Saturday, 2 April 2016

हीरा मोती की कहानी :😊 बातें बनस्थलीडायरी की .

आज थोड़े प्रयास से खोज कर लाया हूं अपनी पिछले बरस की एक पोस्ट और उसे ब्लॉग पर अंकित करने जा रहा हूं . आशा है आपको पसंद आएगी " हीरा मोती की कहानी " ☺

हीरा और मोती की कहानी : बातें बनस्थली की .

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मेरी स्मृतियों के चलचित्र में आज यह अध्याय खुल रहा है तो आज यही सही . यही किस्सा आज सुनाता हूं . जिन्होंने लंबे अरसे बनस्थली में जीवन  बिताया उन्हें ये अपना सा लगेगा . जो आज के आये हैं बनस्थली में वो आगे न पढ़ें इस पोस्ट को और कुछ और चीज देखें .

एक दृश्य : कौतुक प्रश्न ?

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" ये सुरेन्द्र शर्मा जी पंड्या जी को ' जीजाजी' क्यों कह रहे थे ? "

अरविन्द निवास के बाहर , लगभग हैण्ड पम्प के पास लगे शामियाने में किसी विवाह समारोह के रिसेप्शन में मैं तो पीछे की पंक्ति में बैठा था  और जगदीश जी भाई साब , केंद्रीय कार्यालय वाले , श्याम जी से ये सवाल पूछ रहे थे . अब पूछा  उन्होंने श्याम जी से था तो देवें जवाब श्याम जी ही मैं काहे को बीच में बोलूं कर के चुप रहा .

क्यों नौबत आई इस सवाल की  ?

वो भी बताता हूं . ज्यों ही सुरेन्द्र शर्मा जी को वहां मैं आया दिखा , लपक कर आए और ' जीजा श्री ' कहकर मुझे अतिरिक्त सम्मान दिया . समारोह के दौरान लगातार मेरे ही साथ रहे . सवाल श्याम जी से था तो उन्होंने भी बाद में इस रिश्तेदारी का इतिहास जानना चाहा था और मैंने बताया ही था सब कुछ . आज वो ही बातें फिर छेड़ता हूं .

बनस्थली में पाए जाने वाले सम्बोधन :

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जीजाजी, फूफाजी सरीके सम्बोधन वहां बहुत प्रचलित हुआ करते थे . ये वैवाहिक संबंधों से  अर्जित सम्बोधन थे जो नसीब वालों को प्राप्त होते थे , बहर हाल काकाजी सिर्फ एक हुआ करते थे जिनकी बेटी सुकेश जी अभी भी बनस्थली में हैं , उनपर तो अलग से पोस्ट लिखूंगा , अभी वो बात यहीं रोकता हूं .

ब्रदर एस बी माथुर साब को चन्दा जी सब्जी वाले हमेशा ' जीजाजी' कहते और नील कान्त हमेशा ' फूफाजी '. ये  सब आत्मीयता दर्शाने वाले सम्बन्ध हुआ करते थे .

पर मेरा ये रिश्ता कुछ पहेली सा था और इसी लिए तो जगदीश जी भाई साब उस दिन पूछ ही बैठे थे और इस लिए श्याम जी मुझसे पूछ रहे थे .

मेरी पहली प्रतिक्रिया तो यही थी :

" .....अरे श्याम जी ये साले किस काम के हैं , निहाल तो कुछ करने के नहीं , इतना जरूर हैं कि होली पर मेरी दुर्गत कर जाते हैं ."

खैर .......

अब सुनिए बात सुरेन्द्र शर्मा जी की जुबानी  :

उन्होंने अपनी होड़ में ओम प्रयाश शर्मा को भी बुला लिया और बताने लगे  श्याम जी को :

" अजी हम तो इनके हीरा मोती हैं , मैं हीरा और ये मोती . और ये हैं हमारे जीजाश्री '

ये करके वो श्याम जी को हमारा आपसी रिश्ता समझाने लगे . श्याम जी को ये रिश्ता समझकर जगदीश जी भाई साब को बताना जो था .

अब सुनिए मेरा पक्ष . मैंने दोनों को वहीँ खड़े खड़े समझाया :

" आप दोनों की जीवन संगिनियां बनस्थली में कार्यरत हैं . तिस पर इनमें बड़ी मुक्ति जी तो यहीं पली बड़ी हैं , बनस्थली की बेटी हैं . आप दोनों को मैं बहनोई का दर्जा देने को तैयार हूं , काहे अपने को मेरे ' साले ' सिद्ध करने को मरे जा रहे हो? "

तिस पर सुरेन्द्र  शर्माजी ने क्या कहकर मुझे निरुत्तर किया :

" जीजाश्री , हम दोनों  को उन बुजुर्गवार ने तब पढ़ाया था जब आपकी शादी की तो कोई बात भी नहीं थी और इस प्रकार आप ही हमारे जीजाश्री  रहोगे . "

ओम प्रकाश शर्मा की तो मैं कच्ची कौड़ी मानता था , पर सुरेन्द्र शर्मा जी के कारण मुझे वहीँ के वहीँ ससुराल मिला और बच्चों को ननिहाल .

जीवन संगिनी का तो मैका बहुत मजबूत है ही .

अतिरिक्त स्पष्टीकरण :

मेरे सालार जंग सुरेन्द्र शर्मा जी को कोई उस  सुरेन्द्र शर्मा से तौलने की भूल न करे जो " चार लैणा " सुनाया करता है , ये उससे इकीस ही हैं .

पर ये बात आज  अधपरी ही छोड़ता हूं .....आगे करूंगा किसी तरह पूरी .

बनस्थली की मधुर स्मृतियों के साथ ....

और साथ ही

अलवर की मधुर स्मृतियों के साथ ...

प्रातःकालीन सभास्थगित .

इति .

वृत्तांत समीक्षा :

सुमन्त .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

24 मई 2015 .

सायंकालीन टिपण्णी :

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ये पोस्ट मैंने सुबह अपनी दीवार पर लगाने के लिए बनाई थी , वहां इसको लगा भी दिया  और उसके बाद फुरसत ही नहीं मिल पाई .

इसे उसी रूप में बनस्थली परिवार से अब साझा कर रहा हूं .

शुभ रात्रि .

Good night.

सुमन्त .

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