पिता : फुगनूस के फुग्गे .
पुत्र : अकल के आमलेट .
पिता : घामड़ धोंचू .
पुत्र : सड़े कद्दू .
और ये संवाद ऐसी ही शब्दावली में प्रगति पथ पर अग्रसर था कि पिता की पकड़ हो गई .
जीजी आई हुई थीं उनको हंसी तो बहुत आई पर बोली :
“ सुमन्त , तू बिगाड़ेगा इस बच्चे को , ये कोई बातचीत का तरीका है . “
मैंने क्या बचाव किया अपना वो तो अब बेमाने है उस बात को बहुत समय हो गया पर उस परिस्थिति का थोडा जिक्र यहां करना चाहता हूं . बच्चा बमुश्किल पढ़ना सीख ही रहा था और बाल साहित्य की उनदिनों जैसी भी पत्रिकाएं अड़ोस पड़ोस में उपलब्ध होती थीं वो पढ़ता था , जुटाता था और सहेजता था .
उसी दौर की एक ‘ लोट पोट ‘ नामक पत्रिका को वो घोट चुका था , मैंने भी वो पत्रिका देखी थी और उसी का नतीजा था जो ऊपर आपने देखा , किसी शास्त्रार्थ से कम नहीं था .
बच्चे जो कुछ बिगड़ने थे वो तो होनहार की बात , मैं उन्हें अपने साथ ही कितना रख पाया . बच्चों से होडां होड़ तब भी की और आज भी करता हूं .
दूसरी पारी :
राम जाने वो बाल पत्रिका अब भी आती है के नहीं पर इतना तय है कि उस पत्रिका के पात्र अब टी वी में जा घुसे है और इन पात्रों से अच्छा परिचय अविरल और असीम का हो गया है . मामा जिनसे किताबों में मिलता था भानजे टी वी के परदे पर मिलते हैं .
नए जमाने की बातें देखकर पुरानी बातें यूं ही याद आ जाया करती हैं . ये जरूर है कि तब से अब विपुल और बेहतर बाल साहित्य उपलब्ध है और इन बच्चों को तो इनकी नानी और अम्मा कहानी सुनाती भी है .
दोनों पारियों के बच्चों को याद करते हुए आज की अपराह्न कालीन सभा स्थगित .
बहुत खूब... पिता-पुत्र के पुराने-नये संवाद को जारी रखें।
ReplyDeleteआभार अविनाश , यदा कदा ऐसे उल्लेख आ ही जाते हैं ।
Deleteबुहुहुहू। एक यह भी तो था। बहरहाल आपके किस्से कितने मजेदार होते हैं।
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