Saturday, 2 December 2017

बाई का फूल ... दो : बनस्थली डायरी .

बाई का फूल : भाग दो 🌹: बनस्थली डायरी 


इस शीर्षक से रविवार को पोस्ट लिखना शुरु की थी . बात पूरी होने तक बैठ न सका अतः उस दिन बात अधूरी रही . आज बढ़ाता हूं बात आगे . पोस्ट भी करूंग़ा , ब्लॉग पर भी जोड़ूँगा . बात का सिरा टोंक सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक की बनस्थली विद्यापीठ शाखा से जुड़ा हुआ है . हो सका तो दो बातें छेड़ूँगा आज . एक बात तो पहली कड़ी में आ गई थी बहरहाल . अब दूसरी बात :


२.

  बात आई थी एफ ड़ी कराने की और उसमें दर्ज नाम के इंदराज की , वो तो हो गई बात . माया का नाम आया था उसमें . आप साथियों ने सराहा उस प्रसंग को . यादवेंद्र का कहना कि माया से कौण बच पाया महाराज और प्रभात का कहना कि लो बोलो माया का ही नाम हटा दिया बहुत भाए , और सब के साथ .

ये शीर्षक क्यों दिया वो बताता हूं आज . वो क्या था कि बनस्थली में हम जैसे गृहस्थ स्टाफ़ की गिनती में कम होने लगे थे और पढ़ाने के काम में लड़कियों , युवतियों की गिनती बढ़ने लगी थी . इन लड़कियों में एक बड़ा वर्ग वहीं हमारी पढ़ाई लड़कियों का हुआ करता था . किसी को बुरा न लगे पर लोक भाषा में इन्हें हम कहते छोरी - छापरियाँ .

अनुदान मिलने में देरी और अन्यान्य कारणों से खाते में वेतन चढ़ने में देर अवेर हो ही जाती और उसी दौर की ये बात बताता हूं कि हम्मा तुम्मा तो लक्ष्मी नारायण से ये पूछने जाते कि खाते में वेतन चढ़ गया के नहीं और उधर ये छोरी छापरियाँ पहुँचती एफ डी बनवाने और रिन्यू करवाने . फरक बड़ा साफ़ था . दाल रोटी तो हमारी भी चल जाती थी पर वैसी इफ़रात नहीं होती थी . ख़ैर उसी दौर में मैंने इस राजस्थानी कहावत को पुनर्स्थापित किया था :

“ बाई का फूल बाई कै ही लाग जायला .”


अभी भी अधूरी रही बात पर बातें तो चलती ही रहेंगी ….

संध्या वंदन .

नमस्कार 🙏


सुमन्त पंड़्या 

आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

शनिवार २  दिसम्बर  २०१७ .

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