Monday, 19 February 2018

आशा बलवती राजन   - एक व्रत कथा .

एक व्रत कथा :” आशा बलवती राजन .”


पिछले दिनों एक बोध कथा फेसबुक स्टेटस के रूप में दर्ज की थी . उस दिन टिप्पणी में ये भी लिखा था कि अगली कथा कोई ‘ व्रत कथा ‘ दर्ज करूंगा . लगता है आज वह भागवत मुहूर्त आ गया है .

व्रत कथा का मोल :

- व्रत कथाओं में जीवन सन्देश निहित होते हैं . इन का एकेडेमिक महत्त्व भी हो सकता है . मुझे याद है कि बनस्थली जब राजस्थान विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ था प्रोफेसर नरोत्तमदास स्वामी ने लक्ष्मी शर्मा को इन्हीं व्रत कथाओं के अध्ययन के लिए प्रेरित किया था और इन लक्ष्मी जी ने इस अध्ययन से पी एच डी की डिग्री हासिल की थी . खैर , वो तो बात याद आ गई इसलिए जोड़ी अभी तो एक व्रत कथा का उल्लेख करना है वही करता हूं .

आज की कथा :

एक राजा का राज पाट छिन गया था और वह दर दर भटक रहा था , जंगल जंगल भटक रहा था , कंद मूल फल जो कुछ उसे उपलब्ध होता वही खाता . भोजन और आवास का कोई ठौर ठिकाना नहीं था , विषम परिस्थितियां थीं .

एक दिन ऐसे ही जंगल में भटकते हुए उसे चार डोकरियाँ माने वृद्धाएं एक जगह बैठी बात करती हुई मिलीं और राजा ने उन्हें प्रणाम किया , शीश नवाया और वृद्धाएं पूछ बैठीं कि उसने किस वृद्धा को प्रणाम किया है . राजा ने प्रति प्रश्न किया कि वो हैं कौन कौन ये बतावें तो ही हल निकलेगा . और वे वृद्धाएं एक एक कर अपना परिचय देने लगीं , वही बताता हूं .

1.

पहली ने अपने को “ भूख “ बताया .

राजा बोला कि वो राजसी वैभव के साथ भोजन करता था तो भी भूख मिट जाती थी और आज जब रूखा सूखा भोजन मिल जाता है तो भी भूख मिट ही जाती है . खैर..  

2.

दूसरी ने अपने को “ नींद “ बताया .

राजा बोला वह महल में रहता था , पलंग पर सोता था तब भी नींद आ जाती थी और आज जब कहीं भी पड़ रहता था तो भी नींद आ जाती है , आ ही जाती है , खैर .. 

3.

तीसरी ने अपने को “ प्यास “ बताया .

राजा बोला कि तब चांदी के जल पात्र में परिचारक पानी लेकर आते थे उससे भी प्यास मिट जाती थी और आज जंगल में भटकते हुए किसी झरने से अंजुरी में भर कर पानी पीता हूं तब भी प्यास मिट जाती है , वरन अच्छी तरह मिट जाती है . खैर…

4.

और अब चौथी बोली कि मैं “ आस “ ( आशा ) हूं .

फिर तो क्या कहने थे , राजा झुका और उसने तुरंत वृद्धा के पैर छुए कि प्रथम प्रणाम उसी को है .

चाहे जो भी आज के हालात हों फिर से राज पाट मिलेगा यही आशीर्वाद उसे वृद्धा से चाहिए था . 

जैसी व्रत कथा मैंने सुनी थी उन नाते मैं वृद्धा को डोकरी बोलता हू

अब बोल सुमंत -- ये व्रत कथा मैंने अम्मा को बोलते सुना था , कालान्तर में अम्मा ने महिमा को ऐसी कथाएं सुनाने को तैयार किया था .

निष्कर्ष एक ही निकलता है , “ आशा बलवती राजन “.

और संकेत रूप में यह भी कहे देवूं कि जनतंत्र के इस युग में प्रजा ही राजा है .

कल रात एक मंगल उत्सव में अपनी बैस्ट फ्रैंड आशा से मिला था , आज की ये पोस्ट उन्हें ही समर्पित करता हूं , बहुत सोच समझ कर दादी अम्मा ने ये नाम उनको दिया था , आशा और कोई नहीं वे है आशा भट्ट . ( Asha Bhatt) )


Wednesday, 14 February 2018

आभार ज्ञापन . भिवाड़ी डायरी .

सुप्रभात ☀️

         आभार ज्ञापन 

        कल के बीते वैलेंटाइन डे उत्सव के निमित्त आप ने जो बधाई संदेश भेजे और अपनत्व जताया उससे मैं अभिभूत हूं और आप सब को प्रणाम करता हूं 🙏

अब मिल गया बहाना अटकने का , आप सब से कई दिनों तक अलग अलग अटकता रहूँगा . ख़ूब होम वर्क इकठ्ठा हो गया है इस बहाने से .

ब्लॉग लेखन में भी एक नई पहल कर पाया हूं . कल से पहले मैं ब्लॉग पर फ़ोटो जोड़ता था तो ब्लॉग पोस्ट तो छप जाती थी और तस्वीर कूड़ेदान में चली जाती थी . कल संत वैलेंटाइन की कुछ ऐसी कृपा हुई कि पोस्ट के साथ तस्वीर भी जुड़ गई , एक बार नहीं दो दो बार . मैंने सोचा बड़ी मुश्किल से तो ये सम्भव हुआ है , कहीं ऐसा न हो कि फिर उड़ जाय तस्वीर तो रहने दिया . अब आगे से बात लिखूंग़ा सो तो लिखूंग़ा ही बात की हिमायत में तस्वीर भी जोड़ा करूंग़ा . आप तो देख लिया करो बस इत्ती सी बात है .

अथ श्री नैटाय नमः 🔔

मेरी मंशा है कि ये ब्लॉग लेखन और ब्लागोत्थान का ख़ुमार अभी कई दिन तक चले .

प्रातःक़ालीन सभा अभी हाल के लिए स्थगित .....।

नोट : ब्लॉग का लिंक अलग से देवूँगा , जैसे ही कुछ इज़ाफ़ा होवेगा . 

Sunday, 11 February 2018

बैद जी झंडा बांधेंगे : बनस्थली की कहावतें .

आपका क़िस्सागो 

बनस्थली की कहावतें: बैद जी झंडा बांधेंगे . 


कुछ बातें एक समय में कही जाकर कालान्तर में कहावत बन जाती हैं . जन मानस की स्मृतियों में कुछ समय तक कथा का इतिहास बाकी रहता है , आगे कहावत चल पड़ती है कथा भूल में पड़ जाती है , ऐसा ही एक वाकया है जिससे कहावत चल पड़ी ," बैद जी झंडा बांधेंगे ."


कहावत का उद्भव और विकास :

         किसी उत्सव , संभवतः वार्षिकोत्सव पर जिम्मेवारी बांटने के दौर में उस समय के वैद्यजी को झंडा बांधने की जिम्मेवारी सौंपी गई और यह उनका आवर्ती प्रभार बन गया . जब भी कोई उत्सव होता वैद्य जी ही झंडा बांधते होते . वैद्य जी को झंडा बांधना इसलिए आता था क्योंकि स्कॉउट होने के नाते उन्हें अपने बचपन में यह प्रशिक्षण मिला था . आयुर्वेद की उनकी शिक्षा से उनके इस हुनर का कोई सम्बन्ध न था . 

कहावत मुकम्मल तब हुई जब वैद्य जी अपना सेवाकाल समाप्त कर परिसर से चले गए , दूसरे वैद्य जो उनके सामने ही आ चुके थे अब कमला नेहरू अस्पताल में आयुर्वेद प्रभाग के अकेले प्रभारी बन गए .


वार्षिक उत्सव पर जब ड्यूटी चार्ट बनने लगा तो पिछले वार्षिक उत्सव का चार्ट देखकर बाबू लोगों ने इन वैद्य जी की ड्यूटी लगा दी झंडा बांधने की .

अपना ड्यूटी चार्ट देखकर वैद्य जी दफ्तर में पहुंचे और अपनी असमर्थता बताई कि उन्हें झंडा बांधना नहीं आता था . झंडा बांधना भी एक कला है , एक ख़ास तरह से झंडा लपेट कर रस्सी से बांधा जाता है और रस्सी खींचने पर झंडा खुल जाता है , उसमे लिपटे फूल बिखर जाते हैं , ये सब वैद्य जी को नहीं आता था . पर इससे क्या , दफ्तर वालों ने तो मान रखा था " बैद जी झंडा बांधेंगे " 

वैद्य जी गए कहने कि वे झंडा नहीं बांध पायेगे .

जवाब मिला कि हमेशा ही बैद जी झंडा बांधते आए हैं , आप कैसे नहीं ?

लिखा है " बैद जी झंडा बांधेंगे ."

 मैं ऐसे प्रभार के लिए कहता हूं ' पदेन बाध्यकारी. '


 मैं जब बनस्थली पहुंचा था तब कमला नेहरू अस्पताल में बड़े वैद्य जी और छोटे वैद्य जी दोनों साथ साथ बैठते थे . कागजी कारवाही निमित्त हरि भाई मेडिकल आफिसर के रूप में काम देखते थे . 14 अरविन्द निवास में अस्पताल वालो की ओर से बड़े वैद्य जी की विदाई पार्टी हुई उसमे मैं भी सम्मिलित हुआ था .

किसी पर आने वाले पदेन बाध्यकारी आवर्ती प्रभार के लिए बनस्थली परिसर में कहा जाने लगा: " बैद जी झंडा बांधेंगे . "

कहावत शायद अब भी परिसर में प्रचलित होगी , मैंने तो केवल कलमबद्ध किया है .


ब्लॉग और फ़ोटो का तालमेल  ; आज का स्टेटस अपडेट .


ब्लॉग और फोटो का तालमेल : आज का स्टेटस अपडेट 


आज से ठीक एक बरस पहले ये ब्लॉग पोस्ट यहां जोड़ी थी जिसका ब्लॉग लिंक आज फिर जोड़ रहा हूं और इसी बहाने से कुछ और बात भी क़हूंगा । सबसे पहले अपने ब्लॉग के बारे में जिसका शीर्षक है ," " रवीन्द्र निवास से गुलमोहर " तब मैं जस तस फ़ेसबुक पर आई रही पोस्ट को ब्लॉग पर तो मांड देता था पर मुझे ब्लॉग लेखन के तौर तरीक़ों का न तो ज़्यादा ज्ञान था और न ही मैं अपने लिखे का ठीक से सम्पादन कर पाता था । कभी कभी तो अपने ब्लॉग तक पहुंच पाना भी सम्भव नहीं होता था और उसी दौर में मैंने एक पोस्ट लिखी थी , " अपने ही घर का पता पूछते हैं ।" और भी कई एक बातें हैं , बिना बात सारी पोस्ट को बोल्ड और इटालिक्स में मांड़ देता और इमोज़ी लगा देता । तब से अब मैं इन बातों को कुछ बेहतर समझने लगा हूं ।

ब्लॉग के साथ फ़ोटो अपलोड कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाता था और लिखी लिखाई पोस्ट रिजेक्ट हो जाया करती थी ।उसी दौर में एक नामचीन सम्पादक की इस राय ने मेरा उत्साह वर्धन किया कि लोग मेरा लिखा गद्य पढ़ना पसंद करते हैं और मुझे उनको कोरी फ़ोटोओं से टरकाना नहीं चाहिए । फ़ेसबुक पर तो मैं फिर भी फ़ोटो जोड़ देता था ब्लॉग पर तो मैं शब्द चित्र ही उकेरने लगा था । चार बरस से फ़ेसबुक पर हज़ार से ज़्यादा पोस्ट लिखी उन्हें धीरे धीरे ब्लॉग पर जोड़ने का प्रयास अब करता रहता हूं । अब नए उपकरण की मदद से ब्लॉग पर फ़ोटो जोड़ना भी यदा कदा सम्भव हो जाता है पर इस विधा को अभी भी सीख रहा हूं यही क़हूंगा । फ़ोटो से ज़्यादा ज़रूरी है इबारत ये मैं भी मानता हूं । 

आज एक बात और क़हूं -

मैसेंजर और इन्बॉक्स में और तो और वाट्सएप के ज़रिए ( जिसके पास भी मेरा नम्बर हुआ ) अब बहुत संदेश आने लगे हैं । अच्छा तो बहुत लगता है पर ये मेरी ही असमर्थता क़हूंगा कि उस गति से प्रत्युत्तर नहीं दे पाता । आशा है आप अन्यथा नहीं लेवेंगे यदि उत्तर समय पर न मिले । मेरे कुछ चाहने वाले भोले लोग समय असमय वीडियो काल भी कर देते हैं जिन्हें मैं कभी कभी सिक़र नहीं पाता । मैं ऐसे लोगों के प्रेम से अभिभूत हूं । एक बात साफ़ कह देवूं कि मेरी सूरत वही है जो आज की प्रोफ़ाइल पिक्चर में है । आप से पूछकर ही तो आज सुबह जोड़ी है ।अब वीडियो काँफ्रेंसिंग न हो पावे तो कोई बात नहीं ।

ऐसी भी क्या बात है किसी दिन ये विद्या सीखकर लाइव हो जावूँगा तो इस बात की भी आंशिक पूर्ति हो जाएगी ।

और बहुत सी बातें हैं कहने की , ये बातें कभी पूरी थोड़े ही होती हैं , पर अब उपलब्ध समय समाप्त हो रहा है ।

अतः प्रातःक़ालीन सभा स्थगित …..

Wednesday, 7 February 2018

घूमने जाता हूं ...शिवाड़ एरिया डायरी .






घूमने जाता हूं : चलते रहता हूं :

रोज की तरह कल शाम भी शिवाड़ एरिया में घूमने निकलता हूं  क्योंकि डाक्टर बोर्दिया ने कहा था," चलते रहोगे तो चलते रहोगे , अम्मा जी जितनी  उमर पाओगे ,"




लोग तो सवारी लेकर निकलते हैं , फिर सवारी खड़ी करके घूमते हैं , ये आज की जिंदगी है .  मेरे पास अब कोई सवारी नहीं है . मेरा तो घर से निकलते  घूमना शुरु हो  जाता है  , एक धुन उल्टे मुझ पर सवार रहती है .

. मोहल्ले में  कुछ नाम चीन डाक्टर हैं  उनके बाहर से भी निकलता हूं , भीड़ देखता हूं  मानो  गोबिंददेव जी के दर्शनों के लिए भीड़ उमड़ी हो  , चिंता भी होती है  जाने कब इस भीड़ का हिस्सा बनना पड़ जाय ,  अरे अंदर तो फिर मीटर चलता है . खैर ..




मैं शायद अब भी बीसवीं शताब्दी में ज्यादा रहता हूं  ,इक्कीसवीं में तो थोड़ी  थोड़ी देर के लिए ही आता हूं जब इस टैब पर अंगूठा चलाना होता है .





अब  डाक्टरों की बात चल पड़ी तो वही कहूंगा अपनी याद से . बी ए कक्षाओं में पढ़ता था , राजस्थान कालेज जाता था . सभाओं में बोलता था ,अक्सर गला खराब हो जाया करता था . अम्मा कहती थी कि बेटा बोलता इत्ता अच्छा है कि नजर लग जाती है इसे . यही नजर उतरवाने मैं सवाई मान सिंह अस्पताल में  नाक ,कान , गला विभाग में बेखटके चला जाता था . डाक्टर नारायणन  तब रिटायर हो गए थे  और असीम चटर्जी  इस विभाग के प्रोफ़ेसर बन गए थे .  मैं सीधे उनके कमरे में जाता और वे मुझे उपलब्ध होते . " यस आई रिमम्बर योअर  खांसी"  कहते . आज कहां इतने सहज विशेषज्ञ उपलब्ध होते हैं  ?



डाक्टर सांघवी
  मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर होकर  पांच बत्ती पर जोरास्टर क्लीनिक में  बैठते थे , नामी फिजीशियन थे , मैं भी हरिभाई के सुझाव पर उनको एकाधिक बार  दिखाने जा आया था . अब ये उस दिन की बात है जब हरिभाई छोटे से रोहित को दिखाने  पहुंचे  क्योंकि वे  खुद डाक्टर होकर अपने  निदान से संतुष्ट नहीं थे , बेटे का बुखार टूट नहीं रहा था . हरिभाई  फीस की पर्ची कटाकर ही गए  थे .  एक डाक्टर को फीस देकर आया देखकर   डाक्टर सांघवी का माथा ठनका , सलाह के बाद काउंटर पर आए और बोले : " अरे डाक्टर से ही पैसे ले लिए , लौटाओ वापिस ." फीस के पैसे लौटाकर ही माने . आज वो दोनों डाक्टर तो नहीं रहे जो उस दिन आमने सामने थे और कितना सुखद संयोग है कि रोहित ऐसा डाक्टर है जिसके नाम सिफारिश  का पत्र  लिखवाने लोग  मेरे पास आते रहे .

डाक्टर नारायणन की फटकार तो मुझे अब तक याद है , जोरास्टर क्लीनिक  में वो भी बैठते थे , पत्नी को दिखाने मैं  भी गया था , मरीज को टेबल पर लिटाकर वो कान में झांक रहे थे  और मैं   आदत  से मजबूर  मर्ज की केस हिस्ट्री  पर बोलने लगा  तो  डाक्टर साब बोले : " नाउ  विल यू  अलाउ मी  टू  कन्संट्रेट   ऑर विल यू गो ऑन  स्पीकिंग  ? "   और मैं चुप हो गया था तब तक के लिए जब उन्होंने प्रेस्क्रिप्शन  ही दे दिया .

कहां गया वो ज़माना  ? अरे ये तो इक्कीसवीं शताब्दी है  सुमन्त !

आज के लिए इति .


Tuesday, 6 February 2018

गर्ल चाइल्ड : जयपुर डायरी .



गर्ल चाइल्ड :

कल रात एक दावत में वो बच्चे फिर मिले थे " बाबा " कहकर  और मुझे एक थोड़ी ही पुरानी बात  याद हो आई .  हम लोग तब शायद बनस्थली से जयपुर आए हुए थे और अपने  शहर वाले घर गए थे  जिसे मैं अपना तीर्थ स्थान कहता हूं . वहां माता पिता और बहन भाइयों के साथ मेरा बचपन बीता  था .

कुछ ही महीनों पहले साकेत की बहू शिल्पा ने दो जुड़वां  बच्चों को जन्म दिया था जो अब कुछ  कुछ मुस्कुराने लगे थे . बच्चे को गोद में लेने और खिलाने में  कित्ता अच्छा लगता है  यह तो सब कोई जानते हैं . बताने की आवश्यकता नहीं है . आजकल हमारे घरों में माता पिता को मम्मी पापा और ऊपर की पीढ़ी को बाबा अम्मा कहने का चलन हो गया है  . वहां बात आई कि बनस्थली वाले बाबा अम्मा आए हैं . तब मैं सोच रहा था कि जब मैं पहली बार  बनस्थली  गया ं था तब मेरे बाबा वहां थे, तब तो मैं बाबा * के पास गया था ,   बोलो आज  मैं  बाबा बनकर आया हूं  और वो भी बनस्थली वाले बाबा . खैर अब वो बात जब हम दोनों  ने बारी बारी से बच्चों  को गोद में उठाने का प्रयास किया .

मैंने पहले लड़के की ओर हाथ बढ़ाकर  आवाहन किया कि वो मेरे पास आ जाए , ये हुई प्रयाग की बात ,  वो हरगिज मेरे पास नहीं आया . खैर  अब मैंने  लड़की याने पाहुनी की ओर हाथ बढ़ाए और उसके कान के पास जाकर एक बात और कही  मानो इत्ता छोटा बच्चा भी बात समझता हो ."बेटा , तू तो  मेरे पास आ जा, तू तो लड़की है  तुझे हम बनस्थली ले चलेंगे , मैंने जिंदगी भर लड़कियों को ही पढ़ाया , तू समझेगी मेरी बात ."

मेरे ऐसा कहने  के फौरन बाद पाहुनी मेरी गोद में आ गई और तब तक मेरे ही पास रही जब तक हम उस घर में ठहरे . भाई साब भी कहने लगे कि सुमन्त ये तो जायगी तुम्हारे साथ .

हमारे वापस बापू नगर लौटने का समय हो गया , दरवाजे तक सब लोग हमें छोड़ने आये  तब इस लड़की को मेरे कंधे से छुड़ाना पड़ा वरना वो तो मुझे छोड़ने को तैयार न थी , ऐसी हुई उस दिन बात .

उस अनुभव के बाद मेरी यह आदत सी बन गई है कि मैं कह देता हूं , लिख देता हूं  :  Add my support for the  girl child .

सुप्रभात .

आज के लिए इति .

* पंडित श्याम सुन्दर शर्मा


Saturday, 3 February 2018

विदुला मैदान में “ स्थानापन्न “ : बनस्थली डायरी .

स्थानापन्न : विदुला मैदान में * बनस्थलीडायरी


कल फेसबुक मैत्री सन्देश देखते उषा तिवारी का नाम आया तो एक थोड़ी पुरानी बात याद आ गई आज भोर में उठकर सोच रहा हूं उसी बाबत पोस्ट लिखूं बी वी कालेज ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंस , यही नाम था काँलेज का उस जमाने में विश्वविद्यालय बनने से पहले . ब्रदर टीचर इंचार्ज हुआ करते थे खेलों के . सोफी टाइटस फिजिकल एजूकेशन की टीचर बनकर आई थीं और इस प्रकार मेरे विभाग याने पॉलिटिकल साइंस और फिजिकल एजूकेशन का नाता जुड़ गया था . ब्रदर के पास कागजात की फ़ाइल लेकर आते जाते मैं सोफी से भी मिला था और उन्हें जानता था . कालान्तर में विभाग की बढ़ोतरी हुई और नई प्राध्यापिकाएं भी आ गईं और यह भी एक बड़ा विभाग बन गया . इस विभाग ने पहले कई एक छोटे पैमाने के टूर्नामेंट करवाए और आगे चलकर विश्वविद्यालयों के भी खेल टूर्नामेंट करवाए . लेकिन इस विभाग से जुड़ाव ऐतिहासिक कारणों से जैसा ब्रदर * का था वह ब्रदर का ही था मेरा नहीं .


आज के लिए जो प्रसंग मैं उठा रहा हूं उसकी भूमिका मेरे घर 44 रवीन्द्र निवास से शुरू होती है . संभवतः ये वो दिन थे जब मेरा सेवाकाल समापन की ओर अग्रसर था . राशन पानी की दूकानें घर से दूर थीं , सामान सिट्टा लेकर जब मैं घर लौटा तो जीवन संगिनी का आदेश मिला कि शाम को मुझे विदुला मैदान जाना है . कोई दो युवा प्राध्यापिकाएं उनको मेरे बाबत कहकर आश्वासन ले गई हैं ऐसा मुझे बताया गया . उन दो में से एक शायद यही उषा रही होंगी , बाद के दिनों में इनके पति भी जब तब मेरी हाजिरी में खड़े हो जाते और बहुत मददगार रहे .

" सर आ जाएंगे ..क्या ? "

" जरूर आ जायेंगे , मैं उनको कह दूंगी !"

 यही तो भाव था उस सवाल जवाब का जिससे मेरी शाम को विदुला मैदान जाने की प्रतिबद्धता निर्धारित हो गई थी और मैं ब्रदर * का स्थानापन्न मान लिया गया था . मुझे शाम को विदुला मैदान जाना ही था . मैं वहां पहुंचा . अब मैं भी वो मैटीरियल बन गया था जो वक्त जरूरत " मुख्य अतिथि " बनाया जा सकता था . ये अंतर छात्रावास खेल टूर्नामेंट थे जिनका उदघाटन होना था और हंसी ख़ुशी के वातावरण में वह सब कुछ हुआ जो होता आया है . सभी युवा खिलाड़ी प्राध्यापिकाओं ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया विदुला मैदान में , मैंने वहां पहुंच कर पहली बात यही कही :

" मुझे तो आप सीधे कहकर वैसे ही बुलवा लेते , ऐसा जोर डलवाने की भला कहां जरूरत थी ? "

 मेरी आखिरी पंक्ति का अभिप्राय आप समझ गए होंगे .

आज के लिए इति .



बात का बहाना : बनस्थली  डायरी .

बात का बहाना : बनस्थली डायरी 

 हम लोगों में एक कहावत है , “म्हारा गणेश जी अने दूंदी बाई नै केम जई टूट्या ? “ ये एक व्रत कथा की परिणति से बनी कहावत है , आज बात उसी कहानी से शुरु करता हूं .


व्रत कथा :

 कथा इतनी सी है कि दूंदी बाई नाम की एक घरेलू सेविका घर में आते जाते दरवाजे पर गणेश जी को जल चढ़ाती , ध्याती , मनाती और घर में काम भी कर आती . समय की गति कुछ ऐसी हुई कि इस सेविका पर गणेश जी की कृपा हो गई और उसके घर में धन धान्य हो गए . गृह स्वामिनी ने जब सेविका से पूछा तो उसने इस वैभव के आने का कारण भी बता दिया जो था ‘ गणेश जी की कृपा .’

इस परिणति के कारण गृह स्वामिनी को जो कष्ट हुआ वही कहावत है :

“ म्हारा गणेश जी दूंदी बाई नै केम जैई टूट्या ?”

माने जो हमारे अधिकार क्षेत्र में है वो किसी और पर कृपालु क्यों होवे ? बस इत्ती सी बात है .

ये कथा तो कहावत बरतने को कही है अब एक पुरानी बात .

बनस्थली में पहला साल :

पहले साल में मैं फर्स्ट ईयर की क्लास भी पढ़ाता था उसका एक छोटा सा प्रसंग बताता हूं . एक लड़की क्लास के बाद मुझे रोककर कहने लगी कि उसने सब्जेक्ट बदल लिया है और मैं रजिस्टर में उसका नाम काट देवूं . मैंने मान ली बात . पर ये बात एक बार में पूरी नहीं हुई और उसके बाद भी एकाधिक बार ये लड़की मुझसे अलग से आकर मिली कभी नाम फिर से लिखवानें के लिए और कभी नाम फिर से कटवाने के लिए . सत्र की शुरुआत थी इस दौरान विषय चयन में रद्दोबदल हो सकता है पर उसकी भी एक प्रक्रिया होती है , कार्यालय में लिखकर देना होता है और दोनों विषयों के विभागाध्यक्ष की स्वीकृति से ही विषय बदला जा सकता है , खैर .मैं उस भोली लड़की की बात हर बार सुन लेता और ये सब क़ायदे क़ानून बताता पर ये सिलसिला जारी रहा .


एक दिन की बात :

 उस दिन तो हद हो गई . दोपहर भोजनावकाश के समय मैं इतिहास के विभागाध्यक्ष विद्यार्थी जी के साथ बात करते करते पगडंडी से घर की ओर जा रहा था कि ये लड़की बीच रास्ते में फिर आकर मिली . उसने मेरी विद्यार्थी जी से चल रही बात बीच में रुकवा दी और फिर उसी प्रसंग पर बात करने लगी विद्यार्थी जी भी दो मिनिट को खड़े रह गए और सुनते रहे हमारी बात .

जब बात पूरी हो गई और वो लड़की चली गई तो विद्यार्थी जी जो बोले वो महत्वपूर्ण है क्योंकि वो इस वार्तालाप के साक्षी जो थे . विद्यार्थी जी बोले :

उसको न तो नाम कटवाना है और न लिखवाना है , उसको तो तुमसे बात करनी है ….और तुम हो कि….।!”

लो कर लो बात ! इसी बात पर चस्पाँ है ये कहावत :

“ म्हारा गणेश जी अने दूँदी बाई नै केम जई टूट्या। ….? “





Friday, 2 February 2018

नई पोस्ट ?   ट्रिनिड़ाड़ तक पहुंची बात .

नई पोस्ट ? बनस्थलीडायरी 

" क्या सुमन्त भाई , आजकल कोई नई पोस्ट नहीं लिखते हो और पुरानी पोस्ट शेयर कर देते हो खाली ,क्या बात है ?"

अभी उस दिन स्नेह भट्ट ट्रिनिडाड , वैस्ट इंडीज से आई थीं और मुझसे पूछने लगी थी .

और मैं अपनी सफाई देने लगा कि नई पोस्ट लिखता तो हूं पर पुरानी भी साझा करता चलता हूं .

वो कहने लगी कि वहां जब रात के ग्यारह बजने लगते हैं और मैं सोने लगती हूं तो आप की पोस्ट आने का इंतज़ार करती हूं , पढ़के सोती हूं .

यहां उस समय मेरी सुबह होती है और मैं कुछ न कुछ मांडने लगता हूं . यही है समय चक्र ( समय का चक्कर ). 

मेरी स्थिति यह है कि मैं जबानी जमा खर्च तो बहुतेरा किए लेता हूं . मुझे खुद पता नहीं होता , पता नहीं रहता कि गोया ये बात फेसबुक स्टेटस के रूप में दर्ज हो गई या के नहीं ! और इस तरह कोई पहले से दर्ज बात फिर से सामने आती है कि ये तो दर्ज है तो भी लगता है कि फिर एक बार कही जाए बताई जाए . आखिर तब मेरे पांच सौ जानकार थे , अब हजार हैं वो भी तो देखें और परखें इस किस्से को .

ऐसे ही सोच के आज इस स्टेटस को फिर से साझा कर रहा हूं  बनस्थलीडायरी के अंतर्गत .

कित्ता बुरा लगा था एक लड़की को उससे जब दूसरी ने पूछ लिया था :

" जीजी , आप तो हिंदी डिपार्टमेंट में हैं ना ? "

क्या तो सवाल है और क्या आया जवाब , क्या नतीजा निकला ये ही है देखने वाली बात .

" आप तो हिंदी डिपार्टमेंट में हैं न जीजी ? "

बनस्थलीडायरी

ये सवाल तो कोई गैर वाजिब नहीं है पर सुनने वाली लड़की को बहुत बुरा लगा था उस दिन जब छात्रावास में एम ए फाइनाल में पढ़ने वाली से प्रीवियस की नई आई एक लड़की ने पूछ लिया था कि जीजी आप तो हिंदी डिपार्टमेंट में हैं ना . घटना श्री शांता विश्व नीड़म की थी और दोनों ही लड़कियां राजनीति शास्त्र विभाग की ही थीं , एक फाइनल में पढ़ने वाली दूसरी प्रीवियस में पढ़ने वाली .


सत्र की शुरुआत थी , छात्रावास में कई एक विभागों की लड़कियां साथ साथ रहा करती थीं , संकायों के हिसाब से कुछ छात्रावसों का बटवारा अवश्य था . घटना छात्रावास में हुई पर बात विभाग में भी आई . हिंदी विभाग में होना कोई अपमान नहीं था ये मैंने उस लड़की को समझाया जिसे सवाल बुरा लगा था . मुझसे भी नए लोग ऐसे सवाल कर बैठते थे मेरी हिंदी सुनकर . पॉलिटिकल साइंस वाले की एक स्टीरियोटाइप इमेज तब कुछ ऐसी थी कि बात बात में अंग्रेजी बोले , ढंग की हिंदी न बोल पाए . मुझे अब भी याद है एक दिन एक बुजुर्गवार मुझे ये बोल दिए थे :" अब तुम्हारी ये शुद्ध हिंदी तो रहने ही दो ." यहां यह भी बताता चलूं कि लड़की अपने से बड़ी लड़की और पढ़ाने वाली महिला को ' जीजी ' कहकर ही संबोधित किया करती थी , ये तब की बात है सत्तर के दशक की . जीजी शब्द के साथ पहचान के लिए विशेषण भी जुड़ जाया करते थे, जैसे बड़ी जीजी . खैर बात तो अभी कुछ और है .


बात असल में ये भी तो थी कि एक ही विभाग में होकर एक दूसरे को जानते नहीं . इसका एक समाधान मैंने सुझाया और मेरे वरिष्ठ साथियों ने पुष्टि की कि सत्र के शुरू में फाइनल क्लास की ओर से स्वागत की पार्टी हो तथा सत्र के आखीर में प्रीवियस क्लास की ओर से विदाई पार्टी हो , यह विभागीय स्तर पर हो . कॉलेज के लॉन में तब की पहली पार्टी मुझे आज तक याद है . तब तो यह परंपरा चल पड़ी थी .

समय कम है . आज के लिए इति .