Friday, 1 December 2017

बावळी की कहानी : बनस्थली डायरी .

बावळी ...बावळी : बनस्थलीडायरी 💐

यह राजस्थानी या शायद गुजराती  का  भी एक ऐसा शब्द है जो अत्यंत प्रेमाभिव्यक्ति में ही कहा जाता है  । अगर आप एक अक्षर नहीं  पहचानते हैं तो बावली कह लीजिये  पर वो बात ऐसा कहने में समझ न आएगी । खैर एक संवाद सुनिए :

     ~  सर , ये तीन बजे वाली बस कित्ते बजे जाती है  ?

            आमना  सामना होने पर उसने पूछा ,  मुझसे ही पूछा ।

    मैं बोला  आप मुझसे पूछ  रही हो या   मुझे बता रही हो  बस का टाइम ।

     खैर सवाल से ही साफ़ होता है कि सवाल पूछने वाली को आप क्या  मानेंगे ,  क्या कहेंगे  , वही तो मैं कह बैठा था उस दिन जब वो बनस्थली में  मेरे घर  की और आ रही थी  और मैं  बाहर बैठा था ।

   अरे ये बावळी कहां से आ गई  !     मैं बोला और शायद उसने सुन भी लिया । उस समय  तो वो यह कहकर चली गयी कि  मुझे  सब पता है लोग क्या बात कर रहे हैं । पड़ोस में आई थी पड़ोस से लौट गई  ।  पर अगली बार  मुझे पुस्तकालय के काउंटर पर अटकाया और  लगी सवाल पर सवाल करने उस दिन की बात पर  अब बात हो गई सो हो गई  पर एक तूफ़ान खड़ा  हो गया उस शांत क्षेत्र में । मेरे बचाव में पुस्तकालय स्टाफ के कई एक लोग भी आगये और उससे कहा कि इनकी बेटी के बराबर हो इसी लिए कह दिया होगा । कहा गया शब्द कोई अपशब्द नहीं  है यह  भी समझाया । मैं तो माफ़ी भी मांगने को तत्पर हो  गया  , तभी वो बोली  :

सर  और सब तो मुझे ऐसे कहते ही हैं  पर मुझे आपने भी ऐसे कह दिया  । रेखांकित शब्द आपने ।

    उसने मुझे यह अहसास करा दिया कि  उसे मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।

अब बारी मेरी थी ,   मैंने उसे  भरोसा  दिलाते   हुए  कहा   :

"  हो तो तुम बावळी ही पर  पर मैं आगे से ऐसा नहीं कहूंगा ।"

#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी .

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बावळी की हिमायत में सबसे बढ़िया टिप्पणी मिहिर की रही वो भी यहां जोड़ता हूं , उसने कहा :

  " बावली सुनकर धोखे में ना अाएं। "तीन बजे वाली" बस का सवाल सच में वाजिब सवाल हुअा करता था बनस्थली में। रोडवेज़ बसों को उनके समय से जाना जाता था − दस, साड़े ग्यारह, साड़े बारह, दो, तीन, चार अौर सवा पाँच। लेकिन उनका चलना इस पर निर्भर होता था कि वे अाई कितने बजे हैं। देर से अाएंगी कैम्पस में तो जायेंगी भी देर से। इसलिए, ज़रूरी नहीं कि तीन बजे वाली बस तीन बजे निकल ही जाए। होशियार लोग बस के अाने के समय अौर उसमें हुई देरी से जाने का समय भांप लिया करते थे। "

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आज ये किस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

शनिवार २ दिसंबर २०१७ .

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