Thursday, 28 June 2018

ऋषिकांत की बात : फ़ूफ़ाजी ढोक !

ऋषिकांत की बात : " फूफाजी ढोक ." 
       

चलते रस्ते बन गया किस्सा है  आज अगर समय ने अनुमति दी तो वही बताए देता हूं .

अब ये तो आए दिन का रंबाद है कि सुबह सुबह कोई किस्सा मांड न पावूं तो मैं अपनी कोई नई या पुरानी जैसी भी सूझे फोटो लगा देवूं और अभिवादन का क्रम शुरु हो जावे .
ऐसे ही गए दिनों एक फोटो मैंने प्रोफाइल पर टांग दी . इस पर आई टिप्पणियों में एक टिप्पणी ऋषिकांत की भी थी जिसे बचपन से ढब्बू कहते आए हैं   ढब्बू ने अपनी समझ से लिखा :

   " फूफा जी ढोक ."   

  फूफाजी ने आशीर्वाद भी दे दिया पर असल में  ढब्बू के लिखे में कुछ टाइप की गड़बड़ से या गफलत में हो गया था :

"  फूफाजी ठोक ! "

  बात   छूट भी जाती पर   टीप पर टीप देते हुए संदीप ने लिखा :

"   ठोक  नहीं  ' ढोक '  ."

  अब मेरा भी  ध्यान गया कि चाहे गफलत में ही सही ठोकने की बात आ गई है तो मैंने आगे सवाल दाग दिया :?

" किसको ठोकना है ऋषिकांत  बता ? फूफाजी तो ठोक देंगे . "
 
अब ऋषिकांत का तो ध्यान जाता सा जावे , इस बीच क्या हुआ बताता हूं . बात पर बात याद आई पिछली शताब्दी की  .

   कमला मेरी देखरेख में अपना एम् फिल डेसर्टेशन लिख रही थी .  उसके प्रबंध में ढाका का नाम बड़ा महत्वपूर्ण था  विषय के शीर्षक में भी और इबारत में भी पर वो जब भी कुछ लिखकर लाती ' ढाका '  को  ' ठाका '  ही लिखा होता और सुधारना पड़ता , आखिर में मैंने तो यह तय किया कि ये बात टाइपिस्ट को ही बता देवेंगे कि   " ठाका " नहीं  " ढाका " लिखा जाना है .
और इस प्रकार निभ गई बात  , हो गया कमला का शोध प्रबंध पूरा .
ये  पिछले जमाने की बनस्थली की बातें हैं जो बरबस याद आ जाती हैं .

 और एक बात कहने की 
************************
जाने ऐसा क्यों है कि अंग्रेजी की ए बी सी डी जिसको देखो याद होती है , छोटे छोटे बच्चों से ये वर्णमाला बुलवाकर मां बाप बड़े राजी होते हैं पर हिंदी की वर्णमाला में बड़े बच्चे भी चूक जाते हैं .
क्या तो करो आप अब जो वस्तुस्थिति है सो है . मुझे तो " जोशी बाबा " ने हिंदी / देवनागरी की वर्णमाला और बारहखड़ी पहले पहल सिखाई थी , रोमन अक्षर तो बहुत बाद में पहचानने लगा था . मैं उन जोशी बाबा को नमन करता हूँ  जिनका  सिखाया अक्षर ज्ञान आज दिन तक काम आ रहा है . यही अक्षर ज्ञान मैंने कमला का शोध प्रबन्ध  जांचते हुए दोहराया था .

कभी जोशी बाबा बाबत भी लिखूंगा , देखिएगा  जरूर .

😊 फिर ढब्बू की बात  
   *****************
   जब दो बार मैंने ये सवाल दाग दिया :

"  किसको ठोकना है ??? . "

    तो ऋषिकांत माने मेरा प्यारा ढब्बू हरकत में आया और उसने जो लिखा उसे मैं अल्टीमेट  कहूंगा   . उसने लिखा :

"  फूफाजी ! अपने आशीर्वाद रूपी डंडे से मुझे ठोक दो .! " 

   😊 अब अपनी बात 
       **************
  जाने क्यों  गए दिनों से ऐसे किसी को ठोक देने जैसे विचार मेरे मन में आ जाते हैं , ऐसा तो मैं नहीं हुआ करता था , पर अब ऋषि के इस " आशीर्वाद के डंडे " के विचार ने मुझे एक नई सूझ दी है  , अब किसी छोटे मोटे को ठोको तो आशीर्वाद के डंडे से ठोको . यही तो है अब अपने पास .

अब ये पोस्ट तो जाने लायक बन गई पर अभी ढब्बू की भूआ की इस पर स्वीकृति बाकी है .
तदर्थ पोस्ट जारी ..........
आशीर्वाद ऋषिकांत .

सुमन्त पंड्या .
Sumantpandya.
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
    बुधवार 29 जून 2016

Tuesday, 26 June 2018

नानगा द ग्रेट : स्मृतियों के चलचित्र ५.

नानगा द ग्रेट : पांचवी कड़ी .


   शंकर को देख कर आज भी मुझे नानगा की याद आ जाती है . मुझे बचपन से नानगा की जो छवि याद आती है उसमे सिर पर साफा , कानों में सोने की मुरकी , कमीज और धोती पहने हुए , पावों में देशी जूती याने पगरखी पहने हुए नानगा दर्ज है .

नानगा कभी क्लीन शेव्ड कभी दाढ़ी थोड़ी बढ़ी हुई , फिर एक आध दिन में संवार बनाकर तैयार नानगा .


शिव भक्त नानगा :

   नानगा के कमीज की बगल की जेब में घी में सनी हुई फूल बत्तियं एक डिबिया में रखी रहती थीं . इतनी भक्ति जाने वह कैसे सीख गया था कि घर के सामने चौराहे पर जो जंगजीत महादेव का मंदिर है सीढियां चढ़कर वो नियमित रूप से वहां जाता और एक दीया जलाकर आता .

उसी का मैं पुण्य प्रताप मानता हूं कि साक्षात शंकर ने उसके घर जन्म लिया . वरना तो उसके समुदाय में लड़कियों की तब कमी ही होती थी और जैसी पारिवारिक पृष्टभूमि थी उसका विवाह भी कैसे होता .


मुनीम साब :

 नानगा के साले थे मुनीम साब जिनका नाम तो वैसे नारायण था पर हम लोग उन्हें मुनीम साब ही कहते थे . वो छोटी चौपड़ के पास एक सर्राफा व्यापारी की दूकान पर मुनीम का काम करते थे . मुनीम साब कुछ मामलों में नानगा के वित्तीय सलाहकार भी थे और वैसे भी शेठाणी के भाई होने के नाते आत्मीय तो थे ही . पर यहां मैं एक और कारण से उनका उल्लेख कर रहा हूं जो आगे स्पष्ट होगा .


नानगा के सन्दर्भ में इस प्रसंग की प्रासंगिकता :

मुनीम साब के बड़े भाई अवधि पार जा रहे थे और उनका विवाह नहीं हो पा रहा था . जिस जगह विवाह की बात चली वहां बेटी के बाप ने एक बात रख दी कि बड़ी बहन का विवाह बड़े भाई से होवे तो छोटी बहन का विवाह छोटे भाई से भी होवे ही तभी यह रिश्ता मंजूर होगा . नतीजा ये कि मुनीम साब का विवाह गूंगी बहरी से हुआ था . खैर पर मुनीमाणी के साथ उनकी गृहस्थी भी सफल रही . इस लिए मैंने एक आध बार कहा कि भाग्य से नानगा का विवाह हो गया था . समुदाय में लड़कियों की तो शार्टेज ही थी .....

नानगा आया किस गांव से था ये तो मुझे अब पता नहीं पर इतना पता है कि सांगानेर के पास सुक्या गांव में उसका ससुराल था . कालान्तर में ये ही गांव सुखपुरिया कहलाया . नानगा ने शहर में कोई मकान जमीन जैसी चीज नहीं खरीदी . वो गांव का था उसने अपने ससुराल के गांव सुखपुरिया में जाकर अपनी खुरपी गाड़ दी और आप विशवास कीजिए नानगा के कारण शहर बस गया वहां . पर अभी ये लंबी कहानी है .


इसे समझने के लिए आपको नानगा का अर्थशास्त्र समझना पडेगा 


बहुत सी बाते बताने की हैं बहुत सी न बताने की भी .

ये क्रम जारी रहेगा.....

इस प्रसंग में आई सुभाष गुप्ता सांब की टिप्पणी भी यहां जोड़ता हूं  , जो इस प्रकार है :

" भाई साहब, यदि परिवार के वे सब जन जो श्री नानगा  जी के साथ बड़े हुए, यदि थोड़ा सहयोग करें तो एक उपन्यास की सामग्री हो जाएगी। बहुत ही रोचक और प्रेरणादायक उपन्यास होगा। "

इस आत्मीय टिप्पणी के लिए विशेष आभार Subhash Gupta  साब .

आज फिर से नानगा के दोनों बेटों - शंकर और कैलाश को मेरे आशीर्वाद .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

सुप्रभात :

सहयोग और सह अभिवादन : Manju Pandya


प्रेरणा :

Narendra Pandya

Himanshu Pandya

Mahima Pandya


सुमन्त

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया, बापू नगर , जयपुर .

30 जून 2015 .


संलग्न फ़ोटो नानगा के बड़े बेटे शंकर का .


नानगा द ग्रेट  : स्मृतियों के चलचित्र  ४.

नानगा द ग्रेट : चौथी कड़ी .       


   नानगा काकाजी अम्मा के पास आ गया था और हमारे घर में ही रहने लगा था . उसके लिए रोजगार की तलाश थी . वो ट्रांसपोर्ट कंपनी की नौकरी में जाने को कतई तैयार नहीं था . उसे चंद्र महलों में बेलदार का काम मिला था और अब वह नानगा से नानगराम बन गया था . भाग्य से उसका विवाह भी हो गया था . पड़ोस में राय जी परिवार के घर में नानगा और उसकी बहू गलकू के लिए अलग रहने को एक कमरा किराए पर भी ले लिया गया था . इस नए जोड़े की तब अपनी कोई गृहस्थी नहीं थी . दिन में नानगा अपना काम करने चला जाता और उसकी बहू गलकू , जो हमारे घर में शेठाणी ( सेठाणी का गुजरातीं में उच्चारण ) कहलाई , हम बच्चों की गवर्नेस बन जाती . तब मुझे स्कूल भेजने को शेठाणी ही तैयार किया करती थी ये मुझे अच्छी तरह याद है .

अम्मा की गोद में तो तब छोटा भाई विनोद हुआ करता था , अब उसे देखकर कौन कहेगा कि वो मुझसे चार साल छोटा है . विनोद की स्कूलिंग थोड़ी देर से ही शुरु हुई , वो जब पैदल चलने लगा तो शेठाणी उसे हमारे ही परले घर तक डोलाने ले जाती ये भी मुझे याद है .

मैं इसे बहुत नॉस्टेलजिया से याद करता हूं कि मेरा हेयर स्टाइल उस समय शेठाणी ने ही सैट किया जो आज दिन तक कायम है . मेरे पास प्राइमरी स्कूल के समय की अपनी एक फोटो है , अगर वो ढूंढें से मिल गई तो प्रमाण स्वरूप यहां साझा करूंगा .

नानगा तामीर के काम में बेलदार के रूप में हाथ बंटाता था पर उसका सूक्ष्म निरीक्षण बड़ा जबरदस्त था , वो चीजों को जितना बारीकी से समझता था वो समझ किसी सिविल इंजीनीयर से कम न थी . 


नानगा शाम को अपना काम करके आता और तब शामको वो दोनों राय जी के घर में रहने चले जाते वो समय भी , मेरा बचपन का समय , मुझे याद है .

इस मजदूरी के काम में नानगा को बहुत मेहनत करनी पड़ती थी पर वो मेहनत से जी चुराने वाला नहीं था . वो सभी कुटुम्बी जनों में अपनी सेवा परायणता के लिए जाना जाता था . बाबा याने पंडित श्याम सुन्दर जी के बंगले पर सर्दी आने पर एक प्रकार के बिस्तर दुछत्ती से उतारने और सर्दी जाने पर वहीँ बिस्तर बांधकर ऊपर रखने के लिए नानगा ही बुलाया जाता और उसके लिए तब यह कहा जाता कि वो किसी जिंद की तरह काम में लग पड़ता है और काम निबटाकर ही दम लेता है .

यहां एक टिप्पणी तब के जीवन और सभ्यता के बारे में करता चलूं , तब शाम को बिस्तर बिछाए जाते थे और अनिवार्य रूप से सुबह बिस्तर समेटे जाते थे .आज की सभ्यता में तो बैड रूम का कांसेप्ट आ गया जहां बिस्तर बिछे ही रहना सभ्यता का अनिवार्य अंग है .

बिस्तर समेटने का भी नानगा का ख़ास स्टाइल था जिसको जीवन संगिनी मेरे पोस्ट बनाते हुए याद कर रही है . शायद वे इस बाबत कोई टिप्पणी करें इस लिए इस प्रसंग को यहां स्थगित करता हूं .

बेलदारी के काम में नानगा को मेहनत बहुत थी . काकाजी और अम्मा दोनों चाहते थे कि उसे कोई बेहतर रोजगार मिले और वो उसे मिला जब एक चपसरासी की पोस्ट जयपुर महाराजा के हिज हाइनेस हाउसहोल्ड में खाली हुई . नानगा वहां साइकिल सवार बना और इस नाते उसे कुछ अलाउंस भी मिला वेतन के अतिरिक्त .

हमारे घर से नानगा और शेठाणी वैसे ही जुड़े रहे .

क्रम आगे जारी रहेगा .........

प्रातःकालीन सभा स्थगित .


सुप्रभात .

सह अभिवादन और सहयोग :

Manju Pandya

विशेष सहयोग : Himanshu Pandya

नागगा बाबत एक टिप्पणी भाई साब  ने लिखी थी वो भी यहां जोड़ता हूं :

" सुमन्त नानगा शादी के बाद रायजी के मकान से पहले किशन पोल बाज़ार के आकडों के रास्ते में आकड़ एंड कंपनी नामक दूकान के मालिक के मकान में रहने लगा था वे सेठ यानी व्यापारी बनिए थे इसीलिये सभी ने नानगा को भी सेठ और उसकी पत्नी को सेठानी का संबोधन शुरू कियाथा ,कभी कभी मैं जब सोकर उठने में आनाकानी करता तो वह मुझे भी भी बिस्तर के बीच मे फोल्ड करने का नाटक करता और मजाक करता और फिर कहता दादा थे सो रह्या छा काई मने तो दीख्या ही कोने,मकर संक्रांति केदिन नानगा सवेरे सवेरे अँधेरे में ही आजाता और नीचे से जोर से चिल्लाता "वोआयो' और हमलोग सोये से उठकर पतंग पकड़ने दौड़ पड़ते तब काकाजी और अम्मा कहते अभी तो अँधेरा है अभी कहाँ पतंग है ?ये तो नानगा की मजाक है।नानगा के अनेक प्रसंग हैं पर अब तो केवल मीठी और साथ ही दर्द भरी यादे और कसक है।"

सुमन्त पंड्या .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

29 जून 2015 .


ये फ़ोटो है नानगा के बड़े बेटे शंकर की ।

Monday, 25 June 2018

नानगा द ग्रेट : स्मृतियों के चलचित्र ३.

नानगा द ग्रेट : तीसरी कड़ी .

नानगा बाबत दो पोस्ट लिख चुका हूं , उसी कड़ी में ये तीसरी पोस्ट है पर शीर्षक थोड़ा सा बदला हुआ है . नानगा कोई मामूली आदमी नहीं था वो विलक्षण था और उसके अपने जीवन मूल्य थे जिनसे उसने कभी समझोता  नहीं किया . समय के साथ उसके जीवन में बदलाव आया और बच्चों के लिए वो ऐसी विरासत छोड़ गया जिसका उसकी बचपन की कहानी से तालमेल दूसरों के लिए तो समझना भी मुश्किल होगा .

शंकर :
-------     उस दिन शंकर आया , मैं उसे छोड़ने को बाहर गया तो बड़ा स्वाभाविक प्रश्न कर बैठा :
" मोटर कोडै छै थारी?"
मतलब तेरी मोटर कहां है .
और शंकर फाटक बंद कर पैदल जाने लगा मुझे बताया कि वो पैदल ही आया है और घर जाने के लिए सिटी बस पकड़ेगा . हाथ में एक ऐसा ही थैला था उसके पास जैसा मुठ्ठी में लटकने वाला थैला लेकर ग्रामीण और कस्बाई लोग चला करते हैं . आ गई मेरे  समझ में बात कि आखिर तो नानगा का बेटा है , डाउन टू अर्थ . वरना तो महाराज , जो अकूत सम्पदा का मालिक हो वो जमीन पे पांव ना धरे . कैसे बन गई ये सम्पदा इसी की कहानी जुड़ेगी नानगा के जीवन की अगली बातों से . अभी तो फिर वही नानगा के बचपन की बात .

नानगा काकाजी अम्मा के पास :
----------------------------------   नानगा , एक अनाथ लड़का काकाजी अम्मा के पास रहने तो आ गया पर उसके लिए किसी बेहतर रोजगार की तलाश तो थी ही . उसे किसी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम मिल गया और ये तय हो गया कि वो माल लाने ले जाने वाले ट्रक के साथ जाएगा जहां उसे लगा बंधा वेतन भी मिलेगा .
जब अगले दिन उसे काम पर जाना था पहले दिन सुबह से नानगा दीवार में मुंह छुपाकर बार बार रोने लगा . काकाजी ने उससे इस रोने की वजह पूछी तो बोला :

" मैं म्हारा मा बाप नै छोड़ अर कौने  जा सकूं ."
मैं अपने मा बाप को छोड़कर नहीं जा सकता .
वहीँ नौकरी में जाने का विचार तत्काल रद्द हो गया . काकाजी बोले :

"तनै कुण खै छै जाबा बेई ?"
अर्थात ,  तुझे जाने को कौन कहता है ?

और काकाजी ने उसे आश्वस्त किया कि वो उसे कुछ और रुपये प्रतिमाह दे दिया करेंगे उसे अपना घर छोड़कर कहीं जाने की जरूरत नहीं है . उसने जयपुर में ही रहकर काम भी किया . राज्य सरकार की नौकरी में रहकर काकाजी का अलबत्ता तबादला हुआ पर नानगा ही रहा हमारे घर का केयर टेकर  उस दौरान भी .

घर से बाहर पहला काम : नानगा से नानगराम .
________________________________नानगा
का भाग्य से विवाह भी हो गया और वो अपने लिए यहीं कोई रोजगार चाहता था . उन दिनों चन्द्रमहल (सिटी पैलेस) में लगातार तामीर और मरम्मत का काम चलता रहता था , नानगा को वहां ' चमाळया' ( बेलदार) का काम मिल गया .
नियुक्ति के समय काकाजी ने ही उसे ' नानग राम ' नाम दिया जो दर्ज किया गया . काकाजी का नाम ' मुकुंद राम ' था .
काकाजी और नानगा के नाम में एक लय थी , वैसी ही लय उनके सोच में भी थी , जो बात आगे आएगी ही .....
आज के लिए इतना ही ....
प्रातःकालीन सभा स्थगित .

सुप्रभात .
सह अभिवादन : Manju Pandya

सुमन्त पंड्या .
गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर जयपुर
27 जून 2015 .
नोट : मेरे साथ फोटो नानगा  की नहीं शंकर की है .


नानगा द ग्रेट  : स्मृतियों के चलचित्र  २.

मेरा नानगा याने नानग राम : भाग दो .


नानगा का जयपुर आना 

 नानगा अपनी मौसी के साथ जयपुर आया था किसी आश्रय की तलाश में . नानगा की मौसी हमारे घर में माई के नाम से जानी जाती थी , मैंने भी उस माई को देखा था जो नानगा को जयपुर लेकर आई थी . माई का दूसरा नाम ' भोमा की माँ ' था , भोमा भी पहले से जयपुर में रहता था और काम करता था . ये उस जमाने की बात है जब हमारे वृहत्तर संयुक्त परिवार में पांच पीढियां लगभग साथ साथ रहा करती थी . हमारे कुटुंब के शहर में दो मकान थे एक नाहर गढ़ की सड़क पर लाल हाथियों के मंदिर के सामने और दूसरा जंगजीत महादेव के मंदिर के सामने . शहर याने परकोटे के बाहर बस्ती बसने का दौर भी अभी शुरू होने जा रहा था .


जयपुर क्यों आ गया नानगा ?

- बचपन में ही इसके पिता की मृत्यु हो गई थी और मां नातै चली गई थी ( उसका दूसरा विवाह हो गया था.) मां के दूसरे परिवार में इस बच्चे के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता था और इसी लिए ये मौसी के साथ जयपुर आ गया था .

अपनी मां के इस नए परिवार से भी नानगा के संपर्क तो रहे होंगे , मैंने नानगा की मां तो कभी नहीं देखी पर इसका एक छोटा भाई राम चंदर यदा कदा जयपुर आता तो इसके पास ही ठहरता था , ये तो बहुत बाद की बात है जब नानगा राय जी के घर में नीचे की मंजिल के एक कमरे में रहने लगा था . अभी तो नानगा के हमारे घर में आकर रहने की बात है जो मैं बताने चला हूं .

दयावान मौसी जब नानगा को जयपुर ले आई तो उसके लिए किसी ऐसे परिवार की तलाश थी जो इस अनाथ बच्चे को आश्रय देवे और ये श्रेय मिला काकाजी और अम्मा ( हमारे माता पिता ) को. उन्होंने इसे अपने घर में रखा . भोजन और आवास के अतिरिक्त कुछ छोटी सी राशि वे इसे देने लगे . घर को झाड़ना बुहारना शाम को बिस्तर बिछाना और सुबह बिस्तर उठाना ये नानगा का नियमित काम होता था . मैंने तो जब होश संभाला तब से नानगा को ये काम करते देखा था . वो जब हमारे घर में आया था तब तो हम भाइयों में से किसी का जन्म भी नहीं हुआ था . काकाजी अम्मा और एक बेटी ( हमारी जीजी) जो अब अस्सी पार हैं और कल रात उन्होंने नानगा को बहुत याद किया और मुझे फोन पर बहुत बातें बताईं , ये ही छोटा सा परिवार था .

नानगा को रहने को घर मिल गया था और मानों काकाजी अम्मा को बेटा मिल गया था .

मुझे बचपन की शहर की गर्मियां बहुत याद आती हैं जब नानगा शाम पड़े छत पर बिस्तर बिछा दिया करता था और मैं तो शायद परिवार का सबसे पहला सदस्य होता था जो वहां जाकर सो जाता था .

बेहतर रोज़गार के लिए नानगा को घर से जाने की नौबत आई तो क्या हुआ यह भी बड़ी मार्मिक कहानी है जो आगे आएगी ही.

नानगा के नानगराम बनने की बात भी बताऊंगा पर अभी इतना ही ...

........

सायंकालीन सभा अधूरे एजेंडा पर स्थगित .

सह अभिवादन :

Manju Pandya


सुमन्त पंड्या .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

25 जून 2015 .


Sunday, 24 June 2018

नानगा द ग्रेट : स्मृतियों के चलचित्र .१

मेरा नानगा याने नानगराम :   
----------------------------  मेरे बचपन की यादों से जुड़े  हुए प्रिय पात्रों में से एक है नानगा . उसे गृह सेवक कहना तो बहुत कम आंकना  होगा वो तो हमारे परिवार का सदस्य ही था और आजीवन वही रहा . वह पूरी तरह साक्षर भी नहीं था पर विलक्षण थी उसकी बुद्धि  और विट के मामले में उसका कोई सानी नहीं हो सकता था .
काकाजी * के जाने के बाद वो पूरे एक वर्ष भी जीवित न रहा , उन्नीस सौ अस्सी में तो उसका स्वर्गवास ही हो गया . हमारे घर में आने जाने वाले  किसी व्यक्ति ने उसके लिए शायद सही ही कहा कि इस घर में तो वो काकाजी की सेवा करने को ही आया था , वो भी उनके पीछे पीछे चला गया .
मेरे अपने लोग प्रायः सुझाव देते है कि मैं किस बाबत पोस्ट लिखूं , लोकेश का ये सुझाव कई दिन से पेंडिंग है कि  नानगा के बारे में लिखा जाना चाहिए . पर मैं भी क्या करूं , इन प्रसंगों को याद कर मैं रोने लगता हूं और लिखना करना मुश्किल हो जाता है .
पिछले दिनों नानगा का बड़ा बेटा शंकर यहां आया तो वो ही पुरानी यादें ताजा हो गईं . नानगा तो एक ऐसे समय में चला गया कि उसका चित्र मेरी यादों में ही है  फोटो कोई  उपलब्ध नहीं है . जीवन संगिनी ने शंकर का फोटो लिया अपने मोबाइल के कैमरे से .
नानगा शिव भक्त था और तदनुरूप ही उसके दोनों बेटों के नाम हैं - शंकर और कैलास . शंकर को अगर फैंटा पहना दो और एक चश्मा पहना दो तो हू ब हू नानगा लगेगा . इसी लिए शंकर का फोटो इस पोस्ट के साथ जोड़ने का प्रयास  करूंगा .
नानगा के बारे में मैं आसानी से बात पूरी नहीं कर पाऊंगा . मेरे भाई बहन इसमें बहुत बातें जोड़ पाएंगे . कैसे नानगा यहां हमारे घर में आया और उसके जीविकोपार्जन घर परिवार  की एक लंबी कहानी है . कोई भी समझदार व्यक्ति उसके जीवन और कृतित्व से शिक्षा ग्रहण कर सकता है , ऐसा रहा नानगा का जीवन .
आज की पोस्ट अधूरी तो कही जाएगी पर मैं मजबूर हूं .
शंकर और कैलास को उनके भरे पूरे परिवार को आशीर्वाद .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
( क्रम जारी रहेगा.....)
* काकाजी हमारे पिता श्री मुकुंद राम पंड्या .

मेरी प्रेरक : Manju Pandya
सुप्रभात .

सुमन्त पंड्या .
Sumant Pandya .
गुलमोहर, शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
24 जून 2015.


Saturday, 9 June 2018

धापी बाई मार्ग की कहानी


गए दिनों बनीपार्क बार बार जाना   हुआ ।एक मार्ग पर पत्थर पर लिखा देखकर मैं थोड़ी देर के लिए ठहर गया , लिखा था ' धापी बाई मार्ग ' ।  मुझे एक पुराना प्रसंग याद आ गया । मुझे हरि भाई ने बताया था कि शर्मा जी बनस्थली फ्लाइंग क्लब से रिटायर होकर जयपुर में बसने जा रहे थे । बनी पार्क में अपने प्लाट पर उन्होंने मकान बनाया । बस्ती धीरे धीरे बढ़ रही थी । गली की संख्या और प्लाट नंबर से घर की पहचान थी ।इस बीच उनकी मा गुज़र गयी । अपनी मा की याद को जीवित रखने के लिए वे एक तख्ती बनवा कर लाये जिस पर लिखा था -  धापी बाई मार्ग * । शर्मा जी ने तख्ती को अपनी गली के मोड़ पर गाड़ दिया और इसे * धापी बाई मार्ग* के रूप में प्रशस्त कर दिया ।
अब वे अपने डाक के पते में भी धापी बाई मार्ग  लिखने लगे । वहां आकर बसने वाले अन्य लोग भी अपने पते के रूप में ' धापी बाई मार्ग , बनी पार्क , जयपुर ' लिखने लगे । पोस्टमैन भी इस मार्ग को धापी बाई मार्ग के रूप में जानने लगा  और बढ़िया ये रहा कि नगरपालिका में भी यह धापी बाई मार्ग के रूप में दर्ज हो गया ।
यही है ' धापी बाई मार्ग ' के नामकरण की कथा । इस मार्ग के आरम्भ में पत्थर पर शर्मा जी की माँ का नाम उकेरा गया है ।

इस कहानी को ब्लॉग पर होना चाहिए ये सोचकर प्रकाशित किए देता हूं ।
अगले एडिट में इस मार्ग का फ़ोटो और इस बाबत आई टिप्पणियों को भी जोडूंग़ा ।

Friday, 8 June 2018

आय एम लॉस्ट : फ़ेसबुक लीला 

दिल्ली से सुप्रभात 

नमस्कार 🙏

कुल जमा छह बरस पहले बच्चों से कह सुनकर अपना फेसबुक खाता खुलवाया था और तब अपनी फोटो लिवाई थी और जुड़वाई थी वही आज फिर से प्रकाशित किए दे रहा हूं । मनोदशा वहां लिखी हुई है कैना मैं खो गया हूं और मुझे लिवा ले चलो । तब से अब में कई खट्टे मीठे अनुभव हुए । अब भी मेरा तकिया कलाम है -

" अभी तो हम हैं "

९ जून २०१८.



जयपुर डायरी : बड़े आदमी - राहुल के ताऊ .

बड़े आदमी - राहुल के ताऊ ।

पिछली शताब्दी के अन्त में हम लोग जयपुर के बापूनगर में आकर रहने लगे । जनता स्टोर डेरी पर आना जाना शुरु हुआ । डेरी वाले राहुल से छोटे भाई के बेटों ने मुझे मिलवाया ," ये हमारे ताउजी हैं ।"  राहुल भी मुझे ताउजी  कहने  लगा । पत्नी को वो ताईजी कहने लगा ।हमारे डेरी पर जाने पर राहुल बड़ा खुश होता ।एक दिन एक ग्राहक ने राहुल से पूछा ,' इनको तूने ताउजी बना रक्खा है ?' "हैं ही ताउजी ", राहुल बोला ।मैं राहुल का ही नहीं डेरी वाले सब लोगों का  ताउजी बन गया था । एक दिन राहुल के भाई राजू ने पूछा ' ताऊ जी आजकल आते नहीं हो ?'  'सुबह तो आया ही था ' मैं बोला । 'हमें भी सेवा का मौका दीजिये ' वो बोला ।

अब मैं जब भी डेरी पर जाता कहकर आता ,' बता देना ताऊ जी आये थे ।'

आस पास के दूकानदारों को भी मैं कहता ,'मैं राहुल का ताऊ हूँ ।' मेरी नयी पहचान बन गयी थी । अब मैं राहुल का ताऊ था ।

एक दिन राहुल तो नहीं था राजू भी नहीं था लेकिन एक वय प्राप्त व्यक्ति डेरी के काउंटर पर बैठा था । मैंने आदतन उसे भी कह दिया 'मैं राहुल का ताऊ हूँ ।'

"सीधी बात  करो न स़ाब , आप  मेरे बड़े भाई हो ।"

वह बोला ।
ब्लॉग पर सचित्र प्रकाशन

Tuesday, 5 June 2018

गोरा गोरा पप्पू : मीरां के साथ .

कल शाम मीरां को " गोरा गोरा पप्पू "  वाला गाना सुनाया था । गाने के ठीक पहले मीरां हमारे साथ नानी की गोद में ।
@  दिल्ली ६ जून २०१८.

बनस्थली डायरी : बिन बात की बात .

" गुस्सा आता है प्यार आता है ,
            गैर के घर से यार आता है . "
          --------------------
    

    गए बरस की पोस्ट है  , मजबूरी में दोहराता हूं ,
     -- सुमन्त पंड्या .
      @ गुलमोहर
       6 जून 2016 .
   *******
 
फिर बनस्थली की याद : बिना बात की बात .
______________________________  
आज अचानक बहुत दिनों पहले की बात याद हो आई .
उस दिन मैं 44 रवीन्द्र निवास और 45 रवीन्द्र निवास के बीच के  चौक जैसे स्थान में परिवार और साथियों के साथ बैठा हुआ था और बातों में लगा  था रात घिर आई थी और बातें जारी थीं .
इतना सा वहां का स्थानीय राजनीतिक सन्दर्भ  जोड़ना यहां उचित होगा कि उन दिनों मैंने कर्मचारियों की  कोऑपरेटिव सोसाइटी ओढ़ रखी थी , मैं उसका अध्यक्ष बना हुआ था .
अचानक लेखानुभाग वाले गुप्ता जी एक और साथी के साथ  दक्षिण दिशा से आए और पास आने पर ही पहचान में आए क्योंकि अंधेरा था उस बखत . आते पहले बरसने लगे और जितनी देर वहां रहे बरसते ही रहे . मामला कोई सोसाइटी का ही था जिसकी तफ़सील  मुझे याद भी नहीं और तब भी उसके कोई मायने नहीं थे . उन्हें बरसना था और वो बरसे मैं लगातार केवल सुनता रहा और इस बात का अवसर देता रहा कि वो अपनी बात खुलकर कह लें . जब वो कह चुके तो मैं बोला," ठीक ". और वो चले गए .
गुप्ता साब के जाने के बाद साथ बैठे साथियों ने पूछा :

" सुमन्त जी आपको गुस्सा नहीं आता ?"

मैंने ऐसी ही कुछ बात कही उस समय :

" ..बचपन में बहुत आता था , अब नहीं आता , और ये भी है कि ऐसे पंचायती काम ओढ़ने पर इस तरह की स्थितियां आती ही हैं इनको झेलें यही जरूरी है ."
और वो घड़ी टल गई , कोई झगड़ा टंटा नहीं हुआ , जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए गुप्ता साब . मेरे लिए बात आई गई हो गई .
आगे जीवन की गाड़ी उसी प्रकार चलती रही जिसमें घर परिवार , पढ़ाने का काम और सोसाइटी की जिम्मेवारी साथ साथ चले .

एक दिन की बात : गुप्ता जी का बुलावा आया :
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उन्ही गुप्ता जी का बेटा मेरे लिए सन्देश लेकर आया कि जयपुर से कोई सज्जन आए हैं , गुप्ता जी के घर बैठे हैं और मुझ से मिलना चाहते हैं .
जाने पर उनसे साक्षात्कार हुआ और वो निकले राजस्थान विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के डाक्टर हुकुमचंद  गुप्ता जो एक ही बिरादरी के होने के नाते कोई रिश्तेदारी की बात चलाने वहां आए थे और लेखानुभाग वाले गुप्ता जी उन्हें अपने घर लिवा ले गए थे .  उनके घर जाते हुए मेरे घर के बाहर नाम पढ़कर डाक्टर गुप्ता साब ने  पूर्व परिचय के आधार पर मुझसे मिलने की इच्छा प्रकट की तो भी बनस्थली वाले  उन्हें यह कहते हुए लिवा ले गए कि इनको भी अपने यहां ही बुला लेंगे  , उस समय प्राथमिकता और काम की थी . यही करके बेटा बुलाने आया था और मैं वहां गया था .
मेरे ऊपर आगंतुक डाक्टर गुप्ता साब का अपार स्नेह था और अपना विद्यार्थी वहां पाकर वो बहुत खुश थे पर उनके सामने जो कुछ बनस्थली वाले गुप्ता जी बोले वो था आश्चर्यजनक तो .
वो बोले :
" साब इनको पढ़ाना आता है .  .... एक दिन इनसे लड़कियों ने कहा सर आज हम नहीं पढ़ेंगे .....तो इन्होंने भी कह दिया मैं भी आज नहीं पढ़ाऊंगा , अपन तो आज केवल बात करेंगे और ये उन्हें क्लास में ले गए , लड़कियों को तो साब पता भी नहीं चला कि कब बातों बातों में उनकी पढ़ाई शुरु हो गई और ये उन्हें पढ़ाकर ही आए ."
डाक्टर गुप्ता के लिए तो यह सब सुनना सुखद था ही मेरे लिए आश्चर्यजनक भी था और सुखद भी क्योंकि बात कहां से कहां पहुंच गई थी .
मैं सोच रहा था , क्या ये वही व्यक्ति हैं जो उस रात कैसे बरसे थे , बोलो ये तो मुझे कितना चाहते और सराहते  हैं .
बनस्थली के अच्छे दिनों को याद करते हुए
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
समीक्षा :    Manju Pandyadya
#sumantpandya
सुप्रभात.
सुमन्त
गुलमोहर ,  शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
6 जून 2015 .

Sunday, 3 June 2018

गोआ से लाई कमीज का खटका ।

https://photos.app.goo.gl/YOiHIwOknK8sAFPg1

गए नहीं आप ?  : भिवाड़ी डायरी .

" गए नहीं आप ?"


है न अजीब सवाल , पर इसमें भी प्यार छुपा है ये बात ज़रा देर से समझ आई मुझे जब एक हम उम्र दोस्त ने पिछली बार मुझसे ये सवाल मिलते ही पूछ लिया था । डबका तो ये ये हुआ कि ये मुझे यहां से रवाना कर देने को बेताब है । पर असलियत ये थी कि उनको मुझसे लगाव था और उनको बात चलाना ऐसे ही आता था । फिर मैं कैफ़ियत देने लगा कि आपको निराश नहीं करूंग़ा , कल यहां एक कार्यक्रम में भाग लूंग़ और परसों जरूर चला जावूँगा । 

आजकल देश में माहौल भी कुछ ऐसा है कि छोरे छापरे ही मुझे कहीं और जाकर देख लेने की सलाह दे देते है . सब उनकी समझ का फेर मैं उनसे आगे अटकता नहीं केवल भविष्य के लिए एक कहावत याद आ जाती है :

" समझा तो समझा पर तूम्बी फोड़कर समझा ।"

अब आया हूं यहां आगे जाने के लिए , अभी हाल यहां से राम रामी 🙏