Sunday, 21 January 2018

या कों अखीर काराऊंगो : जयपुर डायरी .



या कों अखीर कराउंगो .....  !

ये है हिण्डौन , फाजिलाबाद , दुब्बी , बुर्जा  इलाके के किसी एक भोले  किसान का कहा हुआ  वाक्य, जो उसने अपने बेटे के बाबत कहा था और वो बात मुझे बताई थी फूफाजी गंगा सहाय जी ने जो जयपुर में प्राथमिक स्कूल नादिर जी का मंदिर , नाहर गढ़ रोड  में मेरे शिक्षक और मेरे आदि गुरु थे  और बात पते की कहते थे . ये बात मैंने सुनी होगी कोई उन्नीस सौ पचपन छप्पन के आस पास . ये एक ऐसा ध्येय वाक्य है जो मुझे बार बार आज भी याद आ जाता है .

" या कों अखीर कराउंगो ...."

अरे... इसका अर्थ तो बताया ही नहीं , क्या कहना चाहता था किसान ?

क्या मतलब निकला इस वाक्य का ?

मतलब असल में तो बहुत गहरा है जिसका सम्बन्ध शिक्षा , रोजगार और जीवन के अन्यान्य पहलुओं से है .

आज उन्हीं फूफाजी का प्रपौत्र हितेश , मेरा फेसबुक फ्रेंड , कोई इतना बड़ा पैकेज लेकर किसी प्रतिष्ठान में काबिज हुआ है कि पूरी बिरादरी में हल्ला है . मुझे रकम याद न रही नहीं तो वो भी यहां लिख डालता .

और एक दिक्कत ये भी है कि रकम में मैं जरा समझता भी कम हूं .

वो ही जानता होता तो पढ़ाने का काम क्योंकर हाथ में लेता , बैंक में नौकरी न कर लेता .

बहर हाल मैं बहुत खुश हूं कि अपने बच्चे भी ये पैकेज प्रतियोगिता में औरों को पछाड़ कर आगे बढ़ने लगे हैं .

फूफाजी का कहा वाक्य जो वास्तव में एक किसान का कहा वाक्य था में  

" अखीर " का अभिप्राय था अल्टीमेट . उसकी चाहत थी कि वो शिक्षा के क्षेत्र में बच्चे को अंतिम छोर तक पहुंचाए जिसके बाद हासिल करने को कुछ भी न बचे . बस ' इतिहास के अंत ' की तर्ज पर ' शिक्षा का अंत '

मैंने ये भी जानना चाहा था कि उस किसान की नजर में वो छोर था कौनसा ?  वो ' चौदहवीं' और ' सोलहवीं 'क्लास की पढ़ाई को शिक्षा का वो छोर मानता था . इतने बरस पढ़ाई में लगाकर वो  डिग्रियां मिल जाया करती थीं उन दिनों  जिन्हें अपने नाम के साथ मांडकर लोग इतराया करते थे .

पर मैं ये बातें सोचते सोचते ये कहने को मजबूर हो जाता हूं कि कि इन काले अक्षरों की पढ़ाई ने आज बहुत कुछ नष्ट भी तो कर दिया है जीवन अनुभव से प्राप्त स्वर्णाक्षरों में अंकित ' जीवन मूल्य' तंगड़ में  तुलते हैं और आदमी की कदर काले धन की मात्रा से होती है . हुनर भी पैसे से ही तुलता है . अभी अभी एक फेसबुक मित्र ने एक शेर भेजा  है जो यहां कहकर मजबूरी में प्रातःकालीन सभा का स्थगन प्रस्तावित करता हूं

" मेरी तरफ कुछ सिक्के उछाल कर ।

लो वो मेरा ईमान आजमाता है ।।"

और उसी मित्र का एक ये शेर भी देख लीजिए :

"मैं ईमान बेच देता तो  ,

मैं भी अमीर हो जाता ।।"

( आभार दर्द गढ़वाली )

" अच्छे दिनों " की सराहना के साथ जीवन मूल्यों को नमन करते हुए .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

वैचारिक अष्पष्टता के लिए क्षमा याचना सहित

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