घूमने जाता हूं : चलते रहता हूं :
रोज की तरह कल शाम भी शिवाड़ एरिया में घूमने निकलता हूं क्योंकि डाक्टर बोर्दिया ने कहा था," चलते रहोगे तो चलते रहोगे , अम्मा जी जितनी उमर पाओगे ,"
लोग तो सवारी लेकर निकलते हैं , फिर सवारी खड़ी करके घूमते हैं , ये आज की जिंदगी है . मेरे पास अब कोई सवारी नहीं है . मेरा तो घर से निकलते घूमना शुरु हो जाता है , एक धुन उल्टे मुझ पर सवार रहती है .
. मोहल्ले में कुछ नाम चीन डाक्टर हैं उनके बाहर से भी निकलता हूं , भीड़ देखता हूं मानो गोबिंददेव जी के दर्शनों के लिए भीड़ उमड़ी हो , चिंता भी होती है जाने कब इस भीड़ का हिस्सा बनना पड़ जाय , अरे अंदर तो फिर मीटर चलता है . खैर ..
मैं शायद अब भी बीसवीं शताब्दी में ज्यादा रहता हूं ,इक्कीसवीं में तो थोड़ी थोड़ी देर के लिए ही आता हूं जब इस टैब पर अंगूठा चलाना होता है .
अब डाक्टरों की बात चल पड़ी तो वही कहूंगा अपनी याद से . बी ए कक्षाओं में पढ़ता था , राजस्थान कालेज जाता था . सभाओं में बोलता था ,अक्सर गला खराब हो जाया करता था . अम्मा कहती थी कि बेटा बोलता इत्ता अच्छा है कि नजर लग जाती है इसे . यही नजर उतरवाने मैं सवाई मान सिंह अस्पताल में नाक ,कान , गला विभाग में बेखटके चला जाता था . डाक्टर नारायणन तब रिटायर हो गए थे और असीम चटर्जी इस विभाग के प्रोफ़ेसर बन गए थे . मैं सीधे उनके कमरे में जाता और वे मुझे उपलब्ध होते . " यस आई रिमम्बर योअर खांसी" कहते . आज कहां इतने सहज विशेषज्ञ उपलब्ध होते हैं ?
डाक्टर सांघवी मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर होकर पांच बत्ती पर जोरास्टर क्लीनिक में बैठते थे , नामी फिजीशियन थे , मैं भी हरिभाई के सुझाव पर उनको एकाधिक बार दिखाने जा आया था . अब ये उस दिन की बात है जब हरिभाई छोटे से रोहित को दिखाने पहुंचे क्योंकि वे खुद डाक्टर होकर अपने निदान से संतुष्ट नहीं थे , बेटे का बुखार टूट नहीं रहा था . हरिभाई फीस की पर्ची कटाकर ही गए थे . एक डाक्टर को फीस देकर आया देखकर डाक्टर सांघवी का माथा ठनका , सलाह के बाद काउंटर पर आए और बोले : " अरे डाक्टर से ही पैसे ले लिए , लौटाओ वापिस ." फीस के पैसे लौटाकर ही माने . आज वो दोनों डाक्टर तो नहीं रहे जो उस दिन आमने सामने थे और कितना सुखद संयोग है कि रोहित ऐसा डाक्टर है जिसके नाम सिफारिश का पत्र लिखवाने लोग मेरे पास आते रहे .
डाक्टर नारायणन की फटकार तो मुझे अब तक याद है , जोरास्टर क्लीनिक में वो भी बैठते थे , पत्नी को दिखाने मैं भी गया था , मरीज को टेबल पर लिटाकर वो कान में झांक रहे थे और मैं आदत से मजबूर मर्ज की केस हिस्ट्री पर बोलने लगा तो डाक्टर साब बोले : " नाउ विल यू अलाउ मी टू कन्संट्रेट ऑर विल यू गो ऑन स्पीकिंग ? " और मैं चुप हो गया था तब तक के लिए जब उन्होंने प्रेस्क्रिप्शन ही दे दिया .
कहां गया वो ज़माना ? अरे ये तो इक्कीसवीं शताब्दी है सुमन्त !
आज के लिए इति .
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