बातों बातों में : न बखत का पता , न दूरी का .
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ये तब की बात है जब वसुंधरा कॉलोनी में बसावट शूरु हो रही थी . ये ही कोई सत्तर या अस्सी के दशक की शरुआत की ही बात होगी . रघुबर भाई ने बड़ा सुन्दर नया मकान बनाया था . बड़े मामाजी स्टेशन वाले और मामी तो पदेन वहां थे ही छुट्टनलाल जीजाजी भी वहां आए हुए थे . सुबह का बखत था बड़े मामाजी और छुट्टनलाल जीजाजी दोनों में आपसी सलाह हुई ,” आओ डोली आयीं ,” अर्थात चलो घूम आएं . दोनों ही वय प्राप्त सीनियर सिटीजन दक्षिण दिशा में टोंक रोड पर घूमने को निकल पड़े . मामाजी का वही लिबास याद आ जाता है , नींचे एक अंगोछा , उरेप का जेब वाला बनियान और कंधे पर एक लाल गमछा , इससे मिलता जुलता ही लिबास छुट्टन लाल जीजाजी का . पैरों में पगरखी याने देशी जूती .
दोनों बात करते करते चलते रहे , बातें चलती रहीं और घर से दूरी बढ़ती रही . बातों बातों में दोनों में से किसी एक को भी ये ख़याल नहीं था कि घर लौटकर भी जाना है और उसके लिए अपनी सामर्थ्य बचाकर भी रखनी है .
अब कब हुआ उनका ध्यान भंग ?
---------------------------------- ध्यान भंग हुआ तब जब एक बड़ा चौराहा और बस्ती आ गई , ट्राफिक बढ़ा हुआ लगा . जब उन्होंने बातें रोक कर आजू बाजू देखा .
वो दोनों तो सांगानेर पहुंच गए थे . अब न तो उन्हें हवाई अड्डे से काम था न ही सांगानेर टाउन से , उन्हें तो जाना था लौटकर वसुंधरा कालोनी . अब लगा कि वापिस पैदल तो इतनी दूरी तय करना मुश्किल होगा और किया दूसरा ही उपाय . सांगानेर जयपुर के बीच सिटी बस तब भी चला करती थी जिसका लाल रंग हुआ करता था .
आखिरकार बस पकड़कर घर आए .
ये सब लोग इतिहास बन गए पर मेरी तो यादों में बसे हैं .
(क्रमशः )
सुप्रभात .
मेरी लेखन प्रेरणा : Manju Pandya
सुमन्त पंड्या .
@ गुलमोहर , जयपुर .
सोमवार , 8 फरवरी 2016 .
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