Tuesday, 28 August 2018

गोकुल यात्रा : बनस्थली डायरी 

गोकुल यात्रा : बनस्थली डायरी 


लगभग वैसी ही परिस्थितियाँ हैं और भाद्रपद मास चल रहा है जिन दिनों ये संस्मरण लिखा था मैंने . आज इसे ब्लॉग पर दर्ज करना अच्छा लग रहा है .

कभी कभी जीवन में ऐसा भी होता है कि व्यक्ति को निराशा घेर लेती है और ये निराशा यदि लंबी अवधि तक बनी रहे तो घातक भी हो सकती है . लेकिन … लेकिन ये योगायोग की बात है कि कुछ अलौकिक घटनाएं ऐसी होती हैं कि निराशा अचानक छूमंतर हो जाती है और जीवनी शक्ति लौट आती है . ऐसे अनुभव सब के जीवन के होते हैं , घटनाओं के प्रभाव हर व्यक्ति के लिए उसके स्वभाव और प्रकृति के अनुसार अलग अलग होते हैं / हो सकते हैं .

 मैं तो अपनी बात बताता हूं जो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन से याद आ रही है , कई दिन से बताने का मन था पर एक तो उपकरण और संचार तंत्र ने कुछ साथ नहीं दिया और दूसरे दिल्ली में दो पारिवारिक शिखर सम्मेलनों में व्यस्त रहा जिसके चलते ये पोस्ट नहीं बन पा रही थी . देखते हैं अगर आज ये बात कुछ हद तक पूरी हो जाती है तो फेसबुक पर अपलोड कर देवूंगा . फिर आएगा शिखर सम्मेलनों की गतिविधियों का विवरण जो अलग पोस्ट का कलेवर बनेगा , देखिएगा जरूर .


दो महत्वपूर्ण व्रत : 

मेरे घर में दो व्रत शायद पीढ़ियों से चले आ रहे हैं और महत्त्वपूर्ण हैं - श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और शिवरात्रि जिनमें छोटे छोटे बच्चे भी यथा शक्ति सम्मिलित होते रहे , बिना किसी दबाव के , स्वेच्छा से .

कोई कठोर व्रत नहीं होते थे व्रत के बहुत उदार नियम होते थे इन की सीख मैं जैसे घर में बच्चों को देता वैसे ही अपनी विद्यार्थियों को भी देता और इसका बनस्थली परिसर में भी सर्वत्र निर्वाह होता . जहां तक मेरे घर की विरासत का सवाल है मेरे घर में वैष्णव भक्ति की परम्परा और मेरे ननिहाल में शिव भक्ति की चली आयी परंपरा से इसका सम्बन्ध रहा हो , उसकी तफसील में मुझे अभी नहीं जाना .

अब ये और और बातें बंद कर मैं मुद्दे की बात पर आवूं जो कहने का आज विचार बनाया है …


वर्ष 2003 ईस्वी .

    अचानक ये पता लगा कि मेरा शरीर डायबिटीज की गिरफ्त में है और अब आगे से चिकित्सक की निगरानी में पथ्य और परहेज से रहना होगा . क्या खाया जाय क्या न खाया जाय ये भी डाक्टर और डाइटीशियन तय करने लगे . ये सब तो स्वाभाविक था पर इससे अधिक जो बताने लायक है वो ये कि मुझे दुःस्वप्न सताने लगे . मुझे अपने वो सब निकट रिश्तेदार याद आने लगे जो जीवन के अंत समय में या तो आंख की रौशनी गंवा बैठे थे या डाइबिटिक फुट के रोग के चलते एक एक पैर कटा बैठे थे .

ये केवल इस बात को बताने के लिए दोहरा रहा हूं कि जीवन में कैसी निराशा ने मुझे घेर लिया था और इसके कारण अपने कमिटमेंट भी पूरे करने में मैं आनाकानी करता था . भोजन में मिठास लुप्त हो गया था और यों भोजन में रुचि भी कम हो गई थी . ऐसे समय में उसी वर्ष गोकुल यात्रा ने मेरी सोच किस प्रकार बदल दी वही बताता हूं .


गोकुल यात्रा : निमित्त और अनुभूति 

 - इसे मैं एक सुखद संयोग ही कहूंगा कि हमारे साथी सुरेन्द्रपाल मिश्रा के बेटे प्रदीप का विवाह नियत हुआ था और बरात गोकुल जानी थी . मेरा विवाह में जाना पहले से तय था पर अब अपने बारे में नए रहस्योद्घाटन के बाद मैं साथ जाने में आनाकानी कर रहा था . मिश्रा जी मानने को कत्तई तैयार नहीं थे और आखिरकार साथ ले जाकर ही माने और इस प्रकार संभव हुई गोकुल यात्रा .

वैसे बृज प्रदेश की यात्रा मैंने पहले भी की थी अपने दोनों भाइयों के साथ पर इस बार साक्षात गोकुल पहुंचा था जो कृष्ण का गांव था और एक मांगलिक अवसर जिसमें अपने साथियों का साथ मिला था .

उस रात की बात याद करता हूं जब भोजन में अरुचि के चलते मैं जनवासे में अनमना सा लेटा था और सुरेन्द्र मिश्रा मेरी खोज खबर लेने आए थे , आखिर वो अपनी जिम्मेदारी पर मुझे साथ लिवा ले गए थे . वो वर के पिता थे , नेगचार के बीच भी समय निकाल कर आये थे मैंने कुछ नहीं खाया जानकर मुझे भवन के ऊपरी तल पर लिवा ले गए . वहां कढ़ाव में दूध ओट रहा था जो कुल्हड़ भर कर मुझे पीने को दिया गया . बगैर चीनी के भी गोकुल की गायों का दूध कितना स्वादिष्ट हो सकता था ये मैं उस रात ही जाना .

गोकुल की सडकों गलियों में मैं बारात के साथ भी घूमा और अगले दिन रवानगी के पहले भी . भवन , भित्तिचित्र , लोक व्यवहार और परस्पर अभिवादब में भी मैंने भगवान् श्रीकृष्ण को वहां लगातार उपस्थित पाया .

अधिक विस्तार में न जाकर मैं तो यही कहूंगा कि प्रदीप का विवाह और मिश्रा जी का साथ चलने का आग्रह निमित्त बन गए थे वास्तव में मेरा मन बदलने को मेरी सोच सकारात्मक बनाने को भगवान श्रीकृष्ण ने ही मुझे गोकुल बुलाया था उस बार .


मैं नहीं जानता कृष्ण इतिहास का विषय हैं या कवियों का घड़ा हुआ मिथक हैं पर गोकुल जाकर मैंने तो कृष्ण के रूप में एक वास्तविकता को अनुभव किया था .

बनस्थली के समय और साथियों को याद करते हुए ….

गोकुल यात्रा को याद करते हुए ..

सायंकालीन सभा स्थगित .।

सोमवार 29 अगस्त 2016 .

ब्लॉग पर प्रकाशन और पुनः लोकार्पण  - जयपुर   २९ अगस्त २०१८.


Sunday, 12 August 2018

संसद का पराभव : वादविवाद प्रतियोगिता .

वाद विवाद प्रतियोगिता :  संसदकापराभव


" पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं ,

बात इतनी है कि कोई पुल बना है . "

                   - दुष्यंत कुमार .


कल परिस्थिति ने बहुत अनुमति नहीं दी इस लिए संसद की पूरी गतिविधि तो सजीव नहीं देख पाया पर रात मीडिया पर जो झलकियां देखीं उनसे कोई ख़ुशी नहीं हुई . 


कई दिनों के बाद तो संसद बैठी बात करने को और बात हुई भी कल तो कैसी कैसी बातें हुईं वो मुझे दोहराने की आवश्यकता नहीं . भाषण कला में तो सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अपने को पारंगत दिखा रहे हैं पर मूल प्रश्न से सब कोई कन्नी काट रहे हैं .


ऐसा लगता है कि सांसद सामने आए सवालों को टाल कर भोली जनता को रिझाने के लिए संसद के मंच का उपयोग करने लगे हैं .


संसद के पराभव को लेकर आम नागरिक की चिंताएं वाजिब हैं .

ये वे ही चिंताएं जो उस समय से ही शुरु हो गईं थी जब जेम्स ब्राइस ने दो खण्डों में मॉडर्न डेमोक्रेसीज नामक कृति लिखी थी . अब तो वे चिंताएं बढ़ने लगी हैं .


पहले संसद में कैमरा नहीं जाया करता था , अब कैमरा जाता है तो सारा देश देख रहा है कि ये हो क्या रहा है ?


अभी अभी मुझे बताया गया कि आज लैफ्ट हैँडर्स डे भी है . इस अवसर पर अपने सभी बांये हाथ वाले साथियों को सलाम करता हूं .

मैंने तो जो सूझा बांये हाथ से ही मांड दिया है अभी के लिए .

सह अभिवादन : Manju Pandya


आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

13 अगस्त 2015.

लैफ्ट हैंडर्स डे .

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण  १३ अगस्त २०१८.


Saturday, 11 August 2018

पूछा है , वैसे ही .

ये किसी डाक्टर ने कहा है कि जब तब मैसेनजर खोल कर अनाप शनाप वीडियो , न तो फ़ोटो , आई गई इबारत इधर ठेल दिया करो  ?
अगर ऐसा है तो उस डाक्टर ने प्रेसक्रिप्शन में जरूर साथ में मेरा नाम भी मांड़ के दिया होगा  ?
मने पूछा है , वैसे ही .


Friday, 10 August 2018

इशो तिशो ....  : राजस्थानी कहावत 

राजस्थानी कहावतें .


गए दिनों प्रियंकर जी ने बहुत अच्छी राजस्थानी कहावतें फेसबुक पर उद्धृत कीं और जरूरत पड़ने पर उनकी व्याख्या भी की तो बड़ा अच्छा लगा . एक छोटा सा प्रयास इसी सन्दर्भ में ये भी है . मुझे केवल इस बात का डर है कि इन कहावतों को कहीं सेंसर बोर्ड ( मेरा अपना सेंसर बोर्ड ) रद्द न कर देवे . उस स्थिति में मैं तत्काल प्रभाव से इस पोस्ट को हटा लेवूंगा . अभी हाल के लिए दो कहावतें विचारार्थ रखता हूं .

1.

--- इशो तिशो .....

 विवाह की आयु निकल रही थी और विवाह नहीं हो रहा था.

" किसका ?"

उसे रहने दीजिए , उससे क्या काम है . कोई भी इस बात का बुरा न माने इसलिए मैं कुछ नहीं कहूंगा .

मैंने तो स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए एक कहावत कही थी वही दोहराता हूं :

" इशो तिश्यो मन भावै न , अर मोत्यां वाळो आवै न ."

पहली कहावत का अर्थ है ( इशो तिश्यो ...) कि ऐसा वैसा तो मन को भाता नहीं और मन भावन , मोतियों वाला आता नहीं .

कहावत हर उस परिस्थिति पर चरितार्थ है जब सामने उपलब्ध स्वीकार न हो और मनचाहा विकल्प मिलता न हो .

2.

-- बाई सा का ....


लेकिन विवाह तो हो गया , मेरी कही कहावत उस दिन रद्द हो गई .

मुझसे पूछा गया ,' अब क्या कहते हो? '

मैंने उस दिन दूसरी कहावत दोहराई थी :


" बाई साब का कंवार गिरह उतरगा अर कंवर साब की रिबरिबी मिटगी ."


दूसरी कहावत का अर्थ है परिस्थिति से ऐसा समझोता जिसमें कन्या की कुमारी अवस्था भी पार हो जाय और वर की रीरी पी पी ( किसी बात के लिए मचलना ) भी मिट जाए .


ये केवल कहावतें हैं , जीवन अनुभव पर आधारित , किसी को भी आहत करने के लिए नहीं हैं .


कुछ कहावतें मेरी अपनी गढ़ी हुई हैं , समय आने पर उन्हें भी साझा करूंगा . कुछ एक तो पहले साझा की भी हैं .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

समीक्षा : Manju Pandya.

प्रियंकर जी की ये टिप्पणी विशेष रूप से उद्धृत :

" अभिव्यंजक ! दीर्घकालीन सामाजिक अनुभव का सार विन्यस्त है इनमें . "

ब्लॉग पर प्रकाशित ; ११ अगस्त २०१८. 


आपका क़िस्सागो पार्क में .

Thursday, 9 August 2018

एग्जामिनेशन तीन : राजस्थान विश्वविद्यालय .

एक्जामिनेशन  तीन : राजस्थान  विश्वविद्यालय :



  बात बहुत छोटी सी है . सोचा था ये बताई जानी चाहिए या नहीं फिर लगा बताए देता हूं . सप्रसंग बताता हूं.

मैंने सुना है और कुछ कुछ याद है कि मुझे गुस्सा बहुत आता था, कुछ बड़ा हुआ तो बात बात पर अब गुस्सा नहीं भी आता था , पर ये जो मामला बता रहा हूं ये थोड़ा गुस्सा जताने का ही है . लोकेशन मैंने शीर्षक में ही लिख दी है - एक्जामिनेशन सेक्शन तीन , राजस्थान विश्वविद्यालय ,जयपुर .

राजस्थान विश्वविद्यालय
.
   राजस्थान का सबसे बड़ा और ऐतिहासिक विश्वविद्यालय जिसका फैलाव पूरे राजस्थान तक हुआ करता था और इसके परीक्षा प्रभाग का बहुत बड़ा कारोबार हुआ करता था . ये तब की बात है जब बनस्थली में मैं भी इसी विश्वविद्यालय के एक एफिलिएटेड कॉलेज में काम करने लगा था पर इस विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार दफ्तर में व्यक्तिशः जाने का तब तक कोई काम नहीं पड़ा था हालांकि मैं इसी परिसर से पढकर गया था .

मामला क्या था ?
     - अंग्रेजी विभाग , बनस्थली में वाजिद साब ( रशाद अब्दुल वाजिद साब ) तब वरिष्ठ प्राध्यापक हुआ करते थे और स्वाभाविक  रूप से विश्वविद्यालय की परीक्षा के परीक्षक भी थे . उनके पास जांचने  के लिए कापियों का बण्डल आया हुआ था और वो उसमें लगे हुए थे . ये बात थी अप्रेल के अंत और मई के आरम्भ की . मई के शुरु में छुट्टी शुरु होते ही मैं तो आदतन अपने घर जयपुर आ गया था . वाजिद साब की एकजामिनर्शिप से मेरा कोई वास्ता नहीं था 

मैं कैसे जुड़ गया मामले से ?
        एक दिन रात पड़े वाजिद साब जयपुर में मेरे घर आए और उन्होंने अपनी परिस्थिति बताई कि उनके अब्बू सख्त बीमार थे, जो कि वास्तव में नहीं ही रहे, और उन्हें बरेली जाना पड़ रहा था , वे कापियां जांचकर अवार्ड लिस्ट  तो पहले भेज चुके थे और कापियों का बण्डल जयपुर के  बनस्थली भवन में रख आए थेऔर मुझे कहने आए थे कि मैं बण्डल वहां चलकर उठा लेवूं और यूनिवर्सिटी के दफ्तर में जमा करवाने की जिम्मेदारी लेवूं .

   मैं बोला ," आप रिक्शा से आए , इसी में बण्डल भी पटक लाते , एक चक्कर तो बचता ."

पर जिसके पिता मृत्यु शैय्या पर हों उसे इतना ध्यान कहां रहता है , उन्हें तो घर पहुंचने की जल्दी थी और वो मुझसे ये मदद मांगने आए थे वो भी विश्वविद्यालय के हित में .

खैर इस परिस्थिति में मैं फिर गया उनके साथ बनस्थली भवन और रिक्शा में पटक कर  बण्डल अपने साथ घर ले आया . अब ये बण्डल मेरी जिम्मेवारी बन गया . उसी दिन पहली बार मैं बनस्थली भवन गया था और रामकृष्ण जी भाई साब से मिला था जो बनस्थली भवन के केयर टेकर हुआ करते थे .

अगले दिन  यूनिवर्सिटी रजिस्ट्रार आफिस :
--------------------------------------------     जैसा बण्डल मूझे मिला था फिर एक रिक्शा में डालकर मैं रजिस्ट्रार ऑफिस पहुंचा जहां ये जमा होना था . पता किया  ये एक्जाम सेक्शन तीन में जमा होना था सो मय बंडल वहां पहुंचा . वहां एक कठिनाई आ गई कि बण्डल के साथ स्टेटमेंट का एनवलप और होवे तब ही ये बण्डल जमा हो सकता है अन्यथा नहीं . ऐसा कोई लिफाफा मेरे पास तो था नहीं . जिन्हें बण्डल ले लेना चाहिए था वो बाबू लोग बण्डल लेवें नहीं , जिन्हें लिफाफा बनाकर देना चाहिए था वो मौके पर मौजूद नहीं , मेरे पास उनसे संपर्क का कोई जरिया नहीं . कुल मिलाकर मेरे लिए अजीब मुसीबत कि क्या करूं इस बण्डल का . केवल इतनी  राहत की बात थी कि बण्डल पर एक्जामिनर नंबर अलबत्ता लिखा हुआ था . इस कथा में इतना तो साफ है कि इस बण्डल को मैं पहले दिन से  ढोते ढोते परेशान हो चुका था और अब इससे निजात चाहता था .
इस मामले में मैं  असिस्टेंट रजिस्ट्रार साब से मिला तो उन्होंने भी वही नियम की बात कही हालांकि सारी बात मैं उन्हें समझा चुका था .

ए आर साब की बात सुनने के बाद मुझे तय करना था कि मेरा अगला कदम क्या  हो,  जिस रिक्शा से बण्डल ढो कर वहां तक लाया था वो मैं पहले ही लौटा चुका था और सोच रहा था कि इसे कैसे ले जावूं और कहां ले जावूं .  तब मुझे सूझा और मैं ए आर साब से बोला :

" अगर आप इस बण्डल को जमा करने को तैयार ही नहीं हैं तो मैं भी अब इसे लेकर कहीं नहीं जाऊंगा , यहीं दफ्तर के बाहर रखकर इसे आग लगा दूंगा......."

मेरा इतना कहना था कि ए आर साब को बात समझ आ गई और बोले:
" नहीं नहीं आप ऐसा मत कीजिए ...   मैं करवाता हूं जमा."

उन्होंने मुझसे ये जरूर कहा कि इस बाबत मैं अपनी ओर से एक पत्र लिखकर दे देवूं साथ में  और मैंने वहीँ उनकी सीट के सामने बैठकर वो पत्र लिख कर उनके सुपुर्द कर दिया .
बण्डल जमा हो गया और राजिट्रा्र दफ्तर ने उसकी एक औपचारिक रसीद भी इस बाबत दे दी . मेरा भी सिर दर्द मिटा .

बरसों पुरानी बात हो गई पर ये वो दिन था जब मैंने थोड़ा सा गुस्सा दिखाया था , परिस्थिति की मांग ही कुछ ऐसी थी .

इस छोटे से संस्मरण के साथ प्रातःकालीन सभा स्थगित .

प्रसंग समीक्षा :  Manju Pandy.

जब ये चर्चा चली कि मैंने ऐसा किया तो इस पर सुभाष गुप्ता साब . जो आर्गनाइजेशनल बिहेवियर के विशेषज्ञ हैं , ने इस व्यवहार की व्याख्या इस प्रकार की ; 

" There is a difference between 'losing temper' and 'using temper'. It is a good example of using temper appropriately. "

डाक्टर चंद्रिका मालिक ने साफ़ कहा :

"It was losing temper constructively..."

और इस प्रकार लगभग सभी ने मेरे व्यवहार की संस्तुति की . अभी अभी जीजी ने कहा कि ऐसा ही करना चाहिए था , अनन्त ने कहा कि ग़ुस्सा करना शायद समय की माँग थी .

टीका सहित ब्लॉग पर प्रकाशित 

@ जयपुर  १० अगस्त २०१८.

Wednesday, 8 August 2018

बाज़ार से निकला हूं ख़रीदार नहीं हूं : जूता पुराण 

बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूं .....


     ये तो कभी सुनी हुई ग़ज़ल का मतला है जो वैसे ही याद आ गया सो शीर्षक के रूप में मैंने डाल दिया क्योंकि बात बाजार की करने जा रहा हूं . जाने सही भी बैठेगा कि नहीं , अब आगे देखी जाएगी .

हमारे कंवर साब भारत भूषण जी ने एक बड़ी मार्के की बात बताई थी वो आज जन हित में प्रकाशित किए देता हूं :


" ..... जब आप आज के जमाने की किसी दूकान में कदम रखते हैं तो दूकानदार पहले पहल आपके जूतों पर नजर डालता है कि आपने जूते कितने मंहगे पहने हैं . अगर आपने मंहगा जूता पहना है तो यह तय हो जाता है कि आप लायक खरीदार हैं. "


गरज ये है कि जूते और बाजार का बड़ा नजदीकी रिश्ता है .

अपना आलम ये है कि मंहगा जूता पैर में काटता है . जूता बेचारा तो अपनी जगह है जूता नहीं पैसा काटता है , ये कहना ज्यादा सही होगा .


अंगरखी और पगरखी .

       - आज भी मुझे ये अंगरखी और पगरखी का पहनावा बहुत आकर्षित करता है और मैं अपने बाबा मदन जी महाराज का चित्र देखकर अभिभूत हो जाता हूं कि क्यों अपन अपना पहनावा भूल गए ,इस पश्चिमी वस्त्र विन्यास के पिछलग्गू हो गए . क्यों इस बाजार में आ गए जिसने एक से एक बढ़िया उपाय किए हुए हैं जेब खाली करने के .

इस जूतों से सजे बाजार में बच्चे नए जूते दिलाने को आमादा रहते हैं और मैं कह पड़ता हूं :

" अब मुझे जूते और दिलाओगे क्या ?"


जूतों का व्यापार :

- भिवाड़ी में मुझे एक सज्जन जूतों का व्यापार करते मिले , उनकी बिरादरी का नाम कुछ ऐसा था जो जूतों के व्यवसाय से मेल नहीं खा रहा था और इसी बेमेल बात की मुझे वो कैफियत दे रहे थे , उन बेचारों को मैं क्या समझाता कि मैं तो हाथ के कारीगर की इज्जत करता हूं चाहे वो बनस्थली का पोखर हो या जयपुर में मेरे पड़ोस का मनसा राम .

पोखर से तो अब जाने कब मिलना होगा पर जयपुर पहुंच कर मनसा राम का साक्षात्कार प्रकाशित करूंगा.

पर चलो ये बदलाव तो आया नए जमाने में कि जो बिरादरी के नाम पर अपने को बड़े मानते थे वे भी जूता व्यवसाई बन गए .

बात थोड़ी अटपटी और अस्पष्ट तो रही पर आज का एकालाप इतना ही 

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

समीक्षा : Manju Pandya

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

9 अगस्त 2015 .

Photo credit . Pragnya Joshi

ब्लॉग पर प्रकाशन  ९ अगस्त २०१८.

सप्लीमैण्ट :

पोस्ट तो २०१५ में लिखी थी भिवाड़ी में , फिर २०१६ में जोड़ी थी एक भूमिका , आज फिर से साझा और साथ में ब्लॉग लिंक :


आशियाना से सुप्रभात ☀️

Good morning .


अभी फेसबुक खाता खोलने पर मेरा यंत्र बीते समय की ये पोस्ट दिखा रहा है जिससे कई एक पुरानी पुरानी बातें याद आने लग गईं . आज उन में से कुछ एक बातें यहां साझा किए देता हूं .


  पैरों में ये देशी जूता जोड़ी मेरे लिए बनस्थली में रहवास की यादगार है , ख़ास तौर से उस दौर की जब रवीन्द्र निवास में मेरे घर के आस पास बबूल का जंगल हुआ करता था और इस बात का खतरा बना रहता था कि नाजुक जूता या चप्पल पहन कर अगर घर के बाहर कदम रखा तो पैर में गहरा शूल चुभ जाएगा .. । ऐसी जूता जोड़ी ने मेरे पैरों की हमेशा रक्षा की .


2

हालांकि ऐसी जूता जोड़ी पहनने वाला नव सभ्य समाज में गंवार समझा जाएगा पर मुझे हमेशा से ही गंवार समझा जाना पसंद है बनिस्पत हाई सोसाइटी का समझे जाने के .

आज जब आयातित जूतों से बाजार अटा पड़ा है इंसान की हैसियत जूतों से ही तय होती है . कभी कभी तो मुझे लगता है जूता और पैसा पर्यायवाची हैं .


3

एक हल्की फुल्की : 😊

--------------------

भाभी जी को चप्पल में घूमने जाते देख श्रद्धा ने कहा था :


" मैं ... आप को जूते दिलाऊंगी 😊"


मेरी जैसी आदत मैंने तो इस पर यही टीका की


".... के अब ये ही कसर बाकी रही है 😊......."


4 .


अब मुझे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं कि मुझे मंसाराम से क्यों इत्ता लगाव है .

अगर देश की राजनीति का ये ही आलम रहा तो आगे से ऐसी देशी जोड़ी तो आपको देखने को न मिलेगी कहे देता हूं .

मेरे थोड़े कहे को अधिक समझना .


5.


उमड़ घुमड़ कर कई बातें याद आ रही हैं पर प्रातःकालीन सभा के लिए उपलब्ध समय बीता जा रहा है . आगे जारी रहेगी #बनस्थलीडायरी और #स्मृतियोंकेचलचित्र . अभी भी पोस्ट लिखकर जी हल्का नहीं हुआ और चलाऊंगा बात आगे .

नौ अगस्त के ऐतिहासिक महत्त्व और शहीद दिवस को याद करते हुए ...

शहीदों को नमन.........

---------------

--सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

मंगलवार 9 अगस्त 2016 .

@जयपुर ९ अगस्त २०१८.


Tuesday, 7 August 2018

धापीबाई मार्ग की कहानी : स्मृतियों के चलचित्र 

गए दिनों बनीपार्क बार बार जाना हुआ ।एक मार्ग पर पत्थर पर लिखा देखकर मैं थोड़ी देर के लिए ठहर गया , लिखा था ' धापी बाई मार्ग ' । मुझे एक पुराना प्रसंग याद आ गया । मुझे हरि भाई ने बताया था कि शर्मा जी बनस्थली फ्लाइंग क्लब से रिटायर होकर जयपुर में बसने जा रहे थे । बनी पार्क में अपने प्लाट पर उन्होंने मकान बनाया । बस्ती धीरे धीरे बढ़ रही थी । गली की संख्या और प्लाट नंबर से घर की पहचान थी ।इस बीच उनकी मा गुज़र गयी । अपनी मा की याद को जीवित रखने के लिए वे एक तख्ती बनवा कर लाये जिस पर लिखा था - धापी बाई मार्ग * । शर्मा जी ने तख्ती को अपनी गली के मोड़ पर गाड़ दिया और इसे * धापी बाई मार्ग* के रूप में प्रशस्त कर दिया ।

अब वे अपने डाक के पते में भी धापी बाई मार्ग लिखने लगे । वहां आकर बसने वाले अन्य लोग भी अपने पते के रूप में ' धापी बाई मार्ग , बनी पार्क , जयपुर ' लिखने लगे । पोस्टमैन भी इस मार्ग को धापी बाई मार्ग के रूप में जानने लगा और बढ़िया ये रहा कि नगरपालिका में भी यह धापी बाई मार्ग के रूप में दर्ज हो गया ।

यही है ' धापी बाई मार्ग ' के नामकरण की कथा । इस मार्ग के आरम्भ में पत्थर पर शर्मा जी की माँ का नाम उकेरा गया है ।

फ़ेसबुक पोस्ट रूप में जब ये चर्चा चली सन २०१४ में तो प्रियंकर पालीवाल जी की दो टिप्पणियाँ  आईं जो यहां उद्धृत करता हूं :

१.

कई बार सदिच्छाएं ऐसे ही सरल-सहज ढंग से फलीभूत हो जाती हैं . आखिर सबसे पुराने बाशिंदे का कुछ तो विशेषधिकार बनता ही है . मुझे मार्खेज के हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड का गांव-कस्बा मकोंडो याद आया जिसमें गांव को बसाने वाले सीनियर बुएंदिया इस बात पर नाराज होते हैं कि हमारा घर किस रंग से पोता जाए, नगरपालिका यह तय करने वाली कौन होती है . गांव के बहाने बदलने-बढने-सधने-बिगड़ने की अजब-गजब दास्तान है यह .

२.

आपके संस्मरण इतने सहज-स्वाभाविक ढंग से आ रहे हैं कि सीधे मन में उतर जाते हैं. आपको लगातार लिखना चाहिए . एक के बाद एक कड़ी जुड़ती रहे . कई जगहें तो ऐसी हैं जहाँ मेरा भी जाना-रहना हुआ है तो रिकनेक्ट कर बहुत अच्छा लगता है . जैसे बापूनगर और जनता स्टोर का जिक्र . अब गुड वाला किस्सा आ जाए तो उत्सुकता कुछ शांत हो .

इन टिप्पणियों ने मेरा उत्साह बहुत बढ़ाया .

K

ब्लॉग पर प्रकाशित ८ अगस्त २०१८.

Monday, 6 August 2018

रम्बाद गाथा : भिवाड़ीडायरी 

अब आज क्या करना है ?
कुछ न कुछ तो करना ही है ।
फिर भी क्या ?
बस ये जताना है कि हम हैं सोशल मीडिया पर और जिस तिस से अटकते रहेंगे और क्या ?

कल क्या हुआ था ?
ये ही तो कि नैट नहीं है इस बात का रंबाद खड़ा किया था । इस लब्ज के इस्तेमाल से घर में ही फालतू का रम्बाद खड़ा हो गया । अब जा के जी कुछ हल्का हुआ है जब जीवन सिंह जी की टीप आई कि रम्बाद ही तो जीवन है नहीं तो जिंदगी सपाट हो जाएगी ।

जुगाड़ का नतीजा :
अभी थोड़ी देर को हॉट स्पॉट से नैट लिया तो सारे के सारे उपकरण एक साथ टन टना रहे हैं । अब झेलो । ट्राफिक बहुत ज्यादा है । अब है जो है । जब बहुत देर ट्राफिक जाम रहेगा तो , जाम खुलेगा तब ये तो होगा ही होगा ।

एक बात और :
सारे उपकरण सफाई मांगते हैं । आज समय निकालकर झाडू ही लगावें न तो ये उपकरण ही जवाब देवेंगे बहुत जल्दी ।

अपण को फालतू के मामलों में उलझना नहीं और जहां उलझना वहां फुल एण्ड फाइनल करने का और क्या ?
अब खयाल तो बहुत सारे आ रहे हैं बताने लायक पर सरकार का आदेश है :" चलो घूमने "
अब क्या तो करो और क्या न करो आप ।

है तो ये सारी चर्चा रैबार ही । क्षमा कीजिए जस तस इसे ही स्टेटस के रूप में मान्यता दे दीजिए ।

और आज की एक ख़ास बात :
" हैप्पी फ़्रैंडशिप डे 🌷"

प्रातःकालीन सभा स्थगित .....

आशियाना आंगन , भिवाड़ी
रविवार ६ अगस्त २०१७ .
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ब्लॉग पर प्रकाशन  सोमवार ६ अगस्त २०१८.

Sunday, 5 August 2018

बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब - ३


फिर बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब - भाग तीन .

कल मैंने बताया था कि माट साब के अभिन्न मित्र कल्याण मल जी ब्यावर से चलकर बनस्थली आए . अवसर था सरोज का विवाह . वह उनकी इस पैमाने पर एक मात्र बनस्थली यात्रा थी जिसमें वो लोग तीन दिन वहां रुके और इस बाबत अक्षय ने भी कल उस परिवार को याद किया . इस शिष्ट मंडल में चाची जी , इनकी बेटी और उसके साथ एक बच्चा सम्मिलित थे .

समारोह में वो लगातार सम्मिलित रहे पर उनका विश्राम स्थल रहा 44 रवीन्द्र निवास , उन दिनों मैं घर में अकेला ही था और इस बहाने मुझे भी संरक्षण मिल गया .


इसी बहाने मेरी एक बात :

   अब छोटा बच्चा तो रात को सोवे तब ही सोवे . कल्याण मल जी परिवार रात को बाहर वाले कमरे में सोए . दोनों कमरों के बीच का दरवाजा ढाल दिया और मुझे बोले,' लाला तू तो सो जा , तुझे तो सुबह उठकर पढ़ना है , पढ़ाने जाना है .'


ऐसे ही पुरानी बात याद आ गई , कितना अपनत्व होता था उन लोगों में .

जैसे उनका बेटा मुकुट उनके लिए लाला था मैं भी उनके लिए लाला ही था .


चौहान परिवार के बारे में :

----प्रायःदेखा जाता है कि माता पिता अपने बच्चों पर केरियर थोपने का प्रयास करते हैं . स्वयं अध्यापक होकर भी बच्चों के लिए इतर व्यवसाय चाहते हैं . ऐसे में मोहन सिंह जी माट साब मिसाल हैं इस बात की कि उनकी देखा देखी उनके बच्चों ने उनका ही कार्यक्षेत्र चुना . विजय सिंह जी और निर्भय सिंह जी तो विद्यापीठ में ही कार्यरत रहे, मेरा भी निकट संपर्क रहा दोनों से . बच्चों के कारण मैं आशा जी को भी जाना , उनके सौम्य स्वभाव की मैं हमेशा सराहना करता हूं .

भूगोल के शिक्षक के नाते विजय सिंह जी का तो आज भी लड़कियां नाम लेती हैं .

अक्षय भैया तो हैं ही बनस्थली की यादों को ताजा करने वाले .


बात फिर उस जमाने की :

सोमवार को मैं तो जयपुर चला आया . 44 रवीन्द्र निवास में ठहरे हुए थे मेहमान जो घर के समान ही थे . मंगलवार को बनस्थली से विदा होकर जब वो लोग जयपुर आए तो घर की चाबी देने आए और ऐसे बताया कि लाला (याने मैं ) के कारण ठाठ रहे उनके . घर में दो उपकरणों की उन्होंने विशेष सराहना की - एक तो गैस कनेक्शन और दूसरा था प्रैशर कुकर .


हालांकि उस वक्त की और बहुत सी बातें याद आ रही हैं पर आज इस चर्चा को विराम देता हूं .

उन स्वर्णिम दिनों को याद करते हुए ..

प्रातःकालीन सभा स्थगित.

सह अभिवादन और समीक्षा :Manju Pandya

अतिरिक्त समीक्षार्थ : Akshaya Chauhan

आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

6 अगस्त 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशन सोमवार ६ अगस्त २०१८.


आदि बनस्थली .

Saturday, 4 August 2018

बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब .२.

फिर बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब - २ 

कल उपलब्ध समय कम था , मैं इतना ही बता पाया था कि सरोज के जरिए बुलाए जाने पर बनस्थली में मोहन सिंह जी माट साब के घर पहुंचा और वो बड़ी आत्मीयता से मिले , बैठाया , खिलाया पिलाया और आगे कुछ बातें बताने लगे . 


माट साब ब्यावर के रहने वाले थे और ब्यावर से ही उन्हें अपने एक मित्र कल्याण मल का पत्र मिला था जिसमें मेरा भी उल्लेख था . उल्लेख कुछ इस प्रकार था कि मेरा नाम बताते हुए ये मित्र कह रहे थे कि मेरे बॉस के बेटे गए दिनों बनस्थली में नियुक्ति पाकर वहां पहुंचे हैं , आप उनसे संपर्क स्थापित करें और उनका घर के व्यक्ति की तरह ही ध्यान रखें . यही पत्र वो आधार था जिसने माट साब को मुझे बुला भेजने को अधिकृत किया था .


खैर, माट साब की बेटी तो मेरे पास पढ़ती ही थी उस समय , दशक बीता और अगले दौर में पोती भी पढ़ने आई , माट साब आजीवन विद्यापीठ परिसर में रहे और इस प्रकार जो संपर्क स्थापित हुआ वो आज भी कायम है . इसे मैं चार पीढ़ियों का संपर्क कहूंगा .


एक अच्छी बात ये भी थी कि मोहन सिंह जी माट साब सोशल स्टडीज पढ़ाते थे और विषय मेरे ही अध्ययन अध्यापन से जुड़ा हुआ था . वे उस जमाने के थे जब अध्यापकों का हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान हमेशा बढ़िया होता था चाहे वो किसी भाषा के अध्यापक न हों . मुझे याद आता है अलका से उसके साथ पढ़ने वाली लडकियां रश्क किया करती थीं कि उसके तो दादा जी अंग्रेजी में छपे सन्दर्भ ग्रंथों के अंश अनुवाद करा देते हैं . और सब के तो दादा जी वहां नहीं होते थे .


तब मेरे विषय का बहुत सा साहित्य अंग्रेजी में ही उपलब्ध हुआ करता था .


अब तो अलका भी किसी कालेज में प्रिंसिपल बन गई होगी , न तो नियुक्त होने वाली होगी . ये तो पुरानी बातें हैं जो मैं याद कर रहा हूं .


 चिट्ठी पत्री का ज़माना  :

लौटें उस बात पर जब मैं पहली बार माट साब के घर गया था .

मैंने जुलाई के चौथे सप्ताह में तो काम सम्हाला ही था और ये बात है अगस्त की जब तक कितना पत्र व्यवहार हो चुका था वही बताने की बात है .

काकाजी ने कुल तीन महीने अजमेर में काम किया था . वहां कल्याण मल जी उनकी ट्रेजरी में अकाउंटेंट थे . काकाजी के लिए अजमेर तो तबादले के बाद छूट गया पर कल्याण मल जी( कल्याण मल शर्मा ) से आत्मीयता बरकरार रही . उनसे नियमित चिठ्ठी पत्री चलती रहती थी . ऐसी ही चिठ्ठी में मेरी नई नियुक्ति का उल्लेख था . कल्याण मल जी ब्यावर के रहने वाले थे , वो प्रमोट होकर जयपुर भी आए और आखिर में रिटायर होकर अपने गृह नगर ब्यावर जा बसे थे . कल्याण मल जी मोहन सिंह जी माट साब के सहपाठी और दोस्त थे और इन दोस्तों में भी चिठ्ठी पत्री चलती रहती थी .

ऐसे ही एक नियमित पत्र में मेरा उल्लेख आया था और ऐसे करके माट साब ने मुझे बुलाया था उस दिन अगस्त के महीने में अपने घर .


पहली बार में हमें जोड़ने वाली कड़ी थे कल्याण मल जी अंकल .

अभी तो वो बात बतानी है जब एक आध वर्ष बाद सरोज का विवाह हुआ और कल्याण मल जी अंकल सपरिवार बनस्थली पहुंचे . वो एक उदाहरण है पुराने लोगों की आत्मीयता का , वह भी बताऊंगा .

अभी हाल प्रातःकालीन सभा स्थगित.. 

( कथा क्रम आगे जारी...)


सह अभिवादन : Manju Pandya

समीक्षा: Akshaya Chauhan

अशियाना आंगन , भिवाड़ी .

5 अगस्त 2015.

ब्लॉग पर प्रकाशन ५ अगस्त २०१८.


Friday, 3 August 2018

बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब 

फिर बनस्थली की याद आई .: मोहन सिंह जी माट साब .

            ये उसी साल की बात है जब मैंने बनस्थली में पढ़ाना शुरु किया था . बी ए थर्ड ईयर की क्लास को पढ़ाकर बाहर निकला तो एक छात्रा ने मुझे कुछ बात कहने को रोका . इस छात्रा का नाम सरोज चौहान था . वो मुझे कहने लगी :


" आपको पिता जी ने घर बुलाया है ."


देखो समझ का फेर , वो अपने पिताजी की बात कह रही थी और मैं समझ रहा था कि बीते सप्ताहान्त मैं जयपुर नहीं पहुंचा इस लिए मेरे घर से ये सन्देश आया है . खैर बात समझा और पता समझा और फिर मैं पहुंचा सरोज के घर . वहां पहुंचने पर संपर्क और आत्मीयता के कितने सूत्र आपस में जुड़े वो ही मैं बताने का प्रयास करूंगा. बात काकाजी * से शुरु होकर मोहन सिंह जी माट साब तक पहुंची थी और इसी आधार पर माट साब ने मुझे बुलवाया था . ये संपर्क तो फिर माट साब के रहते भी रहा और पीढ़ी दर पीढ़ी चला जो शायद मैं एक आध कड़ी में कह पावूंगा .

इस बहाने शायद मैं ये भी कह पावूं कि उस जमाने में सिर्फ चिठ्ठी पत्री से भी कितना संचार होता था और आत्मीयता का दायरा कैसे बढ़ता था .

आज स्मार्टफोन का ज़माना आ गया पर इन संबंधो की प्रकृति शायद वैसी न रही जो महज चिठ्ठी पत्री के जमाने में हुआ करती थी .


तो उस दिन की बात :

---------------------- जब बनस्थली में पोस्ट आफिस के बराबर वाली गली में माट साब के घर मैं पहुंचा तो वो बहुत अपनत्व से मिले बैठाया और एक पत्र मेरे सामने रख दिया जिसके आधार पर वे मुझे बुला भेजने को अधिकृत थे . क्या था पत्र में ऐसा , किसने लिखा था पत्र ये सब भी बताऊंगा पर आज सिर्फ इतना कि इसके बाद पीढ़ियों का रिश्ता बन गया  

सारी कड़ियां जोड़ कर पूरी बात कहूंगा . उसी सन्दर्भ में जुड़े मुझसे बब्बू भैया याने अक्षय चौहान **. 

( अगली कड़ी में जारी )

प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित .

सुप्रभात .

सह अभिवादन : Manju Pandya.

* काकाजी हमारे पिताजी जिन्हें हम इसी नाम से संबोधित करते थे .


** Akshaya Chauhan.


आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

4 अगस्त 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशन  ४ अगस्त २०१८.

Thursday, 2 August 2018

सुबह का अपडेट : ठाले बैठे .

आज सुबह का अपडेट :


सुबह उठकर क्या देखता हूं कि इंटरनेट तो है ही नहीं मोबाइल की भी बैटरी शून्य हो गई है और कोई ज़रिया सोशल मीडिया से संदेश अवाक जावक का बचा नहीं । अब न तो न सही , हो ओ अपने क्या है । अब कुछ न कुछ ऑफ़ लाइन लिखा जाए जो काम आए तो आए और न आए तो कुछ अभ्यास किया ये संतोष तो होएगा कम से कम ।


अब स्मृतियों के चलचित्र 

जब मैं पहली बार जोशी बाबा के पास पढ़ने गया था , मेरे लिए ये ही पढ़ाई की शुरुआत थी , तब सलेट और खड़िया की पेंसिल साथ लेकर गया था । उस घड़ी का विस्तृत संस्मरण लिखा जाना अभी बाक़ी है । आज अब नए ज़माने में ये जो आई पैड मिनी मेरे हाथ में है , ये है अब नए ज़माने की सलेट और अब अपण हैं इस विधा के नव साक्षर । जब तक सामग्री डिस्पैच न हो जाए ख़ूब लिखो और ख़ूब बुझाओ । लिखे जाओ , चाहो तो रखो , चाहो तो मिटाओ । नए ज़माने की इस सलेट पर लेखन अभ्यास चलता रहे , चलता रहे और क्या ?


फिर वही बात : वर्ड में लिखना है .

     पहले भी शाणे लोगों ने मुझे ये राय दी थी पर तब मैं मूरख़ समझा नहीं था ।  

क्यों न समझा था ?

ऐसे छोटे छोटे अक्षर बण जाते जो मुझे आसानी से दीखते ही नहीं । अब जब ट्राई किया तो पता लगा के उस लिखे को तो ज़ूम करके फ़िट टू साइज़ किया जा सकता है । अब तो कोई दिक़्क़त ही नहीं । हो गई दिक़्क़त दूर । पर लिखने को कोई बात , कोई क़िस्सा भी तो होना चाहिए तब ही तो बने कोई इबारत ।  

मैं कोई क़िस्सा गढ़ता नहीं । जो भी कोई घटना होती है , जिसका मैं भागीदार या साक्षी होवूँ , उसी को बयान कर देता हूं और ये ही मेरी किस्सागोई होती है । मुझे क़िस्सा कहकर अच्छा लगता है और अगर आपको क़िस्सा पढ़ सुनकर अच्छा लगता है तो यही मेरा परम सौभाग्य है ।

हालांकि अभी कोई क़िस्सा नहीं जुड़ा इस पोस्ट में पर क़िस्सों का ज़िक्र तो आया ही है कम से कम । क़िस्से भी लिखूंग़ा वर्ड फ़ारमेट में और जोडूंग़ा अपनी प्रोफ़ाइल पर ।


अब ये ठाले बैठे आफ लाइन लिखते रहने में हुई तैयार एक इबारत । अब इसे सलेट पर लिखा मानकर बुझाणने से तो क्या मतलब है । किसी को दिखेगा तो ये ही तो समझेगा कैना लिखने की प्रैक्टिस की है और लिखना सीख लिया है जैसे तैसे ।


अब जब मिलेगा इंटरनेट

तब होगी ये पोस्ट डिस्पैच 


आशियाना आँगन , भिवाड़ी 

गुरुवार ३ अगस्त २०१७। 

ब्लॉग पर प्रकाशन  ३ अगस्त २०१८. 


Wednesday, 1 August 2018

फ़्रैंडशिप डे :भिवाड़ी डायरी 

आज का एजेंडा ::फ़्रैंडशिप  डे 

 

   आज जैसे ही फेसबुक खोला एजेंडा तो फेसबुक ने ही सुझा दिया कि आज " फ्रेंडशिप डे " है . और तो और फेसबुक ने सारे फेसबुक वासियों की ओर से मेरा आभार भी व्यक्त कर दिया इत्ता अच्छा दोस्त होने और दोस्ती निभाने के लिए .


आप सब जहां कहीं भी बैठे हैं, जो कोई भी हैं आप सब को मेरा सलाम पहुंचे . जो जाग गए हैं, जाग रहे हैं उनको भी सलाम , जो सो रहे हैं और आज देर से उठने का विचार कर के सोए हैं उन को भी सलाम , उठेंगे तब देख ही लेवेंगे .


फेसबुक ने ये काम तो बड़ा बढ़िया किया है कि सब कोई को इस प्लेटफॉर्म पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां राम रामी हो जाती है . ये ग्रेट लैवेलर भी है जहां सब कोई को बराबर का दर्जा प्राप्त है . बाकी इस बाबत एक पोस्ट मैं लिख ही चुका हूं जिसे शीर्षक दिया था ," ये फेसबुक की दोस्ती ?" आप ने अब तक न देखी हो तो देख लेवें , देख ली तो फिर बात खतम आप तक पहुंच ही गई मेरी बात .


आज इस मौके पर इतना जरूर कहूंगा कि इस माध्यम का अच्छा इस्तेमाल करें , फर्श गंदा न करें तो ठीक रहेगा वरना तो भले लोग इसे छोड़कर जाने लगेंगे ये कोई अच्छा लगेगा क्या ?


कभी कभी दूसरे को लज्जित करना और उसकी खिल्ली उड़ाना तो बड़ा आसान लगता है पर उसकी बात समझना और उसे अपनी बात समझाना मुश्किल लगता है . न जाने क्यों लोग पहला विकल्प चुन लेते हैं .

अपना तो यह मानना है कि हर बात शान्ति पूर्वक कही जा सकती है , एक बार कहकर तो देखें .


कल एक अहिन्दी भाषी दोस्त कह रहे थे कि उनके चार पांच सौ दोस्त तो बन गए पर वो हैं बड़े कन्फ्यूज्ड क्योंकि लोगों ने अपनी पहचान उल्टी सीधी दे रखी है . अब पहचान छिपाने के पीछे जो कारण होंगे वो तो वो जाने उसकी वजह मैं नहीं जानता पर इतना स्पष्ट कर देवूं कि मेरी अपनी पहचान में कोई दुराव नहीं है . मैं तो जो हूं वही हूं और यही कहने का प्रयास करता हूं कि मेरे कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हुए हैं .


मर्यादा में रहकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मैं समर्थन करता हूं .

सुबह हो गई , अब प्रातःकालीन सभा स्थगित ....

सह अभिवादन : Manju Pandya.

आशियाना  आंगन , भिवाड़ी.

2 अगस्त 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशन २ अगस्त २०१८.