शाम का झुटपुटा , मैं जीवन संगिनी के साथ आँगन का एक फेरा लगाकर लगभग सूने बगीचे में एक बैंच पर बैठ गया था ताकि नित्य नियम के अनुसार वो एक आध चक्कर और लगा लेवें और फिर हम लोग लौटें अपने टॉवर में इस दौरान मैं अपने मोबाइल को निकालकर देखने लगा कि कहीं कोई स्वजन का आया सन्देश तो दर्ज नहीं है इसमें .
वैसे इसमें भी चक्कर ही है , कभी नैटवर्क होवे और कभी न भी होवे .खैर अब आवें आगे की बात पर .
मैं बजरिए नैटवर्क हीरा मोती खोजने की नाकाम कोशिश कर ही रहा था और मेरा ध्यान इस तरफ था नहीं कि वहां कौन आया कौन नहीं आया तभी मुझे लगा कि कोई प्राणी मेरे सामने वाली बैंच पर आकर बैठा . मुझे ये तो लगा कि कोई युवा है पर कोई लड़का है या लड़की ये भी अंदाज नहीं पड़ा , पर उससे मेरा वास्ता नहीं था मैं तो व्यक्ति विशेष की बाट जोहने को बैठा था . किसकी ये तो मैं पहले ही बता चुका हूं .
सवाल सुनकर मेरा ध्यान बंटा और तब मैं जाना कि ये एक लड़की है और मुझसे ही पूछ रही है :
“अंकल आप सर्विस में हैं क्या ? “
लड़की से बात करना मुझे हमेशा अच्छा लगता है , क्यों ये बताने की शायद जरूरत नहीं है , और अब तो लड़की खुद कुछ पूछ रही है तो बात मुझे करनी ही थी मैं तो खाली ही बैठा था पर पर सवाल मुझे समझ नहीं आ रहा था . मैं बोला :
“ ऐसा क्यों पूछ रही हो ?”
और उसका जवाब था :
“ आपने यूनिफार्म पहनी है .”
ये सुनकर मुझे हंसी आ गई और मैंने स्पष्ट किया कि ये मेरी यूनिफार्म नहीं है , सायंकालीन भ्रमण के लिए ऐसे ही मांगकर पहन ली है और ऐसे में अनुज और महिमा का जिक्र आ गया .असल में अपण हैं भी तो उनमें से जो गंगा गए गंगा दास , जमना गए जमना दास , ख़ैर वो हो गई बात . असल में वो लड़की ख़ुद ट्रेनी सर्विस इंजीनियर थी पड़ोस की एक कम्पनी में जिससे वो यूनीफ़ार्म को पहचान रही थी . अब मैं बन गया बनस्थली का ब्राण्ड एम्बेसेडर जो कभी किसी ने मुक़र्रर नहीं किया अलबत्ता . लड़की थोड़ा बहुत वहां के बारे में जानती निकली . एक बारी उसका दाख़िला भी हो गया बताया पर फिर उसने तकनीकी शिक्षा अन्यत्र ग्रहण की थी . अब वार्ता में अपनी अपनी पहचान थी हम दोनों की और तदनुरूप ही दोनों के बीच बातचीत हुई .
ज्यादा वक़्त नहीं लगा जीवन संगिनी घूम घाम कर लौट आई और जब मैंने मिलवाया तो हमेशा की तरह उनका वात्सल्य उमड़ पड़ा मानों मेरी ही कोई लड़की उन्हें फिर से मिल गई हो . कभी एक दूसरे के घर आवें जावें ये भी बात हुई पर काम क़ाज़ी लोगों को फ़ुरसत का तो घाटा ही होता है . उस दिन तो इत्ती ही बात हुई .
इस प्रसंग के समर्थन में एक फ़ोटो भी संलग्न करूंग़ा .
समान्य मुलाकात को रहस्यमय बनाने की कला सहित्यकार में ही हो सकती है .पढ़ने को मजबूर हुआ .धन्यवाद .
ReplyDeleteआभार चंद्र शेखर आपके ब्लॉग पर भ्रमण के लिए और इस इस उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए ।
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