" मैं केवल आज में विश्वास रखता हूं , ना भूतकाल में और न ही भविष्य में । बस इतना ही बहुत है ।"
कल सायंकाल एक अभिन्न मित्र से लम्बी चर्चा के बाद उनकी ओर से आया ये आप्त वाक्य । आज भोर की सभा में मैं इसे अपनी ओर से संयुक्त विज्ञप्ति के रूप में जारी करता हूं । संयुक्त विज्ञप्ति इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वाक्य उनका है और मैंने सहमति के हस्ताक्षर किए है । मित्र का नामोल्लेख जानबूझकर नहीं कर रहा क्योंकि वे सोशल मीडिया पर होकर भी किसी चर्चा का केंद्र नहीं बनना चाहते । प्रसारण का दायित्व उन्होंने मुझे दिया भी नहीं है , शीर्षस्थ वाक्य को मूल्यवान जानकर मैंने ही उठा लिया है ।
कितनी गहरी बात है कि वर्तमान में रहें अपण । मैं बस इतना सा और जोड़ना चाहता हूं कि वर्तमान में रहें और प्रसन्न रहें ।
बात को तो और खोलकर समझाऊंगा पर अभी अनायास सभा स्थगित करनी पड़ रही है । वजह आपको पता है ।
सुप्रभात 🌻
जय भोलेनाथ । 🔔🔔
गुरुवार २७ अप्रेल २०१७ ।
दोपहर का अपडेट :
अब रेणु को क्या जवाब देवूं । वो कहती है :
" परंतु मामा हमारी संस्कृति तो भूत काल से सीखते हुए वर्तमान में रहते हुए भविष्य की योजना बनाने की है ना? "
मैंने मान ली बात , और क्या करता !
और इस प्रसंग में घोर असमंजस में डालने वाली टिप्पणी मिली शंकर लाल जी की । उन्होंने लिखा :
" बहुत ही गहरी बात है। आजकल इस पर बाबाओं से लेकर ..और भी बडे बडो और खासतौर पर मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि के विदुषकों से सुनकर मै भी कयी दिनों से व्यवहार मे लाने की कौशिश मे लगा था कि अचानक असमंजस मे फंस गया! कल दिन मे कोई बारह एक बजे के आस पास का. मेघराज तावड का फोन आया कि साथी शहर से लगती पंचायत बडगांव के अंतर्गत वहीं बगल मे निर्जन पहाडी पर कोई दसेक साल से आसपास के ग्रामीण इलाके से आकर आकर शहर मे मजदूरी करने और दूसरे छोटे मोटे काम करने वाले कोई दो हजार लोगों के कच्चे घरों और झोंपडियों को अतिक्रमण माधते हुये प्रशासन ने ध्वस्त कर दिये है और वहां लोग,खासकर महिलायें और बच्चे धूप मे अपने बच्चे खुचे घरेलू सामान के साथ निसहाय पडे हैं। वहां से कुछ लोग फोन पर मदद मांग रहे हैं। हमलोग कुछ दूसरे साथियों के साथ वहां पहुचे। वहां का नजारा देख कर, उनके वहां आकर बसने की मजबूरी और वो सिर छिपाने के लिये हजार फुट उंची पहाडी के ढलान से चोटी तक बनाये झोंपडों को बनाने के संघर्ष की दास्तानें और फिर इस कहर के बाद के हालात के बाद से सारी कौशिश के बाद वर्तमान मे जीने के साथ प्रसन्नता से रहने का प्रयास विफल हो गया है। इसी बात पर बार बार यह भी मन मे आ रहा है कि वो लोग इस वर्तमान के साथ प्रसन्नता का बौझ कैसे ढोयें ? कोई उपाय? "
अब मैं क्या कहता भला , मुझे मानना पड़ा :
आप थे शंकर जी । बहुत आभार इस टीका के लिए । प्रसन्नता भी वाक़ई में बोझ है इन लोगों के लिए ऐसे हालात में । संघर्ष के अलावा और कोई तो रास्ता नहीं सूझता ऐसे में । लगता है ये मानवता के ह्रास का समय है ।
इतना ही विचार हुआ आज दिन इस संयुक्त विज्ञप्ति पर । अब आगे देखते हैं कि वर्तमान में प्रसन्न कैसे रहा जा सकता है ।
डूंगरपुर से संध्या वंदन ।
गुरुवार २७ अप्रेल २०१७ ।
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