पहले ही दिन इम्तिहान ....? भाग दो :
कल की ही पोस्ट में मैंने बेटे की अनायास कही बात बताई थी कि बिना पढ़ाए थोपी जाने वाली परीक्षा में बालक सहयोग नहीं करना चाहता . वह कहता है ," पढ़ाया, लिखाया कुछ नहीं , पहले ही दिन इम्तिहान ? .... नहीं देना इम्तिहान . "
इस सवाल से मुझे तो यह सीख मिल गयी थी कि परीक्षा लेने का अधिकार परीक्षक को तभी मिलना चाहिए जब उसे पढ़ाने का अनुभव हो . बालक को भी जो पढ़ावे, पहले पढ़ावे फिर उसके बाद ही परीक्षा लेवे . क्या छोटे छोटे बच्चों की भी शाला में प्रवेश से पहले परीक्षा ली जानी चाहिए ? यह मुद्दा तो शिक्षा जगत में भी विचारणीय रहा और विधि जगत में भी . शिक्षा में बराबरी होनी चाहिए या समाज जैसी गैर बराबरी शिक्षा जगत में भी रहनी चाहिए , यह तो आज भी ज्वलंत प्रश्न है . क्या ऐसा कहना ठीक रहेगा कि शिक्षा जगत केवल शिक्षा ही प्रदान करे और उसकी उपादेयता और मूल्यांकन समाज पर छोड़ देवे . आज के सन्दर्भ में तो यह कहेंगे कि उद्योग और बाजार शिक्षा की भूमिका तय कर रहे हैं . ऐसा क्यों हो कि बच्चा पड़ोस के स्कूल में न पढकर दूरदराज के स्कूल में पढने जावे . शिक्षा और प्रशिक्षण का क्या नाता हो ? शिक्षा में क्या कुछ नवाचार हो ? क्या आज उपलब्ध संसाधन किसी नवाचार के लिए सहायक हैं, पर्याप्त हैं अथवा नहीं यह भी प्रश्न हैं .
आज उस बात को कई दशक बीत गए , जिस बेटे का ऊपर उल्लेख आया है उसने शैक्षिक चिंतन में नाम कमाया और मेरे विश्राम का समय आ गया , विराम का समय आ गया . शैक्षिक जगत में आज जैसी अराजकता है वह चिंता में डालने वाली है . मैंने क्या सीखा और क्या किया वो तो छोटी छोटी बातें हैं जो आगे कहूंगा , आज के लिए इति .
क्षमता सुसुप्त तब बच्चे की
ReplyDeleteउन गुरूजनों ने पहिचानी।
है तर्क आज भी सास्वत यह
बिन पढ़े परीक्षा क्यों देनी।।
औपचारिक शिक्षा की महत्ता क्या
है अब भी अस्पष्ट और अनजानी।
इस शिक्षा परीक्षा व्यवस्था में
सफलता असफलता सब बेमानी।।
उद्धरण अनेकों सामने हैं
जैक मां, साह अमित, धीरू अम्बानी।।
टिप्पणी के लिए आभार , अपना परिचय भी दीजिए ।
Deleteअननॉन मत रहिए ।
भाई साहब मैं हूं जोशी विनोद।
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