-
मेरी ही मति मारी गई थी
----------------------- जो जाने क्या लेने को ट्रेन से उतर गया , प्लेटफ़ार्म पर इधर उधर नज़र डाली कोई ज़्यादा आमद रफ़्त भी नहीं थी . वैसे आजकल ऐसे सूने प्लेटफ़ार्म होते नहीं हैं पर उस दिन तो तो ये ही हाल था , शायद किसी छोटे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म था . ज़रा दूरी पर ही पीने के पानी का नल दीख गया वहाँ जाकर पानी पी लिया हालांकि ये अपने आप से पूछता रहा कि आजकल तो बोतल बंद पानी डब्बे में ही मिल जाया करता है फिर पानी की खोज क्यों की प्लेटफ़ार्म पर जाकर पर आगे जो चक्कर होना था वो ही मुझे लिवा ले गया शायद बाहर .
लौटने पर फिर एक संकट का सामना करना पड़ा , उतरा कौनसे डिब्बे से था ये न समझ आवे बात और दिमाग़ पर बोझ बढ़ता जावे . यात्रा में साथ कौन कौन थे ये सोचने के लिए दिमाग़ पर ज़ोर डालूँ पर समझ न आवे बात . इतना याद आया कि काला सूटकेस था उसकी खोज में भटकता रहा , एक जगह कुछ रेल यात्रियों ने माना कि यहां रखा था काला सूटकेस पर कोई अन्य यात्री उठा ले गया ऐसा वो बोले . अब ये तय हो गया कि जगह तो मिल गई पर सामान का कुछ अता पता नहीं है , अब आख़िरी उम्मीद बची थी जेब में रखे बटुए से पर उसका भी अंजाम बताता हूं .
चलती गाड़ी में एक हाथ से ऊपर की बर्थ की ज़ंजीर पकड़ी और पैंट की जेब में दूसरा हाथ डाला तो जेब भी ख़ाली थी . कुछ आइ ड़ी के बतौर कार्ड और डेबिट कार्ड थे उस बटुए में उनके बिना क्या बनेगी बात ये दिक़्क़त दरपेश थी . क़मीज़ की जेब में टिकिट अलबत्ता था पर उसको मैं बाँच नहीं पा रहा था . आधार कार्ड अभी तक बनवाया नहीं था नहीं तो वो भी चला गया होता ऐसे में . अब ऐसे में चलती का नाम गाड़ी , मैं बैठ भी नहीं पा रहा था , झोटे खा रहा था और चले जा रहा था . स्थिति कठिन थी और इस स्थिति से निबटना अब तो बूते से बाहर लग रहा था . पर अब ऐसे में भी कुछ न कुछ तो करना ही है यही संकल्प था मन में .
ऐसी नौबत पहले कभी आई नहीं नहीं थी कि यात्रा के बीच में ऐसा साधन विहीन और अकेला हो गया होवूं पर उस दिन तो ऐसा ही हो गया , अब क्या तो करो आप ! क्या करो और क्या न करो , झेलो हालात को और क्या .
पर इसी बीच तक़दीर ने साथ दिया , उधर शायद इंजन ड्राइवर ने ब्रेक लगाया , इधर मेरी गर्दन ने झटका खाया और मैं वर्तमान में लौट आया , भिवाड़ी की ही बात है सब कुछ इंटैक्ट है ये घोड़ा बेच नींद से बाहर आकर समझ आया पर ये झंझावात भी बहुत कुछ सीख दे गया ये आगे कभी बात साफ़ करूंग़ा , आप तो बाँचे जाओ .
आशियाना आँगन से नमस्कार 🙏
बज गई घंटी 🔔
नोट : क़िस्सा ब्लॉग पर भी डालूँगा , आप राय देवें क्या इस लायक है ?
सुमन्त पंड़्या
@ भिवाड़ी
शुक्रवार १७ फ़रवरी २०१७.
#स्मृतियोंकेचलचित्र #भिवाड़ीडायरी#स्मृतियोंकेचलचित्र मेरी ही मति मारी गई थी ----------------------- जो जाने क्या लेने को ट्रेन से उतर गया , प्लेटफ़ार्म पर इधर उधर नज़र डाली कोई ज़्यादा आमद रफ़्त भी नहीं थी . वैसे आजकल ऐसे सूने प्लेटफ़ार्म होते नहीं हैं पर उस दिन तो तो ये ही हाल था , शायद किसी छोटे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म था . ज़रा दूरी पर ही पीने के पानी का नल दीख गया वहाँ जाकर पानी पी लिया हालांकि ये अपने आप से पूछता रहा कि आजकल तो बोतल बंद पानी डब्बे में ही मिल जाया करता है फिर पानी की खोज क्यों की प्लेटफ़ार्म पर जाकर पर आगे जो चक्कर होना था वो ही मुझे लिवा ले गया शायद बाहर .
लौटने पर फिर एक संकट का सामना करना पड़ा , उतरा कौनसे डिब्बे से था ये न समझ आवे बात और दिमाग़ पर बोझ बढ़ता जावे . यात्रा में साथ कौन कौन थे ये सोचने के लिए दिमाग़ पर ज़ोर डालूँ पर समझ न आवे बात . इतना याद आया कि काला सूटकेस था उसकी खोज में भटकता रहा , एक जगह कुछ रेल यात्रियों ने माना कि यहां रखा था काला सूटकेस पर कोई अन्य यात्री उठा ले गया ऐसा वो बोले . अब ये तय हो गया कि जगह तो मिल गई पर सामान का कुछ अता पता नहीं है , अब आख़िरी उम्मीद बची थी जेब में रखे बटुए से पर उसका भी अंजाम बताता हूं .
चलती गाड़ी में एक हाथ से ऊपर की बर्थ की ज़ंजीर पकड़ी और पैंट की जेब में दूसरा हाथ डाला तो जेब भी ख़ाली थी . कुछ आइ ड़ी के बतौर कार्ड और डेबिट कार्ड थे उस बटुए में उनके बिना क्या बनेगी बात ये दिक़्क़त दरपेश थी . क़मीज़ की जेब में टिकिट अलबत्ता था पर उसको मैं बाँच नहीं पा रहा था . आधार कार्ड अभी तक बनवाया नहीं था नहीं तो वो भी चला गया होता ऐसे में . अब ऐसे में चलती का नाम गाड़ी , मैं बैठ भी नहीं पा रहा था , झोटे खा रहा था और चले जा रहा था . स्थिति कठिन थी और इस स्थिति से निबटना अब तो बूते से बाहर लग रहा था . पर अब ऐसे में भी कुछ न कुछ तो करना ही है यही संकल्प था मन में .
ऐसी नौबत पहले कभी आई नहीं नहीं थी कि यात्रा के बीच में ऐसा साधन विहीन और अकेला हो गया होवूं पर उस दिन तो ऐसा ही हो गया , अब क्या तो करो आप ! क्या करो और क्या न करो , झेलो हालात को और क्या .
पर इसी बीच तक़दीर ने साथ दिया , उधर शायद इंजन ड्राइवर ने ब्रेक लगाया , इधर मेरी गर्दन ने झटका खाया और मैं वर्तमान में लौट आया , भिवाड़ी की ही बात है सब कुछ इंटैक्ट है ये घोड़ा बेच नींद से बाहर आकर समझ आया पर ये झंझावात भी बहुत कुछ सीख दे गया ये आगे कभी बात साफ़ करूंग़ा , आप तो बाँचे जाओ .
आशियाना आँगन से नमस्कार 🙏
बज गई घंटी 🔔
नोट : क़िस्सा ब्लॉग पर भी डालूँगा , आप राय देवें क्या इस लायक है ?
सुमन्त पंड़्या
@ भिवाड़ी
शुक्रवार १७ फ़रवरी २०१७.
#स्मृतियोंकेचलचित्र #भिवाड़ीडायरीमेरी ही मति मारी गई थी
----------------------- जो जाने क्या लेने को ट्रेन से उतर गया , प्लेटफ़ार्म पर इधर उधर नज़र डाली कोई ज़्यादा आमद रफ़्त भी नहीं थी . वैसे आजकल ऐसे सूने प्लेटफ़ार्म होते नहीं हैं पर उस दिन तो तो ये ही हाल था , शायद किसी छोटे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म था . ज़रा दूरी पर ही पीने के पानी का नल दीख गया वहाँ जाकर पानी पी लिया हालांकि ये अपने आप से पूछता रहा कि आजकल तो बोतल बंद पानी डब्बे में ही मिल जाया करता है फिर पानी की खोज क्यों की प्लेटफ़ार्म पर जाकर पर आगे जो चक्कर होना था वो ही मुझे लिवा ले गया शायद बाहर .
लौटने पर फिर एक संकट का सामना करना पड़ा , उतरा कौनसे डिब्बे से था ये न समझ आवे बात और दिमाग़ पर बोझ बढ़ता जावे . यात्रा में साथ कौन कौन थे ये सोचने के लिए दिमाग़ पर ज़ोर डालूँ पर समझ न आवे बात . इतना याद आया कि काला सूटकेस था उसकी खोज में भटकता रहा , एक जगह कुछ रेल यात्रियों ने माना कि यहां रखा था काला सूटकेस पर कोई अन्य यात्री उठा ले गया ऐसा वो बोले . अब ये तय हो गया कि जगह तो मिल गई पर सामान का कुछ अता पता नहीं है , अब आख़िरी उम्मीद बची थी जेब में रखे बटुए से पर उसका भी अंजाम बताता हूं .
चलती गाड़ी में एक हाथ से ऊपर की बर्थ की ज़ंजीर पकड़ी और पैंट की जेब में दूसरा हाथ डाला तो जेब भी ख़ाली थी . कुछ आइ ड़ी के बतौर कार्ड और डेबिट कार्ड थे उस बटुए में उनके बिना क्या बनेगी बात ये दिक़्क़त दरपेश थी . क़मीज़ की जेब में टिकिट अलबत्ता था पर उसको मैं बाँच नहीं पा रहा था . आधार कार्ड अभी तक बनवाया नहीं था नहीं तो वो भी चला गया होता ऐसे में . अब ऐसे में चलती का नाम गाड़ी , मैं बैठ भी नहीं पा रहा था , झोटे खा रहा था और चले जा रहा था . स्थिति कठिन थी और इस स्थिति से निबटना अब तो बूते से बाहर लग रहा था . पर अब ऐसे में भी कुछ न कुछ तो करना ही है यही संकल्प था मन में .
ऐसी नौबत पहले कभी आई नहीं नहीं थी कि यात्रा के बीच में ऐसा साधन विहीन और अकेला हो गया होवूं पर उस दिन तो ऐसा ही हो गया , अब क्या तो करो आप ! क्या करो और क्या न करो , झेलो हालात को और क्या .
पर इसी बीच तक़दीर ने साथ दिया , उधर शायद इंजन ड्राइवर ने ब्रेक लगाया , इधर मेरी गर्दन ने झटका खाया और मैं वर्तमान में लौट आया , भिवाड़ी की ही बात है सब कुछ इंटैक्ट है ये घोड़ा बेच नींद से बाहर आकर समझ आया पर ये झंझावात भी बहुत कुछ सीख दे गया ये आगे कभी बात साफ़ करूंग़ा , आप तो बाँचे जाओ .
आशियाना आँगन से नमस्कार 🙏
बज गई घंटी 🔔
नोट : क़िस्सा ब्लॉग पर भी डालूँगा , आप राय देवें क्या इस लायक है ?
सुमन्त पंड़्या
@ भिवाड़ी
शुक्रवार १७ फ़रवरी २०१७.
#स्मृतियोंकेचलचित्र #भिवाड़ीडायरी।
भिवाड़ी डायरी
No comments:
Post a Comment