ये तब की बात है जब मैं बेटे को पड़ोस के एक स्कूल में प्रवेश दिलवाने गया था . प्रवेश की औपचारिकता से पहले यह आवश्यक बताया गया कि एक परीक्षा देनी होगी . उस समय मैं ही आवेदन लेकर गया था अतः मैं तो प्रिंसिपल महोदया के पास बैठा रहा और और एक अन्य अध्यापिका बालक को परीक्षा के लिए दूसरे कक्ष में ले गई . भला हो उन स्कूल वालों का कि मुझे कोई परीक्षा नहीं देनी थी वरना बड़े स्कूलों में तो माता पिता को भी परीक्षा देनी होती थी उन दिनों . खैर मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि देखे क्या नतीजा निकलता है तभी वो अध्यापिका लौटकर वापस आयीं और बच्चे को साथ लाईं , कहा : " इसने तो कुछ नहीं किया ." मैंने प्रश्नपत्र और उत्तर पुस्तिका दोनों देखे . वास्तव में बच्चे ने कुछ भी उत्तर नहीं लिखे थे , न सही और न गलत . जो कुछ पूछा गया था वह उसे आता था , यह मैं जानता था पर उसने उत्तर न लिखना मुनासिब समझा सो नहीं लिखा यह स्पष्ट था . अब क्या हो ? मैंने निर्णय प्रिंसिपल साहिबा पर छोड़ दिया . कक्षा एक का प्रगति विवरण उनके सामने था , कक्षा दो में प्रवेश दिया जाना था सो उन्होंने स्वीकृति दे दी और मेरी तात्कालिक चिंता दूर हो गई .
स्कूल में प्रवेश मिल गया था और मैं बेटे को लेकर घर लौट रहा था तब अकेले में मैंने उससे पूछा : " बेटा , उस पेपर में ऐसा तो कोई सवाल नहीं था जो तुझे न आता हो , फिर तूने इम्तिहान क्यों नहीं दिया ? "
उत्तर में बेटा जो बोला वो इस प्रकार था :" पढ़ाया लिखाया कुछ नहीं , पहले ही दिन इम्तिहान , नहीं देता इम्तिहान !!! “
जिस आत्मविश्वास से इम्तिहान न देने का तर्क उसने दिया था वह मुझे समझ में आ गया था.
बच्चे का जोरदार जवाब
ReplyDeleteआभार सुरेंद्र ।
Deleteआज फिर इस चर्चा को फ़ेसबुक पर साझा किया है ।
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