विदाउट परमीशन : बनस्थली डायरी
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बनस्थली के स्वर्णिम इतिहास में एक काकाजी नाम के व्यक्ति थे आज उनके ही जलाल के बारे में है ये पोस्ट . उनकी सुदीर्घ सेवाओं के बारे में एक शिलालेख भी लगा हुआ है विद्या मंदिर में अब तो , बस उनकी ही बात है . आज के लोगों की जानकारी के लिए बताऊँ कि वर्तमान में बनस्थली के सीनियर सेकेण्डरी स्कूल की प्रिंसिपल सुकेश जी उन्हीं काकाजी की बेटी हैं . काफ़ी समय से मेरा विचार बन रहा था कि ये संस्मरण उन्हीं सुकेश जी की दीवार पर लिखूंग पर ऐसा हो न सका क्योंकि मैं अभी सुक़ेश जी की मित्र सूची में सम्मिलित नहीं हो पाया हूं . वैसे सुकेश जी हमारे ही विषय ( राजनीति शास्त्र ) की हैं और उनसे मेरा दीर्घ अवधि से परिचय है इसकी सब तस्दीक़ करेंगे .
काकाजी विद्यापीठ में मुख्य प्रशासनिक अधिकारी हुआ करते थे और तामीर और सुरक्षा प्रबंध से लगाकर रोज़मर्रा के अनेक प्रशासनिक काम काज उनके अधीन आते थे . विद्यापीठ के स्वागत द्वार के सुरक्षा प्रहरी भी उनके ही मातहद काम करते थे . ये तो बीते ज़माने की बातें हैं . दो बरस पहले स्वागत द्वार पर बैठे छोरे छापरों ने जब मुझे ही अंदर जाने से रोका था और मेरी पहचान पूछी थी तब मुझे भी काकाजी की याद आई थी , पर ख़ैर अभी वो बात रहने देवें , अभी काकाजी के ज़माने की बात :
ऐसा माना जाता था कि परिसर में पत्ता भी खड़कता है तो काकाजी की परमीशन से . भृत्य वर्ग में काकाजी का ख़ौफ़ रहता था , दरवाज़ा उनकी परमीशन से खुलता या बंद होता था . कोई नई गतिविधि होती तो या देखी जाती तो उसकी सूचना काकाजी को दी जाती थी . मेरे काकाजी से कैसे पारिवारिक सम्बंध थे वो अलग से क़हूंगा वरना आज का क़िस्सा छूट जाएगा तो अभी चलें आगे .
क़िस्सा ख़ास :
------------- हम्मा तुम्मा ने तो यहां तक वहम पाल लिया था कि काकाजी गेट खुलवा दें तो परिसर में मेह आ बरसे न तो मेह न बरस पावे . मैं तो महावीर जी के ज़रिए सुक़ेश जी तक बात पहुँचाया करता था कि वो काकाजी से गेट खुलवाने की सिफ़ारिश कर देवें तो और मेह बरस जावे , ख़ैर .
सच्ची बात :
----------- एक दिन की बात रोडवेज़ की सुबह जयपुर से बनस्थली आने वाली बस अपने नियत रूट पर बनस्थली की ओर आ रही थी उसमें यू को बैंक का अधिकारी प्रशांत निहलानी भी रोज़ की तरह आ रहा था जो रोज़ाना आया जाया करता था .
इत्तफ़ाक़ की बात उस दिन अपनी जीप से काकाजी जयपुर जा रहे थे और उनकी जीप सामने से आकर बग़ल से निकली , ये चाकसू के आस पास की बात है , तो ठहाका लगाकर हंसा निहलानी :
“ ओ हो आज तो मेह को परमीशन की ज़रूरत ही नहीं है “
और ल्यो जी महाराज , चाकसू पर आकाश साफ़ था पर थोड़ी देर बाद जब बस परिसर में आकर रुकी तो झमाझम मेह बरस रहा था , उतरने वाले भीग गए .
अनायास कही गई निहलानी की बात सच हो गई उस दिन तो .
काकाजी का पुण्य स्मरण , बनस्थली के अच्छे दिनों को याद करते हुए .
-सुमन्त पंड़्या .
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क़िस्सा आज ब्लॉग पर प्रकाशित :
जयपुर
रविवार १० दिसम्बर २०१७ .
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शानदार संस्मरण
ReplyDeleteमोना दी उन्ही सुकेश बुआ की बेटी हैं।
ReplyDeleteकाकाजी मूढ़े पर काकीजी के साथ बैठे रहते थे घर के बाहर