पोरम्परा : मरदाना धोती की बात ~~ आगे की कहानी
अन्य बातों में उलझकर कहीं ये प्रसंग पहले से छेड़ा हुआ है , भूल में न पड़ जाए , छूट न जाय इसी लिए इस पर आज बात .....
मैंने पहले बताया था कि कैसे एक सीधे से हिन्दुस्तानी आदमी ने मुझे धोती का महत्व समझा दिया था और मेरे पहनावे में धोती जुड़ गई थी । अरविन्द और विवेकानंद के लेखों ने मेरे पहनावे को वैचारिक आधार दिया था । किन्हीं आर्चर महोदय के एक लेख : is indin civilized ..? के जवाब में अरविन्द ने पूरी एक किताब ठोक दी थी Foundations of Indian culture नाम से और हर बार ये सवाल पूछा था कि क्या अब भी कुछ सन्देह रहा ? विवेकानंद ने इससे पहले ही अपने लेख Modern india में उस धारणा को उठाया था कि हिंदुस्तानी लोग कमर के नीचे कपड़ा लपेट लेते हैं । ये पश्चिमी सभ्यता की ओर से खिल्ली उड़ाने वाली बात थी । विवेकानंद ने उस मखौल का जवाब देते देशवासिओं का आवाहन किया कि भारत माता के सच्चे सपूत हो तो कमर के नीचे कपड़ा लपेटो । न तो मुझे विवेकानंद बनना था न अरविन्द बहरहाल धोती मैं पहनने लगा था और सब जगह धोती ही पहनता था घर बाहर बाजार से लगाकर शासन सचिवालय तक कहीं जाने में संकोच नहीं था ।
कई एक अनुभव :
राजीव (राजीव मेहता ) आए । धोती पहने मुझे देखकर बड़े खुश हुए और खुद भी धोती पहनना चाहा
मैं तो लाया ही धोती जोड़ा था , एक उन्हें पहना दी । वे चाहते थे कि अब कही चलें ! कहां चलें तो तय रहा कि दोनों के दोनों छोटे भाइयो के दफ्तर चलें , वैसे तो राजीव भी मेरा छोटा भाई ही है । एक कठिनाई थी कि राजीव एक भारी मोटर साइकिल लाया था , पर वह भी सहज हल निकल आया । एक विज्ञापन आता था जिसमें दूध वाला मोटर साइकिल पर धोती पहन कर बैठता था । विज्ञापन तो मोटर साइकिल का था पर हमारा संशय दूर हो गया । जो वो कर सकता है.... हम क्यों नहीं ? मैं और राजीव दोनों दोनों गंतव्यों पर क्रमशः गए अपोलो टायर्स के दफ्तर और शासन सचिवालय , दोनों के दोनों छोटे भाइयों के पास । दोनों जगह हम कार्टून कहलाये पर इससे न तो राजीव निरुत्साहित हुए और न मैं । राजीव उन दिनों International cooperative alliance में काम करता था और देश देशान्तरों में अब कोई एक धोती नहीं धोतियां ले गया । मुझे तो बनस्थली जाना ही था , वहां मेरा धोती का पहनावा जारी रहा......
बनस्थली का एक रोचक प्रसंग कहकर आज की बात को विराम दूं :
मैंने एक बंटवारा कर कर रखा था ।एक दिशा में पढ़ाने जाता तो खादी का सफारी पहनकर जाता ,दूसरी दिशा में मेहमान घर खाना खाने जाता तो धोती कुरता ही पहनकर जाता । मेहमान घर में जमीन में बैठकर पट्टे पर पत्तल दोने में भोजन होता । यह सब चल ही रहा था कि एक दिन कुछ दो पारियों के बीच समय की कमी के चलते इधर की पोशाक में ही उधर चला गया । देखने वाले के मन में आपकी एक प्रतिमा | इमेज बन जाती है वही कह रहा हूँ । वहां खाना बनाने वाली बाई जी उस दिन मुझे देखकर बोली :
“ भाई साब... आज तो अंग्रेजी पोशाक मैं ! “
शेष फिर कभी ...... ये पोरम्परा की कहानी जरा लंबी है .....
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ब्लॉग पर प्रकाशित
जयपुर
रविवार ४ दिसम्बर २०१७ .
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