बनस्थली में अपने सेवाकाल के अन्तिम दशक में एक दिन वाणी मंदिर के सत्रह नम्बर के कमरे में मैं पहुंचा तो वहां प्रवेश प्रक्रिया चल रही थी , बड़ी गहमा गहमी थी . प्रवेश लेने वाली छात्राएं और उनके संरक्षक आ जा रहे थे . इसी भीड़ के बीच एक अधेड़ आयु की महिला मेरी ओर न जाने क्यों गौर से देख रही थी , मैंने देखते हुए भी कोई संज्ञान नहीं लिया . थोड़ी देर बाद वो मेरे से मुखातिब हुईं और पूछा ," आप पोलिटिकल साइंस के सर हैं ?" मैंने हां कहकर उनकी बात को स्वीकार किया तो वे तुरत बोलीं : " हम आपके इश्टूडेंट हैं सर ! " मैंने इतने बरसों बाद उनसे मिलने पर ख़ुशी जाहिर की और पूछा : " अब कैसे पधारना हुआ ? " उत्तर अपेक्षा के अनुरूप ही आया , वे अपनी बेटी को प्रवेश दिलवाने आईं थी लेकिन किसी और संकाय में . अब नए नए विषय चल पड़े थे नए नए संकाय शुरू हो गए थे . मेरे साथ तो ऐसा बहुत हुआ कि मां भी पढ़ने आई और आगे चलकर बेटी भी आई . मैंने भूआ को भी पढ़ाया , भतीजी को भी पढ़ाया .
उस दिन जब मुझे सत्रह नंबर के कमरे में वो पूर्व छात्रा मिली तो अपने गुरु मूर्ति साब बहुत याद आये और उनका सिद्धांत , आई नेवर डिस ओन माई स्टूडेंट .
प्रोफ़ेसर रमण मूर्ति हम लोगों के गुरुं थे . एक बार की बात हमारे एक साथी ने किताबों के बाजार में एक ऐसी किताब उतार दी जो शायद व्यावसायिक रूप से तो बड़े फायदे का सौदा थी पर शैक्षिक रूप से निहायत घटिया थी और पढने वाले को नुकसान भी पहुंचा सकती थी . विभाग में सब कोई इस किताब के लेखक साथी को लानत भेज रहे थे तब मूर्ति साब ने यह कहा था : " आई नेवर डिस ओन माय स्टूडेंट ."
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. मेरी भी तो सभी प्रकार की छात्राएं रहीं भला मैं किसी को क्यों नकारूं . हां आगे बढ़कर मैं पहल नहीं करता , उसका कारण मैं अपनी पिछली एक पोस्ट में बता भी चुका हूं .
पूर्व छात्राओं के लिए तो मेरा फेसबुक मैत्री का द्वार भी खुला ही रहता है .
ये अपनत्व मुझे आज भी याद आता है : हम आपके इश्टूडेंट हैं सर !
जैसे माता पिता को तो अपने हकलाने वाले या तुतलाने वाले बच्चे भी प्यारे लगते है उसी प्रकार मुझे तो अपनी सभी छात्राएं प्रिय हैं .
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