बनस्थली डायरी : भूली बिसरी यादें .
आज बिलकुल छोटी छोटी बातें बताऊंगा , शायद इनसे कोई अर्थ निकले . कुछ बातें मेरी जुबान पर रहीं और अभियक्ति का अंग बन गईं वही कहता हूँ . अब क्योंकि सेवा काल समाप्त करके आया हूं अतः आखिरी बात पहले . जब भी क्लास ख़तम होने का समय होता मैं कहता :" इसी हंसी ख़ुशी के वातावरण में प्रातःकालीन सभा समाप्त की जाती है " , यह वाक्य इतना लोकप्रिय रहा मेरी कक्षाओं में कि मुझे तो प्रस्ताव का आदि पद ही बोलना पड़ता बाकी तो मेरे सभासद मेरी छात्राएं स्वयं ही पारित कर देती थीं ये प्रस्ताव . एक शब्द मेरी जुबान पर ही रहता , शब्द क्या था वह तो एक विचार था" सर्वानुमति " यह मैंने " कनसेनसस " के बदले बरता था . सब कोई प्रस्ताव सर्वानुमति से ही पारित होते यह तो क्लास में रोज बरोज का चलन होता था . मुझे अगले दिन न आना होता तो उसकी बाबत सूचना यह कहकर देता ," आपको यह जानकर अपार हर्ष का अनुभव होगा कि कल............" हालांकि शायद इतना हर्ष वास्तव में उन सूचित लड़कियों को होता नहीं . एक और शब्द था ' मंच अधिग्रहण ' ये मेरी जुबान पर ही रहता . आयोजन किसी और विभाग का हो तो भी उसमे ऐसे भाग लेना जैसे अपना ही आयोजन हो और यदि मंच मिल जाए तो वहां से अपनी बात कहना आखिर लंबी अवधि तक " राष्ट्र सभा " का मैं सलाहकार अध्यापक भी तो रहा था . मैंने एक परिपाटी को केवल अपनी क्लास के लिए चलाया कि क्लास में आने के लिए दरवाजे पर रुककर कोई न पूछे और सवाल पूछने के लिए खड़ा न हो , बैठे बैठे ही संवाद हो . न अनुमति आने के लिए मांगी जाय , न जाने के लिए मांगी जाय . जरूरी नहीं कि लड़की अपनी हर बात हमें बताए अतः जाना चाहे तो बिना वजह बताए भी चली जाए .
एक सवाल जो मैंने अपने विद्यार्थी काल में बहुत सुना था , अध्यापक बनकर कभी नहीं पूछा , " फादर क्या करते हैं? " क्यों पूछे ऐसे सवाल , हमें ऐसा पूछकर क्या भेदभाव करना है .
स्मृतियां अनेक हैं, लंबी बात एक साथ कोई सुनना नहीं चाहता. आज के इति .
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