बनस्थली डायरी : “आइन्दा ऐसा मत करना ! “
ये बनस्थली की बातें हैं , पुराने जमाने की बातें हैं जब मोबाइल फोन तो दूर की बात हमारे घरों में लैंड लाइन फोन भी नहीं हुआ करते थे . लोगों में आत्मीयता हुआ करती थी , जिंदगी मशीनी नहीं हुई थी बनस्थली में आज की सी चक्राकार सड़कें नहीं बनी थीं . एक ही सीधा सपाट राज मार्ग था , वही जनपथ था , सब कोई उस सड़क पर पैदल चलते मिल जाते थे , विशिष्ट व्यक्ति से मिलने के लिए अपॉइंटमेंट लेना नहीं पड़ता था , कभी भी जाकर मिल सकते थे . आज के जमाने की तरह बहुत सी सवारियां नहीं दौडती थीं , पैदल चलने का रिवाज था . उस दौर का ये वाक्य मुझे बार बार याद आ जाता है आज उस की ही कुछ बात बताता हूं .
हुआ क्या था ?
शाम का समय था मैं बनस्थली विद्यापीठ परिसर की उसी मुख्य सड़क पर घूमने निकला था , रास्ते में कोई कोई साथी मिल गए और बाते करते जा रहे थे . सामने से आ रहे बुजुर्गवार ने मुझे रास्ते में रोका और दोस्तों के साथ हूं जानकर बिना अधिक समय लिए एक ही नसीहत दी :
“ सुमन्त .. आइन्दा ऐसा मत करना . “
मैं भला और क्या कहता, ये ही बोला:
“ जी ध्यान रखूंगा ..””
और बुजुर्गवार चले गए .
मेरे दोस्तों के लिए तो यही एक सवाल खड़ा हो गया कि आखिर मैंने ऐसा क्या कर दिया जिसकी बाबत बुजुर्गवार ये नसीहत दे गए और मैंने वो बात झेल भी ली . न बताता तो साथियों को पेट दर्द हो जाता . जो उनको बताई वो फिर बताता हूं कि बात क्या थी और और उस दिन हुए इस संवाद का निहितार्थ क्या था .
बात ये थी कि एक दिन उन्होंने शाम चार बजे मुझे मिलने के लिए बुलाया था , उनका बात करने का उपयुक्त समय भी प्रायः यही होता था और वे दोपहर के भोजन के बाद विश्राम कर चुके होते थे . अपना आलम ये था कि उन दिनों मैं घर में अकेला था और उस दिन दोपहर की क्लास पढ़ाकर आया था . चार बजे में समय बाकी जान थोड़ी देर को बिस्तर पर लेट गया और आंख लग गई . आंख खुली तो छह बजे थे और मैं उनकी हाजिरी में नहीं पहुंचा . उसी बात का वो उलाहना दे रहे थे बिना कोई कैफियत मांगे .
कितनी आत्मीयता थी उस जमाने के लोगों में वही बता रहा हूं इस संस्मरण के माध्यम से .
इसी लिए तो ये बात याद आ जाती है :
“ आइन्दा ऐसा मत करना !”
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