आज थोड़े प्रयास से खोज कर लाया हूं अपनी पिछले बरस की एक पोस्ट और उसे ब्लॉग पर अंकित करने जा रहा हूं . आशा है आपको पसंद आएगी " हीरा मोती की कहानी " ☺
हीरा और मोती की कहानी : बातें बनस्थली की .
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मेरी स्मृतियों के चलचित्र में आज यह अध्याय खुल रहा है तो आज यही सही . यही किस्सा आज सुनाता हूं . जिन्होंने लंबे अरसे बनस्थली में जीवन बिताया उन्हें ये अपना सा लगेगा . जो आज के आये हैं बनस्थली में वो आगे न पढ़ें इस पोस्ट को और कुछ और चीज देखें .
एक दृश्य : कौतुक प्रश्न ?
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" ये सुरेन्द्र शर्मा जी पंड्या जी को ' जीजाजी' क्यों कह रहे थे ? "
अरविन्द निवास के बाहर , लगभग हैण्ड पम्प के पास लगे शामियाने में किसी विवाह समारोह के रिसेप्शन में मैं तो पीछे की पंक्ति में बैठा था और जगदीश जी भाई साब , केंद्रीय कार्यालय वाले , श्याम जी से ये सवाल पूछ रहे थे . अब पूछा उन्होंने श्याम जी से था तो देवें जवाब श्याम जी ही मैं काहे को बीच में बोलूं कर के चुप रहा .
क्यों नौबत आई इस सवाल की ?
वो भी बताता हूं . ज्यों ही सुरेन्द्र शर्मा जी को वहां मैं आया दिखा , लपक कर आए और ' जीजा श्री ' कहकर मुझे अतिरिक्त सम्मान दिया . समारोह के दौरान लगातार मेरे ही साथ रहे . सवाल श्याम जी से था तो उन्होंने भी बाद में इस रिश्तेदारी का इतिहास जानना चाहा था और मैंने बताया ही था सब कुछ . आज वो ही बातें फिर छेड़ता हूं .
बनस्थली में पाए जाने वाले सम्बोधन :
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जीजाजी, फूफाजी सरीके सम्बोधन वहां बहुत प्रचलित हुआ करते थे . ये वैवाहिक संबंधों से अर्जित सम्बोधन थे जो नसीब वालों को प्राप्त होते थे , बहर हाल काकाजी सिर्फ एक हुआ करते थे जिनकी बेटी सुकेश जी अभी भी बनस्थली में हैं , उनपर तो अलग से पोस्ट लिखूंगा , अभी वो बात यहीं रोकता हूं .
ब्रदर एस बी माथुर साब को चन्दा जी सब्जी वाले हमेशा ' जीजाजी' कहते और नील कान्त हमेशा ' फूफाजी '. ये सब आत्मीयता दर्शाने वाले सम्बन्ध हुआ करते थे .
पर मेरा ये रिश्ता कुछ पहेली सा था और इसी लिए तो जगदीश जी भाई साब उस दिन पूछ ही बैठे थे और इस लिए श्याम जी मुझसे पूछ रहे थे .
मेरी पहली प्रतिक्रिया तो यही थी :
" .....अरे श्याम जी ये साले किस काम के हैं , निहाल तो कुछ करने के नहीं , इतना जरूर हैं कि होली पर मेरी दुर्गत कर जाते हैं ."
खैर .......
अब सुनिए बात सुरेन्द्र शर्मा जी की जुबानी :
उन्होंने अपनी होड़ में ओम प्रयाश शर्मा को भी बुला लिया और बताने लगे श्याम जी को :
" अजी हम तो इनके हीरा मोती हैं , मैं हीरा और ये मोती . और ये हैं हमारे जीजाश्री '
ये करके वो श्याम जी को हमारा आपसी रिश्ता समझाने लगे . श्याम जी को ये रिश्ता समझकर जगदीश जी भाई साब को बताना जो था .
अब सुनिए मेरा पक्ष . मैंने दोनों को वहीँ खड़े खड़े समझाया :
" आप दोनों की जीवन संगिनियां बनस्थली में कार्यरत हैं . तिस पर इनमें बड़ी मुक्ति जी तो यहीं पली बड़ी हैं , बनस्थली की बेटी हैं . आप दोनों को मैं बहनोई का दर्जा देने को तैयार हूं , काहे अपने को मेरे ' साले ' सिद्ध करने को मरे जा रहे हो? "
तिस पर सुरेन्द्र शर्माजी ने क्या कहकर मुझे निरुत्तर किया :
" जीजाश्री , हम दोनों को उन बुजुर्गवार ने तब पढ़ाया था जब आपकी शादी की तो कोई बात भी नहीं थी और इस प्रकार आप ही हमारे जीजाश्री रहोगे . "
ओम प्रकाश शर्मा की तो मैं कच्ची कौड़ी मानता था , पर सुरेन्द्र शर्मा जी के कारण मुझे वहीँ के वहीँ ससुराल मिला और बच्चों को ननिहाल .
जीवन संगिनी का तो मैका बहुत मजबूत है ही .
अतिरिक्त स्पष्टीकरण :
मेरे सालार जंग सुरेन्द्र शर्मा जी को कोई उस सुरेन्द्र शर्मा से तौलने की भूल न करे जो " चार लैणा " सुनाया करता है , ये उससे इकीस ही हैं .
पर ये बात आज अधपरी ही छोड़ता हूं .....आगे करूंगा किसी तरह पूरी .
बनस्थली की मधुर स्मृतियों के साथ ....
और साथ ही
अलवर की मधुर स्मृतियों के साथ ...
प्रातःकालीन सभास्थगित .
इति .
वृत्तांत समीक्षा :
सुमन्त .
गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
24 मई 2015 .
सायंकालीन टिपण्णी :
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ये पोस्ट मैंने सुबह अपनी दीवार पर लगाने के लिए बनाई थी , वहां इसको लगा भी दिया और उसके बाद फुरसत ही नहीं मिल पाई .
इसे उसी रूप में बनस्थली परिवार से अब साझा कर रहा हूं .
शुभ रात्रि .
Good night.
सुमन्त .
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