Monday, 4 December 2017

तेल , नून और लकड़ी  :  जयपुर डायरी .

                   — आपका क़िस्सागो .

तेल , नून और लकड़ी .

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बचपन की बाते याद आती हैं .


“ भूल गए राग रंग , भूल गए छकड़ी ,

तीन बात याद रही तेल , नून और लकड़ी ।”


जो समझ गए वो समझ गए , जो न समझ पाये उन्हें समझाकर करना भी क्या है , इस नव सुखवादी दुनियां में ।


लकड़ी का मतलब बळीता राजस्थानी में , आज के जमाने में फ्यूएल जो और कुछ भी हो सकता है । खैर छोड़िये .


मेरे बचपन के आवास , जंगजीत महादेव के सामने, नाहरगढ़ की सड़क , जयपुर के सामने से एक बावळी रोज निकलती और चबूतरों पर बैठे छोकरे यह कहने से बाज नहीं आते कि , तेल गुड़ को कांई भाव छै ?

ये बात किसी को संबोधित नहीं होती थी , पर बावळी यह सुनकर पत्थर फेंकती और रोज रोज ये कहानी दोहराई जाती । क्यों वो ऐसा करती ? क्या बात थी ?

असल में उसके लिए आरोपित आशनाई की तरफ इशारा होता था इस बात में । इस टोका टाकी और रंबाद को ख़तम करने के ख़याल से कुछ बड़े लोगों ने छोकरों को खबरदार कर दिया कि उसके आने पर कोई कुछ बोले नहीं ।


नियमानुसार उस दिन वो बावळी आई और कोई कुछ नहीं बोला। मरघट जैसी शांति देखकर वो जो वोली वो कहता हूं :


“ आज तो बापकाणा सब मरगा ईं मोहल्ला में , कोई छै ही कोनै , कोई बोलै ही कोनै ? “


अर्थात इस मोहल्ले के कम्बखत सभी मर गए , कोई कुछ बोलता ही नहीं , कोई है ही नहीं यहां तो ।


सीख क्या मिली ?


" मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ."


अरस्तू ने सही कहा था , वह संवाद करना चाहता हैं और ये हुआ रंबाद के बहाने संवाद . बावळी के व्यवहार से भी यही प्रमाणित होता है .

प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ...

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आज किस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

५ दिसंबर २०१७ ।

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