क्या सीखा स्कूल में ...?
ये तब की बात है जब पड़ोस के स्कूल में बेटे को दूसरे दर्जे में दाखिला दिलवाया था । बच्चे तब भी पेन्सिल से लिखा करते थे । बेटे को घर से पेन्सिल , इरेजर आदि सामान बस्ते में रखकर भेजते । पेन्सिल स्कूल में खो जाती । मैं समझाता " बेटा , ध्यान से अपनी चीजें रखकर लाया कर ।" उसका भोला जवाब होता :" नहीं मिली पापा ।" अगले दिन दूसरी नई पेन्सिल देकर भेजते , नतीजा वही , वो भी खो जाती । कैमलिन की एच बी पेन्सिल छह रुपये की एक दर्जन आया करती थी । रोज पेन्सिल खो जाने का ये सिलसिला कुछ ऐसा चला कि एक दर्जन भर पेन्सिल जल्दी ही बीत गई और जीवन संगिनी ने मुझे नया पैकेट लाकर रखने को कहा । मैंने कहा :" वो तो मैं लाकर रखूँगा ही पर एक बार स्कूल में भी बात कर के आता हूं ।" मैंने प्रिंसीपल साहबा से मिलना मुनासिब समझा ताकि वे क्लास टीचर से मिलकर या कहकर कोई उपाय करें ताकि क्लास से चीजें पार होना बंद हों ।
सरोज माला माथुर , हां यही नाम था उनका भली महिला थीं प्रिंसिपल साहबा , उन्होंने मेरी बात अच्छे से सुनी और चलते चलाते ये टिप्पणी भी कर दी ,
," आपका बच्चा भी थोड़ा लापरवाह है । "
अब हम तो उस जमाने के लोग हैं जो अपने बच्चे को ' अपना ' नहीं कहते 'आपका ' कहते हैं । पर यहां तो लापरवाही के अवगुण की बात थी सो मेरा ही हुआ । अच्छा है तो आपका है और लापरवाह है तो मेरा ही हुआ , और वो बात तो तब की क्या आज भी सही है । है तो है !
पर मैंने तब एक बात कही थी जो आज तक याद है :
" मेरा तो लापरवाह ही ठीक है , इसका चीजें खो देना मैं गवारा कर लूंगा , मुझे तकलीफ तो उस दिन होगी जब ये दूसरे बच्चों की चीजें उठाकर लाएगा । आखिर बच्चे स्कूल में क्या सीखते हैं । "
सहयोग : Manju Pandya
सुप्रभात .
सुमन्त
गुलमोहर , बापू नगर , जयपुर .
6 फरवरी 2015 .
#लापरवाह
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