कल फेसबुक मैत्री सन्देश देखते उषा तिवारी का नाम आया तो एक थोड़ी पुरानी बात याद आ गई आज भोर में उठकर सोच रहा हूं उसी बाबत पोस्ट लिखूं बी वी कालेज ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंस , यही नाम था काँलेज का उस जमाने में विश्वविद्यालय बनने से पहले . ब्रदर टीचर इंचार्ज हुआ करते थे खेलों के . सोफी टाइटस फिजिकल एजूकेशन की टीचर बनकर आई थीं और इस प्रकार मेरे विभाग याने पॉलिटिकल साइंस और फिजिकल एजूकेशन का नाता जुड़ गया था . ब्रदर के पास कागजात की फ़ाइल लेकर आते जाते मैं सोफी से भी मिला था और उन्हें जानता था . कालान्तर में विभाग की बढ़ोतरी हुई और नई प्राध्यापिकाएं भी आ गईं और यह भी एक बड़ा विभाग बन गया . इस विभाग ने पहले कई एक छोटे पैमाने के टूर्नामेंट करवाए और आगे चलकर विश्वविद्यालयों के भी खेल टूर्नामेंट करवाए . लेकिन इस विभाग से जुड़ाव ऐतिहासिक कारणों से जैसा ब्रदर * का था वह ब्रदर का ही था मेरा नहीं .
आज के लिए जो प्रसंग मैं उठा रहा हूं उसकी भूमिका मेरे घर 44 रवीन्द्र निवास से शुरू होती है . संभवतः ये वो दिन थे जब मेरा सेवाकाल समापन की ओर अग्रसर था . राशन पानी की दूकानें घर से दूर थीं , सामान सिट्टा लेकर जब मैं घर लौटा तो जीवन संगिनी का आदेश मिला कि शाम को मुझे विदुला मैदान जाना है . कोई दो युवा प्राध्यापिकाएं उनको मेरे बाबत कहकर आश्वासन ले गई हैं ऐसा मुझे बताया गया . उन दो में से एक शायद यही उषा रही होंगी , बाद के दिनों में इनके पति भी जब तब मेरी हाजिरी में खड़े हो जाते और बहुत मददगार रहे .
" सर आ जाएंगे ..क्या ? "
" जरूर आ जायेंगे , मैं उनको कह दूंगी !"
यही तो भाव था उस सवाल जवाब का जिससे मेरी शाम को विदुला मैदान जाने की प्रतिबद्धता निर्धारित हो गई थी और मैं ब्रदर * का स्थानापन्न मान लिया गया था . मुझे शाम को विदुला मैदान जाना ही था . मैं वहां पहुंचा . अब मैं भी वो मैटीरियल बन गया था जो वक्त जरूरत " मुख्य अतिथि " बनाया जा सकता था . ये अंतर छात्रावास खेल टूर्नामेंट थे जिनका उदघाटन होना था और हंसी ख़ुशी के वातावरण में वह सब कुछ हुआ जो होता आया है . सभी युवा खिलाड़ी प्राध्यापिकाओं ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया विदुला मैदान में , मैंने वहां पहुंच कर पहली बात यही कही :
" मुझे तो आप सीधे कहकर वैसे ही बुलवा लेते , ऐसा जोर डलवाने की भला कहां जरूरत थी ? "
मेरी आखिरी पंक्ति का अभिप्राय आप समझ गए होंगे .
आज के लिए इति .
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