Monday, 4 December 2017

वो अलाव जलाने के दिन . बनस्थली डायरी .

वो अलाव जलाने के दिन :

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अभी भिवाड़ी के आँगन में घूमकर आया हूं तो सर्दियों की वो शामें याद आ रही है जब बनस्थली में घर के बाहर अलाव जलाकर बैठा करते थे , कैसा आनंद था .


रवीन्द्र निवास की इस अलाव गोष्ठी की धमक ऐसी हुआ करती थी कि अरविन्द निवास से भी यार दोस्त यहां आ बैठते और किस्सागोई लगभग अंताक्षरी की तरह चलती . बात से बात निकलती चलती .


मुझे याद है महावीर जी , श्याम जी जैसे लोग अलाव में भूनने को आलू और शकरकंदी ले आते और भुने आलू और शकरकंदी झाड़ पोंछ कर वहीँ उड़ जाते .


सूरज चौकीदार जो लठ्ठ लिए घूमता होता वो भी दम लेने को अलाव के पास , हमारे पास आ बैठता और वहीँ अपनी बीड़ी सुलगाता .


कोई कोई दिन विनोद जोशी अपनी कविता की डायरी साथ लिए आ जाते और अलाव की रौशनी में कविता सुनाते , उनकी रचनाएं मौलिक होतीं और कोई कोई गीत तरन्नुम में सुनाते . 


ये सारी गतिविधि अग्निदेव को साक्षी मानकर हुआ करती .


बातें तो बहुत हैं पर सब बात सुनाने को बखत भी तो होवे , ये पोस्ट भी जल्दी जल्दी में बनाई है .


वे दिन और वो लोग बहुत याद आते हैं 


-- सुमन्त पंड्या .

  @ भिवाड़ी .

#बनस्थलीडायरी #स्मृतियोंकेचलचित्र #sumantpandya .


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यादों के पिटारे से निकली पोस्ट है . कल से ये बातें याद आए जा रही थीं . आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

५  दिसम्बर २०१७ .

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