Saturday, 17 November 2018

पोरम्परा १

पोरम्परा है :  भाग एक .  मर्दाना धोती की बात .
   #बनस्थलीडायरी

कहा गया शब्द वास्तव में परम्परा है  पर इसे ऊपर इस प्रकार इसलिए लिखा गया है ताकि यह लगे कि यह किसी  बांग्ला भाषी  द्वारा कहा गया है । इस परम्परा को बताने के लिए पहले मैं आपको अपनी  कहानी सुनाऊं ।  मैं और मेरा  छोटा भाई विनोद Vinod Pandya  हवामहल के नीचे   कैंची और चाकुओं पर धार लगवाने गए हुए थे  जो ऐसे उपकरणों  से लगाईं जाती है जो फौलाद की बनी चीजों को भी पैना कर देते हैं  । ये वो कारीगर था जो कभी तलवारों को धार लगाता था , अब घरेलू उपकरणों पर धार लगाने लगा था जो बरतते बरतते भोंथरे  हो जाते हैं । इस काम की लागत की बात चली  , जमाने की बात चली  ,रुपये पैसे की बात चली तो एक रोचक संवाद हो गया । उसने एक सुन्दर और लठ्ठ जनता  धोती पहन रखी थी । उसका एक सिरा  झोली की तरह फैलाकर वो बोला   :
      या म्हारी बीस  रिप्या की धोती छै ,  ईं मैं मैं धोण  भर नाज बांध  अर ल्या सकूं छूं ।
अर्थात ये मेरी बीस रुपये की धोती है  ,इसमें मैं आधा मण  याने बीस सेर अनाज बांध कर ला सकता हूं ।

इसके  बाद उसने मेरी पतलून का एक पायचा   नींचे से पकड़ कर एक झटका दिया और बोला :
     या थां की कित्ताक की होली  ?   याने ये आपकी किस कीमत की है ?
     मैं जवाब में पतलून की लागत बोला । जो कुछ भी मैं जवाब में बोला  उसे तो जाने दीजिये  , बल्कि मुझे याद भी नहीं कि तब पतलून कितने में बन जाती थी  पर इतना याद है कि उसकी धोती की लागत और मेरी पतलून की लागत में जमीन आसमान का अन्तर था , और उसने जो पूछा वो मुझे आज तक याद है :
  
ईं मैं  कित्तोक  नाज बांध ल्यावोला  .......?
अर्थात : इसमें  कितनाक अनाज बांध लावोगे.....?

        मुझे इस कारीगर ने निरुत्तर कर दिया था । धोती के प्रति आसक्ति  शुरू हो गई थी  । धोती के महत्त्व को कारीगर ने बहुत  अच्छे से समझा दिया  था । वे मेरे जयपुर प्रवास के दिन थे । मैं सारे  जयपुर में धोती ही पहन कर घूमता ।  यह और सब को भी मैंने सुनाया , अनुयायी भी बनाये । उस समय के अध्ययन में विवेकानंद के लेख   ' मॉडर्न इण्डिया ' और अरविन्द (  sri Aurobindo ) की कृति फाउंडेशन्स ऑफ़ इन्डियन कल्चर ने भी मेरी इस धारणा को  मजबूत किया कि धोती के  भारतीय पहनावे  का कोई मुकाबला नहीं  ।  बनस्थली लौटा तो भी   धोती पहनने की  अपनी आदत और  प्रतिष्ठा साथ  लेकर लौटा । ऊपर जिन कृतियों  का उल्लेख आया है उनकी कुछ बात भी बताऊंगा और आज की पोस्ट को जो शीर्षक दिया है उसके साथ न्याय करने का भी प्रयास करूंगा । पर अभी के लिए ये एक भूमिका तो  बन ही गई है  । सेव करना मुझे आता नहीं इसलिए मैं इसे आपकी   नजर के लिए पोस्ट करता हूँ।..........
     पिक्चर अभी बाकी है .... यह केवल अंतराल है..........
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इस पोस्ट को फिर से जारी करने और इस कड़ी को पूरा करने का प्रयास करूंगा .
     ~ सुमन्त
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अपडेट
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दो बरस पुरानी पोस्ट है , फ़ेसबुक दिखा रहा है  तो सोचा  ये संस्मरण फिर उजागर होवे  और इष्ट मित्र फिर देखें . यही सोचकर फिर बात छेड़ी है 🙏🌻

नमस्कार  🙏🌻

सुमन्त पंड़्या
@  आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
शुक्रवार  १८ नवम्बर २०१६.

नोट
ये  क़िस्से की शुरुआत है  .
क़िस्सा आगे भी चलेगा .
जैसा मुझे याद आ रहा है कई एक कड़ियों में लिखा था ये क़िस्सा  .😀
अथ श्री नेटाय नमः

भोर की सभा स्थगित ............


Friday, 16 November 2018

शेष राशि : बनस्थली की बातें 


बनस्थली जाकर मैं ज्ञान विज्ञान महाविद्यालय में पढ़ाने लगा था । श्यामनाथ पहले से वहां अर्थशास्त्र के युवा प्राध्यापक थे उन्होंने मुझे पड़ौस के एक स्कूल अध्यापक लाभचंद ( बदला हुआ नाम ) जी से मिलवाया । उस दौर में stc ,jtc सरीखी डिग्री लेकर लोग स्कूल अध्यापक बन जाते थे । माट साब उसी पीढ़ी के अध्यापक थे । बी ए के किसी खण्ड की प्रायवेट परीक्षा दे रहे थे , उसकी तैयारी के सिलसिले में ही मुझसे मिलवाया था । माट साब ने अपने प्रयास से , श्रम से बीए भी किया बी एड भी किया और कालांतर में हैड मास्टर भी बने । मेरे घर बनस्थली में भी खूब आये , जयपुर में भी आये । उनके बीएड के दाखिले में भी  मैं इंस्ट्रूमेंटल रहा । मैं श्यामनाथ की बताई एक बात से बहुत आहत  था कि हमारे एक साथी ने तो इन माट साब को पढ़ाने के बदले गृह सेवक की तरह जोता था । खैर हमारे घर में ऐसा नहीं था । अध्यापक होने के नाते मैं उन्हें बराबर का दर्जा देता , उम्र में बड़े होते हुए भी वो जीवन संगिनी को भाभी जी कहते । यह पारस्परिक स्नेह लगातार बना रहा । खैर .....


खैर इन्ही माट साब के भोलेपन से जुड़ा हुआ एक रोचक प्रसंग बताकर आज की बात समाप्त करूं :

 एक दिन माट साब ने मुझसे सौ रुपए उधार देने की मांग की । यह उस समय एक बड़ी रकम थी । मैंने 70 रुपये के एक क्विंटल गेंहूं खरीदे थे , तब की बात है । मुझे काकाजी * से ये सीख मिली थी कि किसी को उधार दो तो सामान्य स्थिति में उतना ही दो जो तुम गंवाना गवारा कर सको । मान लो कि ये रुपया लौट कर नहीं आएगा । मैंने माट साब को अपनी कुछ असमर्थता बताते हुए पचास रुपये तत्काल दे दिए । 

  कुछ दिनों के बाद एक दिन माट साब कालेज में उस पेड़ के नीचे आये जहां मैँ कई साथियों के साथ बैठा था उन दिनों वही स्थान हमारा स्टाफ रूम होता था । ' कैसे आना हुआ माट साब ? ' मैं उनके लिए उठकर खड़ा हुआ । वो बड़े सहज रूप से बोले : मैं वो शेष राशि के लिए आया था । "

      जाने क्यों माट साब ने ये मान लिया था कि किसी मजबूरी के कारण मैं उस दिन पचास ही दे पाया और पचास और दे देने का आश्वासन उन्हें मिल गया है , इसी लिए वो आज फिर से आये थे । मैं फिर उनके साथ अलग जाकर मिला ।

  लौटकर वापिस आया तो साथी मुझसे पूछ रहे थे : अरे तुमने इस मास्टर से उधार ले रक्खा है ?

मेरे बड़कों आशीर्वाद रहा कि परिसर में कभी किसी से उधार माँगने नहीं गया और लोग क्या कहते हैं इस बात की कभी परवाह नहीं की .

  आज के लिए इति ।

Tuesday, 13 November 2018

दस रुपए का मोल : बनस्थली ड़ायरी 

नमस्कार स्वजनों 🙏

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क्या पूछा क़हां से ?

आशियाना आँगन भिवाड़ी से .🌻


आज गई शताब्दी का एक प्रसंग याद आ गया सोचा आपको वो ही बता देवूं . ये बताते हुए किसी का अनादर नहीं कर रहा केवल बात कर रहा हूं . तो सुनो स्वजनों :


गई शताब्दी में १९७१ की जुलाई में जब हम लोग ४४ रवींद्र निवास में रहने लगे तो हमारे घर के आगे की पंक्ति में हमारे प्रिय साथी माधोराम जी रहा करते थे , उनकी बड़ी बढ़िया आदत थी जो आज बहुत याद आ रही है . क्या करते थे वही बताता हूं .

बनस्थली में मंगलवार का साप्ताहिक अवकाश होता था . यदि उस दिन साथियों के साथ जयपुर जाने की योजना बनती तो वो सोमवार को ही बैंक हो आते और अपने बचत खाते से रुपये दस कंटान निकाल कर लाते तथा मंगल को हो आते जयपुर . सारा कैश घर में लाकर या बड़ा रोकड़ा घर में रखते ही नहीं . और ये भी तब कि जब बनस्थली में ले दे कर एक ही सहकारी बैंक था .


अब क्यों याद आई ये बात ?


इसलिए कि कैसा तो ज़माना था , रुपए दस में बनस्थली से जयपुर का आण जाण . किराया भाड़ा हो जाता और रूपए दो रुपए बच ही जाते थे आज तो दस रूपए की हालत ये है कि उस पर छोरा माँड़ देता है :


"सोनम गुप्ता बेवफ़ा है ."


तब दस रूपए की बड़ी इज्जत थी . तब माधोराम जी जैसे साथी थे जो दस रूपए में जयपुर यात्रा कर आया करते थे . 


ये और क़हूं कि मेरे लिखे में रत्ती भर भी अतिशयोक्ति नहीं है .

ये सच है .

वे दिन और वे लोग बहुत ही याद आते हैं 


#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya


आभार और आदर सहित  


सुमन्त पंड़्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

 मंगलवार १५ नवम्बर २०१६ .


प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ........

नोटबंदी के बाद हमलोग भिवाड़ी चले गए थे और अनायास आई विपत्ति को झेल रहे थे मिलजुलकर . उन दिनों पैसे , टके , बैंक की पुरानी बातें मुझे बहुत याद आया करती थी . ऐसी ही एक बात मैंने इस पोस्ट में लिखी थी . आज इसका ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण कर रहा हूं .

@  जयपुर     गुरुवार   १५ नवम्बर २०१८ .


Monday, 12 November 2018

ये घंटी क्या है 🔔🔔 ?

🔔 ये घंटी क्या है ? : भिवाड़ी डायरी 📙

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इधर जब से भिवाड़ी आए हैं हम लोग बाज पोस्ट में , न तो कमेंट में मैं ये घंटी की चिकसाणी ( निशान ) बणा देता हूं जिससे मेरे लिखे की पिछाण रहवे . आज ये ही सवाल उठाता हूं कि ‘ ये घंटी क्या है ?’


पहले एक बात 

-------------- ये एक अध्यापिका की बताई बात है जब वो एक प्रशिक्षण के लिए गईं तब हवाई जहाज से यात्रा करके आईं . पहली उड़ान का उनको कैसा अनुभव हुआ वही उन्होंने अपने रोचक अंदाज में बताया था , शेष सन्दर्भ छोड़कर सीधे मुद्दे पर आते हैं :


" जब प्लेन उड़ने लगा तो जाने कैसे कैसे हुआ ! पहले ऐसे ऐसे हुआ , फिर वैसे वैसे हुआ , जाने कैसे कैसे हुआ ! "


बस लगभग ये ही बात तो अपणे साथ है पहले ऐसे ऐसे होता है , फिर वैसे वैसे होता है , जाणे कैसे कैसे होता है और सुबह सुबह ये घंटी बज जाती है अपणे आप और नींद खुल जाती है वो भी अपणे आप .

तो मान लीजिए ये सिद्धांत :


" सुबह की जगार का प्रतीक है ये घंटी . 🔔🔔"


ये अपने आप ही बजती है , अंदर से बजती है और मैं सुबह उठ जाता हूं बस इत्ती सी बात है .

फिर सुबह सुबह की एक और टेक है :

" Good morning & private coffee done @ आशियाना. 🔔"


ऐसे संदेसे मैं चारों ओर भेजता हूं , ये ही मेरे जन जागरण के सन्देश होते हैं . दूर दूर से जगार के संकेत और सन्देश मिलने लगते हैं . जो किसी दिन इसमें चूक जाऊं तो लोग ये सवाल करने लगते हैं :

" Private coffee not yet done ? "

इस प्रकार ये घंटी और कॉफी का भी निकटवर्त्ती सम्बन्ध है .

तो सुबह सुबह के ये दो काम हैं :

१. घंटी बजती है . 🔔

२. कॉफी बणती है .☕️

और यहीं से होती है अपनी सोशल मीडिया पर उपस्थिति दर्ज .

आज यही प्रातःकालीन सभा का प्रस्थान बिंदु है ।

अभी हाल के लिए सभा स्थगित ….।

नमस्कार 


सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

शुक्रवार ३ फरवरी २०१७ .

आज एक लम्बी खोज के बाद ब्लॉग पर प्रकाशित     @ जयपुर   १३ नवम्बर  २०१८ ल

Wednesday, 7 November 2018

सवारी - सवारी .

#सवारी_सवारी

  

जीवन संगिनी से क्षमा याचना के साथ संपादित वृत्तांत Excuse me Manju Pandya

  थियेटर ~

ब्रह्मपुरी चोवटी वीर हनुमान , सन उन्नीस सौ अस्सी के दशक की बात है .

वहां कोई अवसर ऐसा था कि प्रश्नोरा समुदाय के लोग वहां जुटे थे और अब शाम पड़े अपने अपने घरों को जा रहे थे , और लोग भी आए थे शायद कोई बैठक ख़तम हुई थी . 

बाहर निकलने पर अपने अपने साधनों से लोग रवाना होने लगे .

सुरेन्द्र शर्मा दफ्तर से सीधे आए थे और अब घर को लौट रहे थे . उन्होंने अपनी मोटर में अम्मा , मोटी अम्मा , भूआ जी सरीखी सत्तर पार वृद्धाओं को बैठा लिया , आगे उनकी मोटर में ड्राइवर सीट के पास फाइलें रखी थीं और कोई ख़ास जगह बची नहीं थी . रामदास बाबा घर के बाहर ही खड़े थे और इन सब के बैठ जाने के बाद मुझे भी उस मोटर में ही बैठा देना चाह रहे थे ताकि जब ये लोग उतरें तो मेरा साथ रहे और मैं इन्हें संभाल सकूं . इसी को लेकर बाबा और सुरेन्द्र शर्मा में थोड़ी देर संवाद हुआ ~~~~~


एक सवारी और आ जाएगी .


अब और सवारी नहीं आ सकती .


आगे आ जाएगी एक सवारी .


नहीं, अब आगे सवारी की जगह नहीं है , जितनी आ सकती थी मैंने बैठा ली अब और जगह बची नहीं है .~~~~

बात बनती न देखकर बाबा ने मेरे दोनों कन्धों पर पीछे से हाथ रखे और मुझे उनके सामने किया ~


" इसे बैठाना है ."


तुरंत जवाब में शर्मा जी ने मोटर का आगे का फाटक खोल दिया मेरे लिए और बोले :

" इत्ती देर से सवारी सवारी कर रहे हो , ये क्यों नहीं कहते ,’ इस को बैठाना है .’ …..ये तो बैठ जाएगा. "

 मैं बैठ गया . लेकिन करम भी पीट लिया 

उमर हो गई टिकिट खरीदते खरीदते और यहां सवारियों में गिनती भी नहीं है .

मेरे अलावा इस प्रसंग से जुड़े सभी पात्र अब स्मृति शेष हैं पर बात है कि मुझे बार बार याद आ जाती है .

नमस्कार .

प्रातःकालीन सभा स्थगित …

इति .

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जयपुर 

16 नवम्बर 2015 .


आशियाना से अपडेट :

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पुराना किस्सा है . कई बार सुनाया है , पर जब भी सुनाया जीवन संगिनी से बच बचा के ही सुनाया न तो वे ये ही कहती :


"मुझे ये अच्छा नहीं। लगता कि आपकी सवारियों में गिनती नहीं है . "


गए बरस राम बाबू के आग्रह पर पहली बार ये किस्सा सोशल मीडिया पर डाला था .

आज फेसबुक याद दिला रहा है तो सोचा गृह कलह का जोखिम लेकर एक बार फिर इसे एडिट कर दिया जाए . 

टोका टाकी होगी तो देखी जाएगी . अब अपण तो जैसे हैं जो हैं .

आप तो मजा लो किस्से का .

किस्सा कैसा लगा ? अगर आपने पहले न सुणा हो तो , बताना जरूर .


नमस्कार  

 भोर की सभा स्थगित ..........


सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

  16 नवंवबर 2016 .


Monday, 5 November 2018

Nostalgia : How innocent !

Nostalgia - How innocent !


पुरानी बातें याद आ जाती हैं ।बाते छोटी छोटी हैं पर बताने का मन करता है तो सोचा साझा कर दूं ।

हम लोग उदयपुर में थे । ओझा साब काकाजी ( हमारे पिता जी ) के विभाग में थे और जब आते तो भूपालपुरा में हमारे घर आकर ठहरते । पुराने जयपुर में सब लोग सब लोगों को जानते थे । ओझा साब के साथ बाई जी, उनकी जीवन संगिनी भी आतीं । बाई जी काकाजी के मित्र नारायण जी ज्योतिषी की बेटी थीं । 

    ओझा साब कई कई दिन तक आडिट पार्टी के मुखिया के रूप में जनजातीय क्षेत्र में रह कर आते । वहां के अनुभव बताते । एक दौर पूरा होता तो उदयपुर आते ।उदयपुर उनका मुख्यालय था ।


एक भोला ग्रामीण उन्हें दूध लाकर देता । वे सेर भर दूध लेते । कभी दूध सेर होता कभी सेर से कम । यह उसके पास दूध की उपलब्धता पर निर्भर था । अंत में हिसाब के समय वह चाहता कि पूरा एक सेर प्रतिदिन के हिसाब से ही उसे भुगतान मिले । उसका तर्क होता :


डोबो दूध न दे तो मूं कांई करूं ? पया तो लूं हीज । अर्थात् पशु दूध न दे तो मैं क्या कर सकता हूं ? पैसे तो लूंगा ही ।

और इस सादगी पर ओझा साब निहाल हो जाते ।


उदयपुर डायरी का ये संस्मरण जब मैंने पहली बार बताया तो प्रियंकर पालीवाल जो बोले वो मुझे बहुत अच्छा लगा , वो बोले :

" सही बात ! अब जानवर को तो कुछ नहीं कह सकते पर आदमी को तो समझाया जा सकता है . भले और भोलेपन के अपने तर्क होते हैं . और भले लोग ही इन तर्कों को समझ सकते हैं . अच्छा लगा यह प्रसंग ."