वो अलाव जलाने के दिन :
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अभी भिवाड़ी के आँगन में घूमकर आया हूं तो सर्दियों की वो शामें याद आ रही है जब बनस्थली में घर के बाहर अलाव जलाकर बैठा करते थे , कैसा आनंद था .
रवीन्द्र निवास की इस अलाव गोष्ठी की धमक ऐसी हुआ करती थी कि अरविन्द निवास से भी यार दोस्त यहां आ बैठते और किस्सागोई लगभग अंताक्षरी की तरह चलती . बात से बात निकलती चलती .
मुझे याद है महावीर जी , श्याम जी जैसे लोग अलाव में भूनने को आलू और शकरकंदी ले आते और भुने आलू और शकरकंदी झाड़ पोंछ कर वहीँ उड़ जाते .
सूरज चौकीदार जो लठ्ठ लिए घूमता होता वो भी दम लेने को अलाव के पास , हमारे पास आ बैठता और वहीँ अपनी बीड़ी सुलगाता .
कोई कोई दिन विनोद जोशी अपनी कविता की डायरी साथ लिए आ जाते और अलाव की रौशनी में कविता सुनाते , उनकी रचनाएं मौलिक होतीं और कोई कोई गीत तरन्नुम में सुनाते .
ये सारी गतिविधि अग्निदेव को साक्षी मानकर हुआ करती .
बातें तो बहुत हैं पर सब बात सुनाने को बखत भी तो होवे , ये पोस्ट भी जल्दी जल्दी में बनाई है .
वे दिन और वो लोग बहुत याद आते हैं
-- सुमन्त पंड्या .
@ भिवाड़ी .
#बनस्थलीडायरी #स्मृतियोंकेचलचित्र #sumantpandya .
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यादों के पिटारे से निकली पोस्ट है . कल से ये बातें याद आए जा रही थीं . आज ब्लॉग पर प्रकाशित :
जयपुर
५ दिसम्बर २०१७ .
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