" मैं हाथां पोट उचा आयो .." ---- राजस्थानी बोध कथा .
आज ये बोध कथा याद आ गई जो यहां साझा कर रहा हूं . कभी काकाजी ** से सुनी थी . कथा का सन्दर्भ पता होने पर ये पंक्ति अपने आप में एक कहावत के रूप में भी बरती जा सकती है .
कथा और सन्दर्भ :
एक राजा अपने राज्य में रात को भेस बदलकर घूमता और प्रजा जन का प्रत्यक्ष हाल जानने का प्रयास करता था . ऐसे उसको अपने राज्य के अंदरूनी हालात का भी पता चलता और अपने लिए नीतिगत निर्णयों में भी मदद मिलती .
एक रात की बात :
रोज की तरह राजा बदले हुए भेस में महल की चार दीवारी के पास से गुजर रहा था कि उसने एक हरकत देखी . महल की ही एक सेविका अनाज की एक भारी पोट चुरा कर ले जा रही थी . पोट इतनी भारी थी कि उसके लिए उठाना मुश्किल था . साधारण राहगीर प्रतीत होने वाले राजा ने इस सेविका की मदद की और उचा कर उसके सिर पर रखवा दिया . वो चोरी का अनाज अपने साथ ले जाने में सफल हो गई .
राजा सब कुछ जान भी गया और चुप भी रहा .
अगले दिन की बात .
अगले दिन वो ही सेविका किसी मामले में भाव दिखाने लगी और राज्य छोड़ कर चले जाने की धमकी भी दे बैठी , तिस पर राजा ने जो कहा वही है कहावत .
राजा ने कहा :
" मैं हाथां पोट उचा आयो जद भी ईं गांव ( राज ) नै छोड़ अर जाय छै , तो कोई पीस पो अर खवा दे ऊं गांव मैं जा अर बस जे ."
अभिप्राय: कि मैं अपने हाथों से तेरी पोट उचा आया , फिर भी इस गांव को छोड़ कर जाती है तो फिर किसी ऐसे गांव / राज में जाकर बसना जहां का राजा अनाज पीस कर और खाना बना- पका कर भी खिला देवे .
** काकाजी अर्थात हमारे पिता जी .
बोध कथा समाप्त .
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