Tuesday, 5 December 2017

“ लगन झिलवाओ  “  : बनस्थली डायरी .

दोस्त की खातिर 

वही बनस्थली की बातें


दोस्त अपने छोटे भाई का विवाह करने चले थे , घर से कोई बड़ा बुजुर्ग आया नहीं था वे ही उस समय शायद सबसे बड़े थे वहां उपस्थित घर के लोगों में । उस दिन मेरे घर आये , वही 44 रवीन्द्र निवास पर । मैं थोड़ी ही देर पहले पढ़ाने का काम पूरा कर घर लौटा था। बोले:


~ यार सुमन्त जी वो लड़की वाले आ गए एक बस भर के और कह रहे हैं , लगन झिलवाओ , यार ये कैसे होगा ? 


* श्रीमान , वो लगन नहीं है सम्मन है , झेलना तो पड़ेगा , नहीं झेला तो मैं आपके घर के बाहर चिपकवा दूंगा और दो की गवाही करवा दूंगा , खैर, चिंता मत करो , घर जाओ और कुछ पूजन सामग्री इकट्ठा कर लो , पड़ोस की महिलाओं को मंगल गायन के लिए बुला लो , कह दो पंडित जी अभी आते हैं । ये मैं बोला।


दोस्त अपने घर को लौटे , मैं अंदर जाकर पंडित जी बनने लगा । धोती , कुर्ता दुपट्टा धारण कर दोस्त के घर पहुंचा तब तक वहां उत्सव का सा वातावरण बन चुका था और लोग किन्हीं पंडित जी की प्रतीक्षा कर रहे थे जो भूमिका बहर हाल मुझे ही निभानी थी । वहां पहुंचकर मैंने संकल्प ग्रहण करवाया और आवश्यक पूजा पाठ करवाकर उस कथित लगन को उन लोगो को निरावृत अवस्था में थमा दिया और समझा दिया कि वास्तव में यह और कुछ नहीं एक प्रकार का निमंत्रणपत्र है जिसे कोई बड़ा बुजुर्ग यहां पढ़कर सुनावै

 

~ हमारे यहां तो हमेशा से लगन पंडित जी ही पढ़ते हैं । वे लोग बोले ।

मैं बोला , " कारण ये होगा कि गांव में शायद पंडित ही पढना जानता रहा होगा इसलिए ये रिवाज बन गया । खैर , लाओ मैं पढ़ देता हूं लगन ! "

और मैंने जस तस लगन भी पढ़कर सुना दिया , मंगल गायन तेज हो गया लड्डू बंट गए । 

 लगन क्या झिल गया था सम्मन तामील हो गया था जैसा मैंने उसे वैकल्पिक नाम दिया था ।


इति प्रातः कालीन सभा 

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आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर ६ दिसम्बर २०१७ .

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