Sunday, 29 October 2017

“ टाई आप बांध दो ! “  : बनस्थली डायरी 

एक बहुत पुरानी घटना याद हो आई । अपना आलम ये था कि बनस्थली में आ गए - बनस्थली के हो गए । खादी का बन्द गले का कोट पहन लिया और हो गए तैयार । शाम आठ बजे के आसपास सभाएं भी बहुत बार होतीं तो शाल ओढ़ लेते । कम सर्दी में जवाहर जाकट खूब काम आती । ऐसी ही एक सर्दी की शाम एक दोस्त (वय में मुझसे बड़े ) के बेटे की निकासी में सम्मिलित होने जा रहा था । रवीन्द्र निवास से निकल कर ज्यों ही सड़क पर आया देखता क्या हूँ कि एक साथी प्राध्यापक , जो एक छोटे महानगर से आये थे और हमारे पहनावे में नहीं ढले थे ,चले आ रहे हैं । सूट पहन रखा है , आक्सफोर्ड शूज भी पहन रखे हैं मगर टाई हाथ में है , जैसे कभी लोग मफलर हाथ में रखते हैं कि वक्त जरूरत काम आये । मैंने बिला वजह ही हस्तक्षेप किया - 

“   टाई हाथ में लेकर क्यों जा रहे हो ? “

 उत्तर में उन्होंने बताया कि उन्हें टाई बांधना नहीं आता । एक तीसरे का नाम लेकर बोले कि उससे बंधवाएगे ।

“   टाई तो मैं ही बांध दूंगा “ 

 मैं बोला । हालांकि मेरी सूरत देखकर उन्हें शायद भरोसा नहीं होगा कि इस पहनावे में मेरा कोई हस्तक्षेप हो सकता है । पर वो मान गए और वहीँ टाई हाथ में देकर बोले , लो आप बांध दो ।

मैं बोला ,  “अब यहां सड़क पर ही टाई बंधवाओगे क्या ? मेरा घर पास ही है वहां लौट चलते हैं ।”

मित्र 44 रवीन्द्र निवास में मेरे साथ आ गए ।

 कोट उतारो , कालर खड़ी करो आदि निर्देशों के बाद मैंने प्रश्न किया ,

“ सिंगल नाट बांधूं या डबल नाट ?”

 आप ही तय करो , वो बोले । खैर मैंने टाई बांध दी , उन्हों ने वापिस कोट पहन लिया और वहां से चल पड़े अरविन्द निवास की ओर जहां शामियाने में लोग इकठ्ठा हो रहे थे । बाजे वाले आ चुके थे , निकासी की तैयारी थी । वहां जाकर कुर्सिओं पर बैठ गए ।

वर का मामा पोशाक लेकर आया था । वर अन्दर तैयार हो रहा था । मामा बाहर आया बैठे लोगों पर नजर दौड़ाई और मेरे टाई वाले साथी को बुलाकर अन्दर ले गया । माजरा समझ कर साथी वापस आये , मुझसे बोले ," सुमन्त जी आप अन्दर चलो ।"

कहने की आवशकता नहीं कि वो मुझे ही क्यों ले गए ।

इन में से कई मुख्य पात्र अब रहे नहीं पर वे दिन और वे लोग स्मृतियों से कैसे जा सकते हैं ?

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पुराना क़िस्सा है , आज ब्लॉग पर दर्ज .

जयपुर 

सोमवार 

३०  अक्टूबर  २०१७ .

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