कोई इजलास में नहीं जाता . शायद निवाई तहसील के ज्ञात इतिहास में ऐसा तो पहली बार ही हुआ होगा .


साहब ने जब नजर उठाई तो मैं तो किसी न किसी उपालम्भ की ही अपेक्षा कर रहा था , मैं बिलकुल नहीं जानता था कि बैठा व्यक्ति कौन है और उसका नाम गांव क्या है , मैं तो केवल पद नाम जानता था . दरकार थी तो सिर्फ तेल के परमिट की .

पर उसके बाद जो कुछ हुआ वो था अप्रत्याशित और उसका संकेत मेरी कल की आखिरी पंक्ति में चलते चलाते आ ही गया था . मेरा भी तो सिद्धांत है कि किसी को भरोसे रखो तो भी भावी का कुछ संकेत तो देवो ही देवो....


" सुमन्त... यहां ..कैसे ..इतने दिनों बाद ..प्लेजेंट सरप्राइज !"


और ये कहते हुए तहसीलदार अपनी कुर्सी छोड़ , डायस से उतर कर नीचे आ गए और और गर्म जोशी से मिले मुझसे और हम सबसे . मुझे हालात का मारा देख एक बार को पीछे मुड़े , टेबिल पर रखी घंटी बजाई . एक नहीं दो गुमाश्ते दौड़े आए और वो बोले :


" साहब का सामान ऊपर ले चलो ."


और ये कहते हुए हम सब को पिछले दरवाजे से निकल कर ऊपर लिवा ले गए . उस समय तो तहसील की ऊपर की मंजिल में ही उनका सरकारी आवास था .

इस बीच मैंने अपने तहसील पहुंचने का निमित्त भी तो बता दिया था और उन्होंने वहीँ से दो लोगों को तेल लेने भेज दिया था .


और ये सब कहने करने वाले थे लक्ष्मी नारायण जो अपने समय के दर्शन शास्त्र विभाग के एम ए के स्वर्णपदक विजेता और राजस्थान विश्वविद्यालय में मेरे सीनियर थे जो कोई अपनी विशेष चाहत से तहसीलदार नहीं बने थे उन्हें हालात ने तहसीलदारी की ओर धकेल दिया था . और दर्शन शास्त्र विषय और डाक्टर दयाकृष्ण से लेकर अन्य सभी शिक्षक वो कड़ी थे जो हमें एक प्रकार से आपस में जोड़ते थे .

मुझे याद आया कि प्रोफ़ेसर दयाकृष्ण प्रायः राजस्थान कालेज में दर्शन शास्त्र के विद्यार्थियों को इकठ्ठा करते , बात करते और यों विश्वविद्यालय के विभाग में मुझ जैसे विद्यार्थियों की बात पहुँचती .

दर्शन शास्त्र बी ए में मेरा भी विषय था और सभी लोगों से जुड़ाव था .

अन्य लोगों का उल्लेख आगे नए सन्दर्भों के साथ आएगा .


अभी तो वो चलें निवाई :

________________ उस दिन लक्ष्मी नारायण अपने घर क्या लिवा ले गए तात्कालिक समस्या का समाधान तो किया ही कितनी बातें हुईं , वे लगातार साथ रहे , बात करते करते बाजार में भी साथ जाने को हो लिए , वापसी की बनस्थली की बस में हमारे बैठने तक हमारे साथ रहे .

मुझे उनकी हैसियत से कोई रश्क तो नहीं हुआ लेकिन उस समय उनका वहां होना क्या मायने रखता था वो बताता हूं . एक दिन मेरे लाइब्रेरियन दोस्त टी एन रैना साब तहसील का कोई काम लेकर आए और बोले :


"यार..सुना है तहसीलदार तेरा दोस्त है सो ...."


और अपना वही सिद्धांत कि सिफारिश तो अपन भारत के राष्ट्रपति के नाम भी निस्संकोच मांड देवें , मानना न मानना उनका काम ...

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छापे की गलतियों के लिए माफ़ करना साथियों .


पूरी तो अभी कहां हुई बात पर इसे ही पूरी मान लेवो .


बनस्थली निवाई हलके के उन दिनों को याद करते हुए .

प्रातःकालीन सभा स्थागित .

सुमन्त पंड़्या 

गुलमोहर कैम्प , जयपुर .

2 जून 2015 .


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अपडेट : साल भर बाद . गुरुवार 2 जून 2016 .

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          कल बनस्थली में ऊर्जा संकट विषयक जो किस्सा छेड़ा था उसमें आपका सवाल बच रहा था ," फिर क्या हुआ ? " ," आगे क्या हुआ ? " , " तेल मिला के नहीं ? " वगैरा , वगैरा .... और मैंने कहा न था कि पासा पलट गया . अब आज इस साल भर पुरानी पोस्ट को ज्यों के त्यों चर्चा में ला देता हूं कुछ हद तक उपसंहार हो जाएगा .


सुप्रभात 

आपका आभार उत्सुकता व्यक्त करने के लिए .

-- सुमन्त पंड्या .


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ये संस्मरण आज फिर ब्लॉग पर जुड़ रहा है । जस तस मैंने बात पूरी की थी उस दिन । इसे पढ़कर मित्रों ने जो कुछ कहा वो भी यहां जोड़ता हूं  । डाक्टर दुर्गा प्रसाद अग्रवाल की टिप्पणी थी :

"  मुझे तो आपका सिद्धांत पसन्द आया - सिफारिश तो अपन भारत के राष्ट्रपति के नाम भी निस्संकोच मांड देवें , मानना न मानना उनका काम ... यह हुआ सकारात्मक सोच. कल की बात आपने पूरी की और एक सिद्धहस्त कथाकार की मानिंद कथा में एक अप्रत्याशित ट्विस्ट भी दे दिया. बहुतों का अन्दाज़ था कि तहसीलदार साहब ज़रूर ही आपके शिष्य रहे होंगे, लेकिन आपने एक झटका दे ही दिया. यह होता है सिद्धहस्त कथाकार. "

और गोविंद जी ने तो यहां तक कह दिया :

" "AJAB" "GAZAB" nahi , usse bhi uper... Sab kuchh "GAZAB HI GAZAB..."

भाई यादवेंद्र ने एक और ही बात कही थी :

" अचरज यदि सकारात्मक हो तो उम्र अपने आप बढ़ जाती है भाई साहब ।"

और चुन्ना भाई ( नवीन भट्ट ) ने ये कथा सुनकर कहा था :

"  हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होता कि ऐसे स्थान पर पूर्व परचित या जानपहचान का लकी-ड्रॉ निकल आए ।"

चक्रपाणि ने तो पहले एपिसोड के के बाद जैसा कहा था वैसा ही किया  । उसने कहा था :

" पूरी दास्तान पढ़ने के बाद कल भरपूर लाइक करेंगे वैसे पहला एपीसोड भी काफ़ी रोचक है । "

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इस प्रकार पूरी हुई ये ऊर्जा संकट प्रकरण की दूसरी कड़ी और इस पोस्ट बाबत आयी कुछ चुनिंदा टिप्पणियाँ  ।

अब किए देता हूं इसे ब्लॉग पर प्रकाशित ।

जयपुर 

शुक्रवार २ जून २०१७ ।

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बातें बनस्थली की :   ऊर्जा संकट : बनस्थली डायरी

बातें बनस्थली की : ऊर्जा संकट .

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वर्ष / सत्र 1975 - 76 के दौरान न जाने क्या हुआ था उसका व्यापक सन्दर्भ तो अब याद नहीं पर इतना याद है कि 44 रवीन्द्र निवास में ईँधन रीत रहा था , रसोई में गैस बीत गई थी और रहा सहा मिट्टी का तेल भी बीतने के कगार पर था . विभाग में तब नई आई अरुणा वत्स की स्थिति भी हमारे रसोई घर जैसी ही थी वे तो ईंधन के नाम पर मिट्टी के तेल पर ही आश्रित थी . वे तब 16 रवीन्द्र निवास में आ बसी थी और उनसे भी मेरे परिवार के ऐतिहासिक कारणों से सम्बन्ध प्रगाढ़ थे . इस मुसीबत ने मंगल वार के दिन हमें निवाई के बाजार में जा खड़ा किया था , चाहते थे कि हमारे रीते पात्र मिट्टी के तेल से भर जावें और अगले कुछ दिनों खाना पकाना संभव होवे . तीन वयस्क - मैं , जीवन संगिनी और अरुणा वत्स और साथ में एक तीन साल का बच्चा खड़े निवाई के बजार में और ये चाहें कि निवाई के इस फेरे में और कुछ जुटा पावें न पावें तेल जरूर से जुटा लेवें .

सुनकर आघात लगा :

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मैं यही कहूंगा कि तेल के दूकानदार ने जो कुछ कहा वो सुनकर तो मुझे आघात ही लगा था . उसने कहा कि तेल राशन कार्ड धारक को ही मिल सकता है और ऐसा कोई उपकरण हमारे पास था नहीं . मरता क्या न करता मैंने तेल जुटाने का वैकल्पिक और वैधानिक उपाय जानना चाहा तो व्यापारी बोला :


"तहसील से परमिट बनवा लाइए उसके आधार पर मिल सकता है आपको तेल ."


मैंने साथ के दो वयस्कों से तहसील यात्रा की अनुमति मांगी , अनुमति न मिलने पर सब के सब एक साथ हो लिए और पूछते पाछते तहसील पहुंचे . निवाई की तहसील का इतिहास और भूगोल उस दिन ही जाना था वरना तो हम लोगों को काम ही क्या पड़ता था वहां जाने का . रोना वही कि किसी तरह तेल का परमिट मिल जाए .

मुझे उम्मीद तो कम ही थी कि अभियान सफल हो जाएगा पर फिर भी मैं अपने शिष्टमंडल के साथ तहसील परिसर तक गया यही सोच कर कि प्रयत्न तो करना ही चाहिए आगे जो होगा देखा जाएगा .

तहसील का माहौल वही था जैसा सरकारी दफ्तरों या अदालतों का होता है . मुसीबत के मारे इलाके के नागरिक यहां वहां डोल रहे थे . कोई नक़ल लेने को कोई रकम जमा करवाने को और दफ्तर चल रहा था अपनी गति से , हालात वैसे ही थे जैसे ' राग दरबारी ' में श्री लाल शुक्ल बता चुके हैं तो मैं उससे बढ़िया भला क्या बताऊंगा . बहरहाल तहसीलदार साब इजलास में बैठे अपना काम निबटा रहे थे ऐसा पता लगा .मैं किसी भी सूरत में किसी छोटे अहलकार से मिलने के बजाय तहसीलदार साब से मिलकर ही अपना ऊर्जा संकट बताना चाहता था .

जाने मुझे क्या सूझी कि मैं दरबान को ठेलता हुआ तहसील के इजलास में ही जा घुसा यह सोच कर कि होगी सो देखी जाएगी . मेरे लगभग साथ साथ या कि पीछे पीछे मेरा वो शिष्ट मंडल जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूं .

यहां यह बताना भी उपयुक्त होगा कि तहसीलदार सरकार के कई एक विभागों का प्रतिनिधित्व करता है जिनमे उसकी एक हैसियत द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट की भी होती है , इसी नाते वो इजलास में बैठकर कुछ मिसिल निबटा रहे थे . न्यायाधीश की कुर्सी पर तहसीलदार साब और बगल की कुर्सी पर उनका रीडर . मुवक्किल शायद बाहर रहे होंगे और बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे होंगे . जबरिया अंदर घुस आए नागरिक को इजलास में आया देखकर तहसीलदार साब ने नजर ऊपर उठाई .


और पासा पलट गया , वो मेरी ओर देख रहे थे मैं उनकी ओर .

(क्रमशः .....)


आज समय की कमी और संचार साधन की कमजोरी के चलते मुझे उठना पड़ेगा .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

अभी ' इति' नहीं कहूंगा 

क्योंकि आप पूछेंगे ही ' फिर क्या हुआ ?'

( क्रमशः ...)

सुमन्त पंड़्या 

(Sumant Pandya.)

गुलमोहर कैम्प , जयपुर .

1 जून 2015.

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दो बरस पहले ये अधूरा संस्मरण जब मैंने पहली बार लिखा था तो  मेरे मित्रों को उत्सुकता जागी थी कि आगे क्या हुआ होगा ?  कौन थे तहसीलदार  ?  मेरे अभिन्न मित्र श्री गोविंद राम केजरीवाल ने जो कहा वो यहां उद्धृत करता हूं साभार :

"गोविन्द रोटी खाइये, बिन रोटी सब सून".. (आज से महीना भी है जून).. ऊर्जा के बिना भी सब सून ही सून... "रासनकार्ड" के बिना भी सब सून... आपके रोज-मर्राह काम आये ना आये इसे रखना जरूरी है.. 

सरकारी दफ्तर की कल्पना, वहां का "राग-दरबारी" माहौल, फिर तहसीलदार तो पूरी तहसील का "कलेक्टर" ठहरा.. आपने जो हिम्मत दिखाई अपने "शिष्टमंडल" के साथ उनके दफ्तर में दाखिल होने की, लगता है कि कल आने वाली आपकी पोस्ट में "ऊर्जा" के साथ साथ बहुत कुछ मिलेगा... "

डाक्टर दुर्गा प्रसाद अग्रवाल ने जो कुछ कहा वो भी कम उत्साह वर्धक नहीं है :

" अरे इतना दिलचस्प वृत्तांत चल रहा था...कि यह कम्बख़्त ब्रेक आ गया! बस कुछ विज्ञापनों की कमी रह गई, वर्ना पूरा टीवी का स्वाद मिल जाता! "

और केजरीवाल जी ने बात में बात मिला दी :

" इतना लम्बा ब्रेक तो टीवी में भी कभी नहीं होता... लगता है सुमन्तजी पाठकों के धीरज का भी हाथों हाथ इम्तिहान ले रहे हैं... "

भाई यादवेंद्र ने भी कह दिया :

"  भाई साहब आप तो हमको भी क्लाइमेक्स पर ले जाकर रीता छोड़ गये .... "

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ये प्रतिक्रियाओं की बानगी मात्र है । सब कोई की प्रतिक्रियाओं का समावेश इसमें नहीं कर पाया हूं । 

आज इस संस्मरण की पहली कड़ी ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं ।

जयपुर 

गुरुवार १ जून २०१७ ।

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