Wednesday, 31 January 2018

गुस्सा नाक पे : भिवाड़ी डायरी .




गुस्सा नाक पे :  भिवाड़ी डायरी

    अभी दो दिन पहले की बात है मैं और जीवन संगिनी आशियाना आँगन के बाहर से सैर के बाद सब्जी के थैले लेकर परिसर में घुस रहे थे कि वहां एक रंबाद होते देखा उसी की बात आज बता रहा हूं फिर आप बीती भी सुनाऊंगा , बताऊंगा .

बाहर का सीन :

 मेन गेट पर सिक्योरिटी पोस्ट पर खड़ी लड़की अपनी कैफियत में बड़बड़ाए जा रही थी और उधर सिक्योरिटी चीफ के सामने एक अपेक्षाकृत युवा आशियाना रहवासी का गुस्सा पूरे उबाल पर था . फटे में पैर देने की मेरी आदत , जो हमेशा से है , उसके मुताबिक़ मैं तो मामले में उलझना ही चाहता था पर जीवन संगिनी के रोके से मैं वो न कर पाया ,  ये तो अब अफ़सोस ही रह गया  , खैर .


   ये शायद इसलिए है क्योंकि वहां उसे आती जाती घरों में काम करने वाली सेविकाओं की गतिविधि पर नज़र रखनी होती है . ये लड़की हम दोनों से रोज तो मुस्कुराकर मिलती है जब हम पैडिस्ट्रियन वे से अंदर आते हैं पर इस मौके पर वो भी गुस्से में बड़बड़ा रही है , ऐसा क्या हो गया आखिर ?


लेना एक न देना दो , हुआ सिर्फ इत्ता बताया कि उसने नौजवान से उसका फ्लैट या के टावर नंबर पूछ लिया बताया और वो ही उसे बुरा लग गया . बोलो वो यहां रहते हैं और उन्हीं से उनकी पहचान  पूछी जा रही है , ये क्या बात हुई भला ? हो गया रंबाद .


अगर दरवाजे पर पूछताछ होती है तो इसमें आपकी ही हिफाजत है ये तो उल्टे अच्छी बात है , पर कोई न समझे उसका क्या ?


एक और भी बात है ये नई पीढी के लोग  अपने काम से दिन भर तो बाहर रहते हैं और रात बिरात घर लौटते हैं तो द्वार प्रहरी अगर न पिछाणे तो इसमें अच्चम्भे की कोई बात नहीं .

अब हमारी सुणो :

   जब कभी लंबे अरसे बाद बाहर से आते हैं तो बाहर की मोटर देख द्वारपाल टोकते हैं और आने का सबब पूछते हैं . देखिए संवाद :


“ मिलने आए हैं ? “


“  मां बाप हैं , केवल मिलने नहीं रहने आए हैं ।”


और इसका फायदा ये कि द्वारपाल बच्चों को फोन से सूचित करते हैं और बच्चे टॉवर के नीचे खड़े मिलते हैं हमारे पहुंचने पर . ये हर बार की बात है . वैसे ये अपडेट सेल फोन से भी आ जाती है पर कभी नैटवर्क न भी होवे  तो अच्छा ही है ये सूचना कि ये हलचल द्वारपालों की बदौलत होती है . अब बोलो बुरा मानें  के राजी होवें !

कल तो हद हो गई :

हम दोनों  एक ऑटो रिक्शा से आशियाना में एन्ट्री ले रहे थे और नियमानुसार हमने दरवाजे पर अपना टॉवर नंबर बताया तो द्वारपाल ने जल्दी से  फंटा तो उठाया ही बड़ा गहक कर ये और बोला :


“ जानते हैं ..जानते हैं .”


अब लो कर लो बात !  और ये सुनकर जो चित्त प्रसन्न हुआ है उसका तो क्या कहना मानों हम और किसी के नहीं उस द्वारपाल के ही माँ बाप होवें ।


अब कल क्या लेणे को बाहर गए थे और ऑटो से क्यों आए ये एक अलग कहानी है वो आगे कभी आएगी बात .


अभी तो युवा पीढी के लिए इत्ती सी बात :

“ काहे इत्ता गुस्सा नाक पे ?”




Monday, 29 January 2018

जो देखो जो लाइव : भिवाड़ी डायरी .



जो देखो जो लाइव

   अब तो भिवाड़ी में आए और रहते हुए महीनों हो गए और  ये जो बात है वो इधर आने के बाद की ही है .

क्या बात है आख़िर ऐसी ?

इधर फ़ेसबुक की प्रसारण प्रणाली और तदनुरूप उपकरणों में एक इज़ाफ़ा हुआ है , बोले तो “ लाइव “

है तो बढ़िया आइडिया , इसके चलते जो देखो जो लाइव हो जाता है आजकल . जैसे के कल रात अनुपमा गर्ग ने लाइव प्रस्तुति दी और उसपे कमेंट माँगा तो कित्ता अच्छा लगा , है न कोई बात . ये तो राजा मिसाल है इसलिए ज़िक्र कर दिया है , ऐसे कई लाइव परफ़ार्मेन्स देखे . कोई कोई लोग अपनी प्रस्तुति के बजाय किसी और की को भी ऐसे करके लाइव दिखा देते हैं  , साधुवाद तो उनका भी बनता है .

तो अपणा क्या विचार है ?


इसमें विचार करने को क्या है किसी न किसी दिन अपण भी हो जाओ लाइव और तो क्या ?

पर लाइव होने जैसी शक़ल सूरत तो होवे , सुभाष तो सी एल हेयर ड्रेसर के हजामत बणवा आया अपनी सिफ़ारिश पर जयपुर में  और इधर आँगन के हज्जाम ने अपनी हजामत बिगाड़ दी क्या करें अब .

उपकरण न्यारे कमज़ोर . यंत्र कोई पकड़े और अपण होवें लाइव तब बने बात .

अब समय कम है , मचमची आ रही है किसी न किसी दिन अच्छा मौक़ा देखकर अपण भी हो जाओ लाइव और क्या .

जय हो . फ़ेसबुक की माया अपरंपार .

ऊपर ताज़ा मिसाल है ऐसे लिखना था और उपकरण ने उसमें राजा टाइप कर दिया , दुबारा पढ़ा तो ये भी अच्छा लगा तो ऐसे ही रहने दिया और क्या !

प्रातःक़ालीन सभा स्थगित …..जय हिन्द 🇵🇾🇵🇾

भिवाड़ी से सुप्रभात

नमस्कार  🙏

गए बरस ये पोस्ट भिवाड़ी से लिखी थी तब की ही बातें हैं , आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं ।

Sunday, 28 January 2018

बनस्थली डायरी  : भूली बिसरी यादें .

बनस्थली डायरी :  भूली बिसरी यादें .

आज बिलकुल छोटी छोटी बातें बताऊंगा , शायद इनसे कोई अर्थ निकले . कुछ बातें मेरी जुबान पर रहीं और अभियक्ति का अंग बन गईं वही कहता हूँ . अब क्योंकि सेवा काल समाप्त करके आया हूं अतः आखिरी बात पहले . जब भी क्लास ख़तम होने का समय होता मैं कहता :" इसी हंसी ख़ुशी के वातावरण में प्रातःकालीन सभा समाप्त की जाती है " , यह वाक्य इतना लोकप्रिय रहा मेरी कक्षाओं में कि मुझे तो प्रस्ताव का आदि पद ही बोलना पड़ता बाकी तो मेरे सभासद मेरी छात्राएं स्वयं ही पारित कर देती थीं ये प्रस्ताव . एक शब्द मेरी जुबान पर ही रहता , शब्द क्या था वह तो एक विचार था" सर्वानुमति " यह मैंने " कनसेनसस " के बदले बरता था . सब कोई प्रस्ताव सर्वानुमति से ही पारित होते यह तो क्लास में रोज बरोज का चलन होता था . मुझे अगले दिन न आना होता तो उसकी बाबत सूचना यह कहकर देता ," आपको यह जानकर अपार हर्ष का अनुभव होगा कि कल............" हालांकि शायद इतना हर्ष वास्तव में उन सूचित लड़कियों को होता नहीं . एक और शब्द था ' मंच अधिग्रहण ' ये मेरी जुबान पर ही रहता . आयोजन किसी और विभाग का हो तो भी उसमे ऐसे भाग लेना जैसे अपना ही आयोजन हो और यदि मंच मिल जाए तो वहां से अपनी बात कहना आखिर लंबी अवधि तक " राष्ट्र सभा " का मैं सलाहकार अध्यापक भी तो रहा था . मैंने एक परिपाटी को केवल अपनी क्लास के लिए चलाया कि क्लास में आने के लिए दरवाजे पर रुककर कोई न पूछे और सवाल पूछने के लिए खड़ा न हो , बैठे बैठे ही संवाद हो . न अनुमति आने के लिए मांगी जाय , न जाने के लिए मांगी जाय . जरूरी नहीं कि लड़की अपनी हर बात हमें बताए अतः जाना चाहे तो बिना वजह बताए भी चली जाए .

एक सवाल जो मैंने अपने विद्यार्थी काल में बहुत सुना था , अध्यापक बनकर कभी नहीं पूछा , " फादर क्या करते हैं? " क्यों पूछे ऐसे सवाल , हमें ऐसा पूछकर क्या भेदभाव करना है .

स्मृतियां अनेक हैं, लंबी बात एक साथ कोई सुनना नहीं चाहता. आज के इति  .


Tuesday, 23 January 2018

इंस्टाग्राम : भिवाड़ी डायरी

मुझे पता नहीं था इंस्टाग्राम होता क्या है .

फिर एक दिन पता लगा कोई माध्यम है जिससे कुछ फ़ोटू वोटू दर्ज करके भेजी जा सकती है अपने लोगों को . और ये भी पता लगा कि फ़ोटू  की रंगत भी बदली जा सकती है इसमें .

मुझे पता नहीं था कि ये इंस्टाग्राम विद्या मेरे उपकरणों में भी है. मैं कोई कोई फ़ोटू इंस्टाग्राम हल्के में ठेल देता . अब मुझे सूचना मिलने लगी कि कोई कोई लोग मेरा अनुसरण भी करते हैं माने फालो करते हैं . अपण ने तो बताने को ही डाली फ़ोटू , कोई छिपाने को थोड़े ही डाली तो ये बात भी बढ़िया .

इस विधा का अधिकतम इस्तेमाल इधर भिवाड़ी आकर सीनियर्स की बैठकों में ही किया है मैंने .एक दिन तो मेरे साथ फ़ोटो लिवाने की होड़ ही हो गई . लोग राज़ी अपण भी राजी  और क्या कहने .कई सीनियर्स फ़ोटो की प्रति लेना चाहें तो वो वाट्सएप नम्बर से जुड़ गए और ये सिलसिला चल पड़ा .

अब एक बात और फ़ोटो के साथ कुछ कुछ इंदराज भी तो होवे वो भी छोटा मोटा इंदराज मैं करने लगा . पर अभी भी मुझे पता नहीं है कि क्या किस्सागोई और संवाद भी इस चार दीवारी में साथ साथ चल सकता है .

अब देखते हैं कैसा काम आता है ये इंस्टाग्राम आगे .

अभी कई इल्म और सीखने हैं बच्चों से देखते हैं कैसा ढ़ब बैठता है आगे !

Monday, 22 January 2018

अपना सा लगे कोई : बनस्थली डायरी .



बनस्थलीडायरी  : अपना सा लगे कोई .

ये  उन दिनों की बात है जब   मैं बनस्थली में काम किया करता था  और  लेखा अनुभाग में वेतन का  चैक लेने जाना  पड़ता  था .

एक बार ऐसा हुआ कि वेतन मिलने में कुछ देर हुई  , वैसे ये कोई नई बात भी नहीं थी , वजह ये बताई गई कि वेतन पत्रक बनाने वाला बाबू छुट्टी पर चला गया था . उन दिनों ये बाबू कम्प्यूटर पर हिसाब बनाया करता था और शायद ये अकेला ही  उस अनुभाग में इस तंत्र का जानकार था इसलिए कुछ दिनों काम अटक गया था .  खैर बाबू लौट आया और  हिसाब तैयार हो गया . वेतन मिलने की बात सुन लोग हिसाब विभाग पहुंचने लगे और इसी सिलसिले में मैं भी हिसाब विभाग  गया था . वहां की एक छोटी सी बात आज बताता हूं .

बाबू के सामने :

जब वेतन का हिसाब समझने को मैं कंप्यूटर के सामने बैठा था तो मेरा ध्यान पड़ा कि इस बाबू का सिर मुंडा हुआ है . हमारे देश में अचानक अगर किसी का सिर मुंडा दिखे तो  लोग जो सवाल करते हैं वही सवाल मैंने किया  , मैंने पूछा :

“ क्या हो गया ? “

और ये बाबू बोला :

“ पिता जी नहीं रहे  ...। “

सहज दूसरा सवाल मैंने पूछा  :

“ उमर कित्ती थी पिता जी की ? “

उसका जवाब था :

“  बावन साल….”

ये जवाब सुनकर  मुझे धक्का सा लगा और उसकी वजह थी तदनुभूति  , मेरी उमर भी उस समय  बावन बरस की ही थी .

अब हालांकि ये कोई अनोखी बात नहीं थी , मृत्यु किसी भी उमर में हो सकती है  पर उस समय तो पूरे बावन बरस की उमर ने मुझे कुछ सोच में डाल दिया था और मैं इस लडके की सूरत निहार रहा था .

ध्यान से देखने पर  लगा कि ये बाबू एक दम मेरे बड़े बेटे जित्ता ही तो है  और इस उमर में इस पर विपदा आन पड़ी है  .

और सब बात हुई पर एक ख़ास बात जो मुझसे  सम्बंधित थी वो ये कि  पूरे हिसाब विभाग में ये लड़का मुझे अपना सा लगने लगा .

कभी कभी ऐसा होता है कि कोई क्यों अपना सा लगने लगता है हमें पहले से पता नहीं होता  .

विपत्ति अनायास किसी को अपना बना देती है ….

बनस्थली के अच्छे दिनों को याद करते हुए .

प्रातःकालीन सभा स्थगित …

अथ श्री नैटाय नमः

Sunday, 21 January 2018

या कों अखीर काराऊंगो : जयपुर डायरी .



या कों अखीर कराउंगो .....  !

ये है हिण्डौन , फाजिलाबाद , दुब्बी , बुर्जा  इलाके के किसी एक भोले  किसान का कहा हुआ  वाक्य, जो उसने अपने बेटे के बाबत कहा था और वो बात मुझे बताई थी फूफाजी गंगा सहाय जी ने जो जयपुर में प्राथमिक स्कूल नादिर जी का मंदिर , नाहर गढ़ रोड  में मेरे शिक्षक और मेरे आदि गुरु थे  और बात पते की कहते थे . ये बात मैंने सुनी होगी कोई उन्नीस सौ पचपन छप्पन के आस पास . ये एक ऐसा ध्येय वाक्य है जो मुझे बार बार आज भी याद आ जाता है .

" या कों अखीर कराउंगो ...."

अरे... इसका अर्थ तो बताया ही नहीं , क्या कहना चाहता था किसान ?

क्या मतलब निकला इस वाक्य का ?

मतलब असल में तो बहुत गहरा है जिसका सम्बन्ध शिक्षा , रोजगार और जीवन के अन्यान्य पहलुओं से है .

आज उन्हीं फूफाजी का प्रपौत्र हितेश , मेरा फेसबुक फ्रेंड , कोई इतना बड़ा पैकेज लेकर किसी प्रतिष्ठान में काबिज हुआ है कि पूरी बिरादरी में हल्ला है . मुझे रकम याद न रही नहीं तो वो भी यहां लिख डालता .

और एक दिक्कत ये भी है कि रकम में मैं जरा समझता भी कम हूं .

वो ही जानता होता तो पढ़ाने का काम क्योंकर हाथ में लेता , बैंक में नौकरी न कर लेता .

बहर हाल मैं बहुत खुश हूं कि अपने बच्चे भी ये पैकेज प्रतियोगिता में औरों को पछाड़ कर आगे बढ़ने लगे हैं .

फूफाजी का कहा वाक्य जो वास्तव में एक किसान का कहा वाक्य था में  

" अखीर " का अभिप्राय था अल्टीमेट . उसकी चाहत थी कि वो शिक्षा के क्षेत्र में बच्चे को अंतिम छोर तक पहुंचाए जिसके बाद हासिल करने को कुछ भी न बचे . बस ' इतिहास के अंत ' की तर्ज पर ' शिक्षा का अंत '

मैंने ये भी जानना चाहा था कि उस किसान की नजर में वो छोर था कौनसा ?  वो ' चौदहवीं' और ' सोलहवीं 'क्लास की पढ़ाई को शिक्षा का वो छोर मानता था . इतने बरस पढ़ाई में लगाकर वो  डिग्रियां मिल जाया करती थीं उन दिनों  जिन्हें अपने नाम के साथ मांडकर लोग इतराया करते थे .

पर मैं ये बातें सोचते सोचते ये कहने को मजबूर हो जाता हूं कि कि इन काले अक्षरों की पढ़ाई ने आज बहुत कुछ नष्ट भी तो कर दिया है जीवन अनुभव से प्राप्त स्वर्णाक्षरों में अंकित ' जीवन मूल्य' तंगड़ में  तुलते हैं और आदमी की कदर काले धन की मात्रा से होती है . हुनर भी पैसे से ही तुलता है . अभी अभी एक फेसबुक मित्र ने एक शेर भेजा  है जो यहां कहकर मजबूरी में प्रातःकालीन सभा का स्थगन प्रस्तावित करता हूं

" मेरी तरफ कुछ सिक्के उछाल कर ।

लो वो मेरा ईमान आजमाता है ।।"

और उसी मित्र का एक ये शेर भी देख लीजिए :

"मैं ईमान बेच देता तो  ,

मैं भी अमीर हो जाता ।।"

( आभार दर्द गढ़वाली )

" अच्छे दिनों " की सराहना के साथ जीवन मूल्यों को नमन करते हुए .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

वैचारिक अष्पष्टता के लिए क्षमा याचना सहित

Friday, 19 January 2018

मैं हाथां पोट उचा आयो .. : बोध कथा .




" मैं हाथां पोट उचा आयो .."   ---- राजस्थानी बोध कथा .

आज ये बोध कथा याद आ गई जो यहां साझा कर रहा हूं . कभी काकाजी **  से सुनी  थी . कथा का सन्दर्भ पता होने पर ये पंक्ति अपने आप में एक कहावत के रूप में भी बरती जा सकती है .

कथा  और सन्दर्भ :

एक राजा अपने राज्य में रात को भेस बदलकर घूमता और प्रजा जन का प्रत्यक्ष  हाल जानने का प्रयास करता था . ऐसे उसको अपने राज्य के अंदरूनी हालात का भी पता चलता और अपने लिए नीतिगत निर्णयों में भी मदद मिलती .

एक रात की बात :

 रोज  की तरह राजा बदले हुए भेस में महल की चार दीवारी के पास से गुजर रहा था कि उसने एक हरकत देखी . महल की ही एक सेविका अनाज की एक भारी पोट चुरा कर ले जा रही थी . पोट इतनी भारी थी कि उसके लिए उठाना मुश्किल था . साधारण राहगीर प्रतीत होने वाले राजा ने  इस सेविका की मदद की और उचा कर उसके सिर पर रखवा दिया . वो चोरी का अनाज अपने साथ ले जाने में सफल हो गई .

राजा सब कुछ जान भी गया और चुप भी रहा .

अगले दिन की बात .

अगले दिन वो ही सेविका किसी मामले में भाव दिखाने लगी और राज्य छोड़ कर चले जाने की धमकी भी दे बैठी , तिस पर राजा ने जो कहा वही है कहावत .

राजा ने कहा :

" मैं हाथां पोट उचा आयो जद भी  ईं गांव ( राज ) नै छोड़ अर जाय छै  , तो कोई पीस पो अर खवा दे ऊं गांव मैं जा अर बस जे ."

अभिप्राय: कि मैं अपने  हाथों से तेरी पोट उचा आया , फिर भी इस गांव को छोड़ कर जाती है तो फिर किसी ऐसे गांव / राज में जाकर बसना जहां का  राजा अनाज पीस कर और खाना बना- पका कर भी खिला देवे .

** काकाजी अर्थात हमारे पिता जी .

बोध कथा समाप्त .


Tuesday, 16 January 2018

चश्मे की बात : बनस्थली डायरी .

चश्मे की बात 

मैं चश्मा लगाता हूं और अब तो यह चश्मा मेरी पहचान भी है और जरूरत भी . चश्मा सिरहाने रखकर सोता हूं . घड़ी या मोबाइल फोन देखना हो तो भी चश्मे की जरूरत पड़ती है . पर यह चश्मा मुझे तो बहुत बाद में लगा चालीस के पार उमर होने पर इधर मेरे तीनों बहन भाई तो कम उमर से ही चश्मा लगाते आये हैं . इस चश्मे की भी एक कहानी है और इससे जुड़ी बातें हैं जो शायद चश्मे तक सीमित नहीं रह पाएंगी .

चालीस के पार उमर हुई तो ख़ास तौर से किताब पढने में कुछ दिक्कत लगने लगी , लगा चश्मे की जरूरत है . डाक्टर एम पी गर्ग साहाब कुशल नेत्र विशेषज्ञ थे , परिवार के मित्र थे , उनकी सलाह से पास का चश्मा बनवा लिया . इस चश्मे की दिक्कत यह थी कि इसे साथ रखना पड़ता था . कोई लिखाई पढ़ाई का काम इसके बगैर नहीं हो पाता था . ऐसे लोगों को देखकर मुझे अक्सर कोफ़्त हुआ करती थी जो जरूरत पड़ने पर किसी का भी चश्मा मांग कर अपना तात्कालिक काम निकाल लिया करते हैं , मैं भला ऐसा कैसे कर सकता था . इस चश्मे की अवस्था भी ज्यादा दिनों तक नहीं रही , अगली बार विजन टैस्ट में डाक्टर साब ने यह बताया कि डिस्टेंस विजन के लिए भी चश्मे की जरूरत है . दूसरे शब्दों में दो चश्मे - एक पास का चश्मा एक दूर का चश्मा . जब दो चश्मों की बात आई तो दो लोग मुझे बहुत याद आये . एक काकाजी ( हमारे पिताजी ) और दूसरे मेरे गुरु डाक्टर एस पी वर्मा . इन दोनों लोगों को मैंने दो प्रकार के चश्मे बरतते देखा था . इन्हें पढ़ाई लिखाई के लिए हमेशा चश्मा बदलना पड़ता था . वर्मा साब को तो मैंने क्लास में बार बार चश्मा बदलते देखा था . इधर काकाजी की वो बात मुझे याद आती है जब लोकल फंड ऑडिट डिपार्टमेंट में उदयपुर से टूर पर जाते समय वे पास का चश्मा साथ ले जाना एक बार भूल गए थे , वो तो उनके विश्वसनीय ओझा साब साथ थे उनकी मदद से ही अपना काम कर पाये और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करके आये . 


अब मेरे लिए यह विचारणीय था कि कैसा चश्मा बने . बाईफोकल चश्मा एक समाधान था जिससे पास में लिखा भी देख पाऊं और नज़र उठाकर सामने भी देख पाऊं . रजिस्टर में नाम भी पढ़ पाऊं और विद्यार्थी की सूरत भी देख पाऊं .डाक्टर साब की सलाह से एक्जिक्यूटिव कहे जाने वाले तर्ज का चश्मा बनवा कर मैं अपना काम करने लगा और कुछ ही समय में मैं उसका अभ्यस्त भी हो गया .इस चश्मे में दो प्रकार के नंबरों के बीच एक विभाजक रेखा स्पष्ट दिखाई देती थी .


एक दिन की बात एक लड़की ने मुझसे क्लास के बाद पूछा : " सर आप कितने समय से जयपुर नहीं गए ? " " क्यों ? " उसका बड़ा भोला उत्तर था :     

" आपके चश्मे का ग्लास फूटा है और आप इसी से काम चला रहे हैं ."

 अब इसका मैं क्या जवाब देता , सोचा कोई बेहतर उपाय करूंगा जिससे यह चश्मा फूटा तो न लगे . चाहे बाईफोकल हो पर चश्मा एक बार में मेरे पास एक ही रहा .

अगली बार नंबर बदला , उसमे बदलना क्या था , नंबर बढ़ा तो मैंने दूसरी तरह के बाईफोकल लैंस डलवाये जिनमे विभाजक रेखा न हो मेरी बच्ची को वो फूटा चश्मा न लगे .

बहरहाल ये चश्मा मेरी पहचान भी है और जरूरत भी . चश्मा मेरे दृष्टिकोण का भी प्रतीक है . यहां यह भी बताता चलूं कि मेरे पास एक ही चश्मा है . कई बार मैं यह चश्मा हाथ में लेकर कह बैठता हूं :" मेरा चश्मा कुछ ऐसा है कि इससे खोटी बात दिखाई नहीं देती ." 


एनिमल हसबेंड्री  : बनस्थली डायरी .

एनिमल हसबेंडरी :बनस्थली डायरी ✍🏼

 कल

दोपहर भिवाड़ी में कुछ एक बुज़ुर्गों से बात हो रही थी और मेरे परिचय के साथ बनस्थली का ज़िक्र आ गया , स्वाभाविक था . एक बुज़ुर्ग पिछली शताब्दी की बातें बता रहे थे जब वो बनस्थली जाकर आए थे तब बहुत कुछ परिसर का खुला मैदान था और उसके अंतर्गत एक बड़ा गोचर प्रदेश था . परिसर चारों ओर से खुला हुआ था और आज की तरह चार दीवारी भी बनी हुई नहीं थी . ख़ैर उन्हें तो मैंने बताया कि तब से अब में बहुत विस्तार हो गया है , ख़ाली ज़मीन कम हुई है और चार दीवारी भी बन गई है इत्यादि . पर ऐसे में मैं उस दौर को याद करने लगा जब बनस्थली विश्वविद्यालय तो बन चुका था पर आज जितना विस्तार नहीं हुआ था , ये तब की ही बात है .


उन दिनों इमारतें आज से कम थीं , पुराने हैंगर को अनुदेश शिविर बनाकर पढ़ाने के कक्ष बना दिए गए थे उसी दौर की बात है . कुछ एक लोग दूधारू पशु भी पाल लेते थे . हमारे साथी अंतर सिंह भी उन दिनों भैंस पालते थे . तब का एक दृष्य मुझे याद आता है . दोपहर विवेकानंद आवास से आते हुए वे अपनी भैंस साथ ले आए थे और भैंस मैदान में चर रही थी उसे ताड़ने के लिए एक डंडी इनके पास थी . जब क्लास में जाने का बखत आया तो वे भैंस को शिविर के बाहर छोड़ , उस डंडी को पटक कर पढ़ाने चले गए . और भी दूधारू पशुओं की कई बातें हैं पर वो फिर कभी , अभी तो सिर्फ़ एक बात कि उसी दिन मैंने अपना ये सिद्धांत प्रतिपादित किया था :


Animal husbandry & University system can conveniently go together .”


आज की प्रातःक़ालीन सभा बनस्थली की ऐसी ही मधुर स्मृतियों के साथ स्थगित ……


सुप्रभात 🌻🌻

नमस्कार 🙏


Monday, 15 January 2018

देयर फेट .. : जयपुर डायरी .

....देयर फेट !

उस दिन अनायास ही दुर्गानारायण जी मास्टर साब बैंक में दिखाई दिए   और मैं उनसे मिलने का लोभ संवरण नहीं कर सका . मास्टर साब का हमारे घर में तब से आना जाना  था जब हम लोग छोटे छोटे बच्चे थे .  मास्टर  साब जीजी को घर पर पढ़ाने आते थे . वैसे वो रेलवे  में काम करते थे और  अतिरिक्त समय में  पढ़ाने का काम भी करते थे . तब तक जीजी को स्कूल नहीं भेजा गया था  और दुर्गानारायण जी  मास्टर साब घर पर ही पढ़ाने आते थे और इस प्रकार  जीजी की पढ़ाई चल रही थी  . मास्टर साब से  एक पारिवारिक सम्बन्ध बन गया था . जीजी विधिवत स्कूल और कालेज पढ़ने जाने लगी  तब भी मास्टर साब का हमारे घर आना जाना था और इस नाते मैं मास्टर साब को जानता था .

उस बात को बहुत समय बीत गया था , जब मैं दुर्गानारायण जी से मिला  तब मैं बनस्थली में काम करने लग गया था और  वे किसी काम से बैंक में आए हुए थे . मैंने उनके पास जाकर  अपना  परिचय दिया तो बड़े खुश हुए  और  बोले :" अरे यार तुम आज मिले हो , पहले मिलते तो एक काम बताता ."  मुझे भी उत्सुकता हुई भला  उनको  मुझसे क्या काम पड़ा होगा .  पूछने पर पता लगा कि उनकी बेटी का  वाद्य संगीत का प्रैक्टीकल था और  बनस्थली वाले नागर जी  बनारस से चलकर आये थे परीक्षा लेने .  कोई सिफारिश कर सकता ऐसे व्यक्ति की उन्हें तलाश थी . वह अवसर तो जा चुका था  , अब मुझे भी यह बताने में हर्ज नहीं लगा कि नागर जी का जयपुर यात्रा से पहले मुझे पत्र मिला था और मैं  कालेज में वहीँ जाकर  उनसे मिला भी था जहां  नागर जी  परीक्षा ले रहे थे .  खैर वह अवसर तो जा चुका था . दुर्गानारायण जी से अनायास  हुई मुलाक़ात बड़ी बढ़िया रही  और  उन्हों ने  अनायास एक  बात कह दी :"  फिर मैंने सोचा यार लड़की का मामला है ....आफ्टर आल शी इज नाट आवर फेट , शी इज देयर फेट . "

दुर्गानारायण जी मास्टर साब ने अंत में  जो हिंदुस्तानी सोच  कह दिया था वो तो एक अलग बात है पर इतना जरूर है कि मेरे घर में तो पढ़ाई का दीपक लेकर  वो ही आये थे , आखिर उन्हों ने जीजी को पढ़ाया था .  दुर्गानारायण जी अब रहे नहीं जीजी भी अस्सी पार पहुंच गई  जिनका जन्म दिन गई दीपावली पर मनाया गया . ये तो कुछ ऐसी बातें हैं जो बाद तक याद रहती  हैं .

आज के लिए विराम . इति .

Sunday, 14 January 2018

अपना ही बच्चा है ..: बनस्थली डायरी .

......अपना ही बच्चा है ...

उस दिन श्याम जी को  न जाने क्या  जची कि मुझे बोले  : " भाई साब चालो, थानै बूढल्या  हनुमान जी कै ले चालांला  ."    मैं श्याम जी के साथ हो लिया  और  हम लोग श्याम जी की मोटर सायकल पर बनस्थली से रवाना हो गए  . भूड़ा मिटटी में रास्ता  पार करते  हम लोग  दक्षिण दिशा में  काफी दूर  आगे बढ़कर एक हनुमान जी के मंदिर  परिसर में पहुंचे . वहां उत्सव का सा माहौल था , सांस्कृतिक कार्यक्रम और  सहभोज की तैयारी  हो रही थी . थोड़ी ही देर में बिछायत होकर संगीत का कार्यक्रम  प्रारम्भ हो गया  . हारमोनियम और तबला वाद्य के साथ शास्त्रीय  संगीत प्रारम्भ हुआ . मुझे गुलाब जी को बहुत  बढ़िया पक्का गाना गाते देखकर  बड़ा आश्चर्य हुआ . लोगों में कैसी कैसी प्रतिभा होती है  पर सामान्यतः  हमें पता नहीं होता , यह उसी दिन स्पष्ट हुआ  . गुलाब जी को मैंने निवाई में रामचंद्र   कंवरीलाल  की कपड़े की दूकान पर एक सहायक के रूप में काम करते  बहुत बार देखा था पर मैं उनकी इस  प्रतिभा से पूर्णतः अपरिचित था . इधर हमारे साथ  एक दूसरी मोटर सायकल पर  उमाशंकर भी पहुंचे थे जो बनस्थली के संगीत विभाग में  संगतकार  थे  और एक अच्छे फ़नकार भी थे , रोज के अपने काम में उनकी यह प्रतिभा उजागर नहीं होती थी , उन्हें तो  गाने वाली प्रशिक्षु  छात्राओं के साथ तबले पर संगत करनी  होती थी .  पर उस दिन गुलाब जी के बाद  उमाशंकर ने भी  पक्का गाना गाया और तुलसीदास का एक भजन इतना बेहतरीन सुनाया कि  गुलाब जी भी बहुत प्रभावित हुए .  मैंने गुलाब जी की इस छिपी प्रतिभा की  सराहना की थी ,  इधर गुलाब जी उमाशंकर को इंगित कर मुझसे पूछने  लगे :"  ये किसका बच्चा है ? "   उस समय मैंने उनकी जिज्ञासा का यह कहकर समाधान किया :"........अपना ही बच्चा है , संगीत विभाग में काम  करता है ."

गए दिनों में फेसबुक के कारण श्याम जी तो मित्र सूची में जुड़े ही उमाशंकर का भी मित्रता अनुरोध आया जिसे मैंने स्वीकार किया . उस दिन तो बूढल्या हनुमान जी के परिसर में भोजन कर  हम लोग बनस्थली लौट आये पर वो गायन बहुत याद आया :" जब जानकीनाथ सहाय करैं  तब कौन बिगाड़ करै  नर तेरो ? "

आज के लिए चर्चा स्थगित .

फ़ोटो उमाशंकर की फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल से ।

 .

Friday, 12 January 2018

‘ शामिल बाजा ‘ : बनस्थली डायरी 

शामिल बाजा 🎻


मेरे बोलने में अक्सर ये बात आ जाती है , बोले तो ‘ शामिल बाजा .’ 


ये बोलना मैंने कब से सीखा और इसके मायने क्या हैं मेरे लिए वही बताने का प्रयास करूंग़ा . अभी क्यों आई ये बात ये भी बताऊंग और इसके साथ ही हो जाएगी बात पूरी .देखते हैं समय बात करने की कितनी अनुमति देता है .

क़हन का उद्भव :

ये पिछली शताब्दी में सत्तर के दशक की बात है , बनस्थली में संगीत के प्रोफ़ेसर पटवर्धन साब ने ये क़िस्सा सुनाया था और उसमें आयी थी ‘ शामिल बाजा ‘ की बात .

हुआ क्या था कि वे आकाशवाणी में कुछ कलाकारों का नियुक्ति अथवा पदोन्नयन के लिए विशेषज्ञ के रूप में साक्षात्कार लेने गए हुए थे . साक्षात्कार के दौरान प्रारम्भिक बातचीत के बाद एक कलाकार को जब साज बजाकर दिखाने को कहा गया तो उसने ‘ शामिल बाजा ‘ की मांग़ की . वो था एक आरकेस्ट्रा आर्टिस्ट और वो अपनी प्रस्तुति संयुक्त रूप से ही दे सकता था , अकेले साज बजाकर दिखाना उसके लिए सम्भव नहीं था या वो ऐसा करना नहीं चाहता था . अब चाहे जो कारण रहा हो , उस मामले में जो कुछ भी परिणाम निकला हो पर उस दिन पहली बार आई थी ‘ शामिल बाजा ‘ की बात .


व्यापक प्रयोग :

जब से ये शामिल बाजा विचार मैंने सुना और समझा तब से ही इसे विभिन्न परिस्थितियों में बरता भी और प्रचारित भी किया . शामिल बाजा तब से मेरे लिए केवल शब्द द्वय नहीं एक समग्र अवधारणा है और मैं इसे पारस्परिक सहयोग से किए जाने वाले हर काम और प्रयास के लिए इस्तेमाल करता हूं . याने मेरे हिसाब से जो भी काम मिलजुल कर किया जाए उसे शामिल बाजा कहा जाएगा .

अभिव्यक्ति का कोई भी मंच ज़हां अन्य के सहयोग की दरकार हो उसे भी मैं शामिल बाजा ही कहता हूं और इसलिए सोशल मीडिया को भी एक प्रकार का शामिल बाजा ही बोलता हूं .

तात्कालिक प्रसंग : 

आजकल के स्मार्टफ़ोन सोशल मीडिया का पूरा ट्राफिक झेल नहीं पाते और जल्दी ही बोल जाते हैं , मेरे साथ पिछले महीने ग़ोया पिछले बरस ऐसा हो चुका और एक बच्चे ने वैकल्पिक व्यवस्था की . किसी तरह गाड़ी गुड़ रही थी कि वो ही नौबत जीवन संगिनी के प्रिय उपकरण के साथ आ गई . दो चार दिन में उसकी भी वैकल्पिक व्यवस्था हो ही जावेगी जब बच्चों को पता पड़ गई है ये बात . पर तब तक तो रहवे अपना शामिल बाजा ये ही बात एक आध दिन से कहे जा रहा हूं जीवन संगिनी से .और वैसे भी अपना तो पिछली शताब्दी से चला आ रहा शामिल बाजा है .

कितने तो और नए साज जुड़ गए हैं अपने आरकेस्ट्रा माने शामिल बाजा में .🎻

आप सब को लोहड़ी उत्सव की बधाई . 🙏




Thursday, 11 January 2018

छोटे मामा जी स्टेशन वाले : भाग दो : जयपुर डायरी .

छोटे मामाजी स्टेशन वाले  : भाग दो .

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~     कल इस प्रसंग पर बात शुरु तो की थी पर समय की कमी के चलते वो पूरी न हो पाई थी आज उसी प्रसंग को आगे बढ़ाता हूं .

ये मामा जी मेरे लिए  स्टेशन वाले छोटे मामा जी तो थे ही जब मैं कुछ बड़ा हुआ था तो इनसे एक और आत्मीय और पारिवारिक रिश्ता जुड़ गया . मामा जी जीवन संगिनी के मौसा जी ( गुजराती में कहें तो माहा जी ) भी हुआ करते थे . मुझे ये वाली मामी और जीवन संगिनी को अपनी मौसी याद नहीं , उनका तो बहुत पहले देहावसान हो गया था , पर दोनों का मजबूत आत्मीय रिश्ता तो था ही . इससे जुडी हुई रोचक बातें हैं जो यहां कही जा सकती हैं इनका रिश्तों की बुनावट से सम्बन्ध है . इसी के चलते तो जीवन संगिनी पिछले कई दिनों से मुझे ये पोस्ट लिखने को प्रेरित कर रही थी .

मेरी कल की पोस्ट पर मेरे सभी भतीजे भतीजियों ने “ पान बाबा “ को याद किया ये मुझे बहुत अच्छा लगा इस निमित्त उनका भी आभार .

दोहरे  रिश्तेे के सन्दर्भ में एक बात याद आती है वही यहां कहता हूं .

हमारी पहली संतान के जन्म से पहले की बात है . जीवन संगिनी के पीहर वाले इस अवसर पर उन्हें चूंदड़ी ओढ़ाने  आए हुए थे . ये बात है हमारे  शहर वाले पैतृक आवास के चौक की . दोनों ही पक्ष के लोग इस शुभ अवसर पर उपस्थित थे . स्टेशन वाले छोटे मामा जी को वहां होना  ही था उनका तो दोहरा  रिश्ता था .

भावी मां को पट्टे पर खड़ा कर सम्मानित करने के बाद  सब कोई लोग उनकी कुछ न कुछ सिक्के से वार फेर कर रहे थे तो मामा जी अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने भावी पिता के रूप में  मेरी वार फेर की थी . कितनी सुन्दर प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी छोटे मामा जी की .

मैं तो चाहूंगा कि कल की तरह ही मामा जी के कुटुंब के बालक गण इस बाबत और बाते जोड़ें और यहां साझा करें .

मेरा अनुमान है कि जीवन संगिनी भी अपने ‘ माहा जी’ ( मौसा जी ) के बारे में कुछ न कुछ जरूर कहेंगी .

आशुतोष ने कल की बात पर ठीक ही कहा ,” हमारे दोनों बाबा सच में ग्रेट थे .”

सुप्रभात .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .


छोटे मामाजी स्टेशन वाले .


छोटे मामा जी स्टेशन वाले   : भाग एक .

  मैंने बड़े मामाजी ~ स्टेशन वाले बाबत संस्मरण लिखा था उसे पढ़कर मेरे भतीजे अनंत , अख्खी , आशुतोष , राजीव , संजीव तो बहुत खुश हुए ही इन्होंने इसमे बातें भी जोड़ीं  . और तो और उस संस्मरण को श्रीकांत भाई को भी पढवाया . संजीव मुझे कहने लगा कि जैसे मैंने बड़े बाबा के बारे में लिखा कुछ  बातें मैं छोटे बाबा के बारे में भी लिखूं . ये पुरानी बातें बीते समय का ऐसा दस्तावेज हैं जिनसे उस दौर के चलन और समाज के बारे में भी पता चलता है .

संजीव ने जब मुझे ऐसा जब कहा तो फिर एक दुखद प्रसंग आया था , घीस्या भाई याने लक्ष्मीकांत भट्ट , छोटे मामाजी के बड़े बेटे भी नहीं रहे समय कितना आगे बढ़ गया . उस दिन मैंने तय किया था कि स्टेशन वाले छोटे मामाजी के बारे में भी लिखूंगा .

हमारी अम्मा बाद के समय में अपने कुटुंब में एक मात्र बहन थी जो स्टेशन वाले छोटे मामाजी को राखी बांधने जाया करती थी किसी न किसी बेटे ख़ास तौर से विनोद को साथ लेकर .

ये मामाजी पान के शौक़ीन थे मुझे बचपन की बात याद आती है जब भी मामाजी मिलते हम लोग पान की मांग करते और मामाजी तब के दो पैसे दे देते , दो पैसे में पान आ जाता , तब एक रूपए के चौंसठ पैसे हुआ करते थे .

बड़े मामाजी की तरह ही छोटे मामा जी रेलवे में स्टेशन मास्टर थे . एक बार की बात याद आती है हम बच्चे रेल से काकाजी और अम्मा , हमारे माता पिता , के साथ उदयपुर से जयपुर आ रहे थे . मामाजी तब किशनगढ़ में स्टेशन मास्टर थे .  अब सोचता हूं कितना पत्र व्यवहार होता रहा होगा  मामाजी को पता था कि इस गाड़ी से उनकी बहन परिवार के साथ आ रही है . मुझे याद है गाड़ी रुकते ही कोच के पास मामाजी आए और उनके पीछे  खोमचे वालों का रेला था , मामाजी ने हम  बच्चों से पूछा :

“ क्या खाओगे ? “

मेरी बाल समझ मैं बोला :

“ पर मामाजी गाड़ी तो थोड़ी ही देर में रवाना होने वाली है .”

तिस पर मामाजी का कहा मुझे आज तक याद है , मामाजी बोले :

“ मैं खड़ा हूं न यहां , मेरे इजाजत दिए बगैर गाड़ी जाएगी कैसे ? “

तो ऐसे थे छोटे मामाजी स्टेशन वाले , बातें तो और भी बहुत सी याद आ रही हैं पर अभी हाल के लिए नैट बरतने का समय बीत रहा है अतः हाल के लिए प्रातःकालीन सभा को स्थगित करता हूं .

Wednesday, 10 January 2018

पिता पुत्र संवाद : जयपुर डायरी .

बरसों पुराना पिता पुत्र संवाद 

पिता : फुगनूस के फुग्गे .

पुत्र : अकल के आमलेट .

पिता : घामड़ धोंचू .

पुत्र : सड़े कद्दू .

और ये संवाद ऐसी ही शब्दावली में प्रगति पथ पर अग्रसर था कि पिता की पकड़ हो गई . 

जीजी आई हुई थीं उनको हंसी तो बहुत आई पर बोली :

  “ सुमन्त , तू बिगाड़ेगा इस बच्चे को , ये कोई बातचीत का तरीका है . “

 मैंने क्या बचाव किया अपना वो तो अब बेमाने है उस बात को बहुत समय हो गया पर उस परिस्थिति का थोडा जिक्र यहां करना चाहता हूं . बच्चा बमुश्किल पढ़ना सीख ही रहा था और बाल साहित्य की उनदिनों जैसी भी पत्रिकाएं अड़ोस पड़ोस में उपलब्ध होती थीं वो पढ़ता था , जुटाता था और सहेजता था .

उसी दौर की एक ‘ लोट पोट ‘ नामक पत्रिका को वो घोट चुका था , मैंने भी वो पत्रिका देखी थी और उसी का नतीजा था जो ऊपर आपने देखा , किसी शास्त्रार्थ से कम नहीं था .

बच्चे जो कुछ बिगड़ने थे वो तो होनहार की बात , मैं उन्हें अपने साथ ही कितना रख पाया . बच्चों से होडां होड़ तब भी की और आज भी करता हूं .


दूसरी पारी :

 राम जाने वो बाल पत्रिका अब भी आती है के नहीं पर इतना तय है कि उस पत्रिका के पात्र अब टी वी में जा घुसे है और इन पात्रों से अच्छा परिचय अविरल और असीम का हो गया है . मामा जिनसे किताबों में मिलता था भानजे टी वी के परदे पर मिलते हैं .

नए जमाने की बातें देखकर पुरानी बातें यूं ही याद आ जाया करती हैं . ये जरूर है कि तब से अब विपुल और बेहतर बाल साहित्य उपलब्ध है और इन बच्चों को तो इनकी नानी और अम्मा कहानी सुनाती भी है .

दोनों पारियों के बच्चों को याद करते हुए आज की अपराह्न कालीन सभा स्थगित .


Monday, 8 January 2018

ज्योतिष ज्ञान : जयपुर डायरी .

ज्योतिष ज्ञान
१.
  ये पिछली शताब्दी के उन दिनों की बात है जब ज्योतिष का जुनून मेरे सिर पर सवार था और होनहार कुछ ऐसी थी काका भी ज्योतिष में दखल रखा करते थे .

आज भी काका याद आ जाते हैं , जो असमय चले गए , तो उन की एक सीख बहुत याद आती है वही आज बताने का मन है . हालांकि एक  जोखिम भी है कि इस मामले में बात भर करने पर मैं दकियानूसी , अंधविश्वासी समझा जावूंगा जो शायद मेरे बारे में सही न हो पर मैं भी अपने बारे कितना जानता हूं वो अलग बात है . यही तो मानव मन का एक दुर्बल पक्ष है कि अच्छे भले लोग अपने ही कर्मों का फल लाल बुझक्कड़ से पूछने जाया करते हैं , भविष्य के बारे में अटकल सभी लगाया करते हैं . जो भविष्य के बारे में मन गमती बात कह दे वो आदर का पात्र बन जाया करता है . खैर इस विचार विमर्श को स्थगित कर मुद्दे की बात पर आवूं जो मुझे आज बताने का मन हो आया है .

एक  दिन काका हमारे शहर वाले घर आए हुए थे और मैं कई प्रकार के पंचांगों और मिस्टिक साहित्य में उलझा हुआ था कि काका कहने लगे :

“ सुमन्त , अच्छा है तू ये सब करने लगा है पर कभी किसी की मृत्यु की ज्योतिष मत करना . अगर मर जाएगा तो तुझे उलाहना देने नहीं आएगा और जो बच गया तो जिंदगी को तेरी दी हुई सौगात समझेगा . “

बड़ी मार्के की बात बता दी थी काका ने . उस दिन का दिन है और आज का दिन है कभी किसी को खोटी बात नहीं बताई .

मेरे कई आत्मीय जनो ने तो तब यहां तक कहना शुरु कर दिया कि मुझे वाक् सिद्धि ही प्राप्त हो गई है .

ये भी संयोग  ही है कि जिस दौर की बात है तभी मैंने चश्मा लगाना शुरु किया था , मैं तब चश्मा उतार कर कहा करता था :

“ ये मेरा चश्मा ही कुछ ऐसा है कि इसमें कोई खोटी बात दिखाई नहीं देती .”

और हुआ भी कुछ ऐसा कि जिसके साथ अनर्थ ही होना होता वो मेरे सामने पृच्छक बनकर आता ही नहीं .

खैर ये सब उस जुनूनी दौर की बातें हैं जो बरबस याद आ जाती हैं .

उस दौर के मेरे संपर्कों को याद करते हुए , काका को याद करते हुए , पिछड़ा समझे जाने के खतरे को झेलते हुए , जीवन संगिनी की समीक्षार्थ आज की पोस्ट प्रस्तुत करते हुए ~

प्रातःकालीन सभा स्थगित .


ये है काका का एक यादगार फ़ोटो जब वे जैसलमेर गए थे और विनोद के सरकारी बंगले पर ठहरे थे .

२.     ज्योतिष और मेरी परीक्षा  :  छोटे लाल जी द्वारा.



वैसे  तो  ये दो अलग अलग मामले हैं , ज्योतिष  से मेरा वास्ता और छोटे लाल जी पर यहां दोनों बातें साथ आ रही हैं , ज्योतिष का प्रसंग भी और और छोटे लाल जी का उल्लेख भी . ये बात उन दिनों की है जब मैं  बनस्थली में था  और ज्योतिष में हस्तक्षेप करने लगा था . पता नहीं क्यों ज्योतिष को लेकर सबके ही मन में कुछ न कुछ  कौतुक रहता ही है . मैं इस मामले में  अधिक से अधिक लोगों से अटकने को उन दिनों तत्पर रहता था .  ऐसे  ही एक दिन  क्रिसमस के कारण अवकाश था , उद्बोधन मंदिर में कार्यक्रम  में सम्मिलित होकर मैं घर आया था और अनायास ही प्रोफ़ेसर छोटे लाल जी मेरे घर 44 रवीन्द्र निवास चले आये .

वे क्यों आये ये मेरे मन में प्रश्न था पर उनके मन में भी कोई प्रश्न ही था और  उन्होंने  अपना मंतव्य भी कह  दिया :  मेरा मूक प्रश्न है  और उसका उत्तर दो .


छोटे लाल जी ने मेरे सामने एक परीक्षा की स्थिति उत्पन्न कर दी थी ,  प्रश्न भी बताना था और उत्तर भी देना  था . मेरा राजनीति शास्त्र के  प्रश्नपत्रों  से तो वास्ता पड़ा था पर ज्योतिष का मेरा ज्ञान तो था जैसा ही था ,  जीवन के प्रश्नों का भला मेरे पास क्या उत्तर था  और वो भी यदि  मूक प्रश्न है तो वह क्या  प्रश्न है भला मुझे क्या पता .  खैर अब परीक्षा तो मेरी थी , या तो पास होना था या फेल . मैंने सोचा प्रयास करने में क्या हर्ज है  और मैं पंचांग  तथा कागज़ कलम लेकर  बैठ गया और यह  दरसाया कि किसी गंभीर गणना में  व्यस्त हूं . प्रश्नलग्न  बनाया और  अपने आप  से प्रश्न किया कि मन का स्वामी  कौन है  ,उत्तर मिला कि चन्द्रमा है . चन्द्रमा कहां बैठा है ?  चौथे भाव में जो मां का घर है . मुझे एक सूत्र मिल गया था , मैंने कहा :  डाक्टर साब प्रश्न मां के बारे में है  .  वे सहमत  दिखाई दिए , अब मुझे बात बताना कुछ आसान लगा . मैंने कहा :  आपको उनके बारे में ही चिंता है आप  बिना कोई समय गंवाए गांव चले जाओ  , दर्शन हो जाएंगे . उस दिन छोटे लाल जी मेरा प्रश्नोत्तर सुनकर , संतुष्ट होकर चले गए  और बाद में  मेरे लिए  सबसे बड़ा टेस्टीमोनियल उन्होंने  जबानी जारी किया , कैम्पस में वे यह कहते हुए सुने गए कि  ये एक लड़का है यहां जो ज्योतिष जानता है , बाकी किसी को कुछ नहीं आता .  बहरहाल मैं  छोटे लाल जी द्वारा ली गई परीक्षा में पास हो  गया था . और  बहुत सी बातें हैं . अब छोटे लाल जी भी नहीं रहे , मेरा वो जूनून भी नहीं रहा , उस परिसर से भी आ गए , ये सब तो तब की बातें हैं .






पहले ही दिन इम्तिहान ...? :  भाग तीन : जयपुर डायरी .

पहले ही दिन इम्तिहान ... ? भाग तीन .


इस कड़ी में पहली दो पोस्ट में शिक्षा के बारे में मैंने कुछ प्रश्न उठाये हैं जिन पर विचार की आवश्यकता है , जिन पर कोई अंतिम उत्तर मैं नहीं दे सकता पर अपनी बात ही कह सकता हूं . आज कुछ छोटे छोटे प्रसंग बताऊंगा उनसे शायद बात आगे बढ़े .


बनस्थली में एक बार की बात , कैलाश नाम की एक लड़की हमारे घर में काम करने आती थी . उसे कुछ प्रौढ़ शिक्षा की पुस्तकें दी गई थीं और जीवन संगिनी उसे पढ़ाया करती थी . एक दिन वे किसी काम में व्यस्त थीं और कैलाश पढ़ना चाहती थी . परिस्थिति देख बड़ा बेटा बोला ," मम्मी को अभी फुरसत नहीं है , आ आज मैं पढ़ा दूं ." इस पर कैलाश बोली :" आप क्या पढ़ाओगे , आप तो खुद ही अभी पढ़ रहे हो ? " इसके पीछे समझ ये थी कि जो पढ़ चुका वो पढ़ावे , जो खुद ही अभी पढ़ रहा है वो भला पढ़ाने का अधिकारी कैसे हो सकता है ? . इसमे एक गहरी बात भी छुपी है , जो पढ़ाने लग गया उसने आगे पढ़ना बंद कर दिया . हमारे आस पास के सरकारी स्कूलों में ख़ास तौर से और सरकारी कॉलेजों में आम तौर से पुस्तकालयों की दुर्दशा इस प्रसंग में देखी जा सकती है जो स्पष्ट ही शोचनीय है . एक ओर संचार के नए उपकरणों पर अनाप शनाप व्यय हो रहा है , जो अधिक कारगर भी नहीं हो रहा दूसरी ओर पुस्तकालय लगभग बंद पड़ा है . उस दिन मैं नहीं जानता था कि आगे चलकर बेटा भी इस अराजक शिक्षा जगत में पढ़ाने का ही काम करेगा और अपनी पहचान बनाएगा .


कल की मेरी पोस्ट पर अपूर्व और भूषण , दोनों ने महत्वपूर्ण टिपण्णी की . यह अनायास ही मुझे याद आया कि ईवान इलिच जब भारत आया था तो इंदिरा जी का ज़माना था . इंदिरा जी ने उसे बनस्थली देखने को कहा था . वो बनस्थली आया था और उससे हम लोगों की मुलाक़ात भी हुई थी . इलिच अपनी कृति " डी स्कूलिंग सोसायटी " के कारण चर्चा में आया था . उसकी किताब का यह समर्पण वाक्य बहुत गजब है :" माय मदर वांटेड मी टू स्टडी देयरफोर शी नेवर सेन्ट मी टू स्कूल ." मेरी मां चाहती थी कि मैं पढूं , इसलिए उसने मुझे कभी स्कूल नहीं भेजा . स्कूल में शिक्षा हो या घर में शिक्षा हो ? महत्वपूर्ण प्रश्न है . इन दोनों जगह समाजीकरण भी एक जैसा हो . इतने प्रशिक्षित अध्यापक आज उपलब्ध हैं फिर शिक्षा का ये क्षेत्र पिछड़ा क्यों रहे . पहले तो अध्यापक नियुक्त पहले हो जाते थे , उन्हें प्रशिक्षित सेवा में रहते किया जाता था . यदि डाक्टर अपने घर बैठे चिकित्सा का कार्य कर सकता है तो प्रक्षिक्षित अध्यापक क्यों नहीं .

आज के लिए चर्चा स्थगित करूं , इति .


Sunday, 7 January 2018

पहले ही दिन इम्तिहान  ? भाग दो : जयपुर डायरी .

पहले ही दिन इम्तिहान ....? भाग दो :

कल की ही पोस्ट में मैंने बेटे की अनायास कही बात बताई थी कि बिना पढ़ाए थोपी जाने वाली परीक्षा में बालक सहयोग  नहीं करना चाहता . वह कहता है ," पढ़ाया, लिखाया कुछ नहीं , पहले ही दिन इम्तिहान ? .... नहीं देना इम्तिहान . "

इस सवाल से मुझे तो यह सीख मिल गयी थी कि परीक्षा लेने का अधिकार परीक्षक को तभी मिलना चाहिए जब उसे पढ़ाने का अनुभव हो . बालक को भी जो पढ़ावे, पहले पढ़ावे फिर उसके बाद ही परीक्षा लेवे . क्या छोटे छोटे बच्चों की भी शाला में प्रवेश से पहले परीक्षा ली जानी चाहिए ? यह मुद्दा तो शिक्षा जगत में भी विचारणीय रहा और विधि जगत में भी . शिक्षा में बराबरी होनी चाहिए या समाज जैसी गैर बराबरी शिक्षा जगत में भी रहनी चाहिए , यह तो आज भी ज्वलंत प्रश्न है . क्या ऐसा कहना ठीक रहेगा कि शिक्षा जगत केवल शिक्षा ही प्रदान करे और उसकी उपादेयता और मूल्यांकन समाज पर छोड़ देवे . आज के सन्दर्भ में तो यह कहेंगे कि उद्योग और बाजार शिक्षा की भूमिका तय कर रहे हैं . ऐसा क्यों हो कि बच्चा पड़ोस के स्कूल में न पढकर दूरदराज के स्कूल में पढने जावे . शिक्षा और प्रशिक्षण का क्या नाता हो ? शिक्षा में क्या कुछ नवाचार हो ? क्या आज उपलब्ध संसाधन किसी नवाचार के लिए सहायक हैं, पर्याप्त हैं अथवा नहीं यह भी प्रश्न हैं .

आज उस बात को कई दशक बीत गए , जिस बेटे का ऊपर उल्लेख आया है उसने शैक्षिक चिंतन में नाम कमाया और मेरे विश्राम का समय आ गया , विराम का समय आ गया . शैक्षिक जगत में आज जैसी अराजकता है वह चिंता में डालने वाली है . मैंने क्या सीखा और क्या किया वो तो छोटी छोटी बातें हैं जो आगे कहूंगा , आज के लिए इति .

Friday, 5 January 2018

पहले ही दिन इम्तिहान  ? भाग एक . जयपुर डायरी .

पहले ही दिन इम्तिहान ? भाग एक .


ये तब की बात है जब मैं बेटे को पड़ोस के एक स्कूल में प्रवेश दिलवाने गया था . प्रवेश की औपचारिकता से पहले यह आवश्यक बताया गया कि एक परीक्षा देनी होगी . उस समय मैं ही आवेदन लेकर गया था अतः मैं तो प्रिंसिपल महोदया के पास बैठा रहा और और एक अन्य अध्यापिका बालक को परीक्षा के लिए दूसरे कक्ष में ले गई . भला हो उन स्कूल वालों का कि मुझे कोई परीक्षा नहीं देनी थी वरना बड़े स्कूलों में तो माता पिता को भी परीक्षा देनी होती थी उन दिनों . खैर मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि देखे क्या नतीजा निकलता है तभी वो अध्यापिका लौटकर वापस आयीं और बच्चे को साथ लाईं , कहा : " इसने तो कुछ नहीं किया ." मैंने प्रश्नपत्र और उत्तर पुस्तिका दोनों देखे . वास्तव में बच्चे ने कुछ भी उत्तर नहीं लिखे थे , न सही और न गलत . जो कुछ पूछा गया था वह उसे आता था , यह मैं जानता था पर उसने उत्तर न लिखना मुनासिब समझा सो नहीं लिखा यह स्पष्ट था . अब क्या हो ? मैंने निर्णय प्रिंसिपल साहिबा पर छोड़ दिया . कक्षा एक का प्रगति विवरण उनके सामने था , कक्षा दो में प्रवेश दिया जाना था सो उन्होंने स्वीकृति दे दी और मेरी तात्कालिक चिंता दूर हो गई . 


स्कूल में प्रवेश मिल गया था और मैं बेटे को लेकर घर लौट रहा था तब अकेले में मैंने उससे पूछा : " बेटा , उस पेपर में ऐसा तो कोई सवाल नहीं था जो तुझे न आता हो , फिर तूने इम्तिहान क्यों नहीं दिया ? "

उत्तर में बेटा जो बोला वो इस प्रकार था :" पढ़ाया लिखाया कुछ नहीं , पहले ही दिन इम्तिहान , नहीं देता इम्तिहान !!! “

जिस आत्मविश्वास से इम्तिहान न देने का तर्क उसने दिया था वह मुझे समझ में आ गया था.


Thursday, 4 January 2018

हम आपके इश्टूडेंट हैं सर : बनस्थली डायरी 

हम आप के इश्टूडेंट हैं सर :


 बनस्थली में अपने सेवाकाल के अन्तिम दशक में एक दिन वाणी मंदिर के सत्रह नम्बर के कमरे में मैं पहुंचा तो वहां प्रवेश प्रक्रिया चल रही थी , बड़ी गहमा गहमी थी . प्रवेश लेने वाली छात्राएं और उनके संरक्षक आ जा रहे थे . इसी भीड़ के बीच एक अधेड़ आयु की महिला मेरी ओर न जाने क्यों गौर से देख रही थी , मैंने देखते हुए भी कोई संज्ञान नहीं लिया . थोड़ी देर बाद वो मेरे से मुखातिब हुईं और पूछा ," आप पोलिटिकल साइंस के सर हैं ?" मैंने हां कहकर उनकी बात को स्वीकार किया तो वे तुरत बोलीं : " हम आपके इश्टूडेंट हैं सर ! " मैंने इतने बरसों बाद उनसे मिलने पर ख़ुशी जाहिर की और पूछा : " अब कैसे पधारना हुआ ? " उत्तर अपेक्षा के अनुरूप ही आया , वे अपनी बेटी को प्रवेश दिलवाने आईं थी लेकिन किसी और संकाय में . अब नए नए विषय चल पड़े थे नए नए संकाय शुरू हो गए थे . मेरे साथ तो ऐसा बहुत हुआ कि मां भी पढ़ने आई और आगे चलकर बेटी भी आई . मैंने भूआ को भी पढ़ाया , भतीजी को भी पढ़ाया . 


उस दिन जब मुझे सत्रह नंबर के कमरे में वो पूर्व छात्रा मिली तो अपने गुरु मूर्ति साब बहुत याद आये और उनका सिद्धांत , आई नेवर डिस ओन माई स्टूडेंट .

प्रोफ़ेसर रमण मूर्ति हम लोगों के गुरुं थे . एक बार की बात हमारे एक साथी ने किताबों के बाजार में एक ऐसी किताब उतार दी जो शायद व्यावसायिक रूप से तो बड़े फायदे का सौदा थी पर शैक्षिक रूप से निहायत घटिया थी और पढने वाले को नुकसान भी पहुंचा सकती थी . विभाग में सब कोई इस किताब के लेखक साथी को लानत भेज रहे थे तब मूर्ति साब ने यह कहा था : " आई नेवर डिस ओन माय स्टूडेंट ."

.

. मेरी भी तो सभी प्रकार की छात्राएं रहीं भला मैं किसी को क्यों नकारूं . हां आगे बढ़कर मैं पहल नहीं करता , उसका कारण मैं अपनी पिछली एक पोस्ट में बता भी चुका हूं .

पूर्व छात्राओं के लिए तो मेरा फेसबुक मैत्री का द्वार भी खुला ही रहता है . 


ये अपनत्व मुझे आज भी याद आता है : हम आपके इश्टूडेंट हैं सर !

जैसे माता पिता को तो अपने हकलाने वाले या तुतलाने वाले बच्चे भी प्यारे लगते है उसी प्रकार मुझे तो अपनी सभी छात्राएं प्रिय हैं . 


Tuesday, 2 January 2018

हम नाना हैं बेटा : भिवाड़ी डायरी 


ये भिवाड़ी की बातें हैं , गए बरस की बातें हैं . अविरल और असीम दोनों के दोनों यहां आकर बहुत याद आते हैं तो मैं और जीवन संगिनी उनकी ही बातें करने लगते है , वैसी ही भिवाड़ी की एक छोटी सी बात बताता हूं .

आपणो बाज़ार 

 ये भिवाड़ी का एक ऐसा डिपार्टमेंटल स्टोर है जहां हम लोग अक्सर राशन का सामान लेने जाया करते हैं . एक बार की बात हम लोग स्टोर के रैक्स पर अलग अलग सामान ढूंढ रहे थे , असीम किसी और हिस्से में सामान बखेर रहा था कि एक छोटी सी बच्ची ने मुझे पास खड़ा देख कुछ मदद मांगी लेकिन ‘ अंकल ‘ कहकर संबोधित किया . मैंने बच्ची का मन चाहा तो कर दिया पर एक बात और कही :


“ हम अंकल नहीं हैं , हम नाना हैं बेटा .”

मुझे उस बच्ची को अपनी ये हैसियत बताना जाने क्यों जरूरी लगा , मुझे अंकल कहते तो उसके मां बाप कहते . और मेरे ये बताने का कुछ ऐसा असर हुआ कि बच्ची ने मेरी अंगुली पकड़ ली और काफी देर तक पकड़े रही . ये स्थिति तब बदली जब असीम उधर आया और उसे लगा कि नाना तो किसी और के अधिकार क्षेत्र में चले गए . असीम आया और उसने भी मेरी अंगुली पकड़ ली , खैर ये छोटी छोटी बातें हैं जो बरबस याद आ जाती हैं .

जीवन संगिनी मुझे ज्यादा तस्वीरें साझा करने को मने करती हैं पर मैं ये कुछ तस्वीरें यहां जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा सो जोड़ रहा हूं वैसे ही ~ अविरल , असीम और नाना की जैसी भी तस्वीरें यहां उपलब्ध हुईं .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया, बापू नगर , जयपुर .

रविवार 3 जनवरी 2016 .

आज का अपडेट :

        ये मौक़े की बात है कि गए बरस आज के दिन जयपुर में थे और इस बार तो आज के दिन भिवाड़ी में ही हैं , बच्चों की भी अभी हाल तो छुट्टियाँ हैं तो मज़े हैं .

गए महीने की बात है बड़ी मज़ेदार :


असीम स्कूल वैन से घर लौटता है , नाना नानी दोनों उसे लेने खड़े हैं और सैम का एक साथी बच्चा दक्ष तपाक से बोलता है :

" आप इत्ता जियादा पियार क्यों करते हो इसको ? " 

एक दिन बोला , दूसरे दिन भी ये ही बात बोला नानी ने कहा :

" हम तो तुमको भी इत्ता ही प्यार करते हैं बेटा , आ जाओ ."

पर ख़ैर दक्ष को तो अपने घर जाना था , वैन चली गई , सैम नानी नाना के साथ घर आ गया पर बात अभी भी पूरी नहीं हुई .

अब सैम ये क़िस्सा बड़े मज़े लेकर सुनाता रहता है :

" आप इत्ता जियादा पियार (प्यार) क्यों करते हो इसको ?"

और भी बहुत सी बातें हैं सुनाने लायक पर वो आगे कभी .....

नमस्कार 🙏आशियाना आँगन , भिवाड़ी से .मंगलवार ३जनवरी २०१७.



Monday, 1 January 2018

आप सर्विस में हैं क्या अंकल ? : भिवाड़ी डायरी 

आप सर्विस में हैं क्या अंकल ..? 

शाम का झुटपुटा , मैं जीवन संगिनी के साथ आँगन का एक फेरा लगाकर लगभग सूने बगीचे में एक बैंच पर बैठ गया था ताकि नित्य नियम के अनुसार वो एक आध चक्कर और लगा लेवें और फिर हम लोग लौटें अपने टॉवर में इस दौरान मैं अपने मोबाइल को निकालकर देखने लगा कि कहीं कोई स्वजन का आया सन्देश तो दर्ज नहीं है इसमें .

वैसे इसमें भी चक्कर ही है , कभी नैटवर्क होवे और कभी न भी होवे .खैर अब आवें आगे की बात पर .

मैं बजरिए नैटवर्क हीरा मोती खोजने की नाकाम कोशिश कर ही रहा था और मेरा ध्यान इस तरफ था नहीं कि वहां कौन आया कौन नहीं आया तभी मुझे लगा कि कोई प्राणी मेरे सामने वाली बैंच पर आकर बैठा . मुझे ये तो लगा कि कोई युवा है पर कोई लड़का है या लड़की ये भी अंदाज नहीं पड़ा , पर उससे मेरा वास्ता नहीं था मैं तो व्यक्ति विशेष की बाट जोहने को बैठा था . किसकी ये तो मैं पहले ही बता चुका हूं .

सवाल सुनकर मेरा ध्यान बंटा और तब मैं जाना कि ये एक लड़की है और मुझसे ही पूछ रही है :

“अंकल आप सर्विस में हैं क्या ? “

लड़की से बात करना मुझे हमेशा अच्छा लगता है , क्यों ये बताने की शायद जरूरत नहीं है , और अब तो लड़की खुद कुछ पूछ रही है तो बात मुझे करनी ही थी मैं तो खाली ही बैठा था पर पर सवाल मुझे समझ नहीं आ रहा था . मैं बोला :

“ ऐसा क्यों पूछ रही हो ?”

और उसका जवाब था :

“ आपने यूनिफार्म पहनी है .”

ये सुनकर मुझे हंसी आ गई और मैंने स्पष्ट किया कि ये मेरी यूनिफार्म नहीं है , सायंकालीन भ्रमण के लिए ऐसे ही मांगकर पहन ली है और ऐसे में अनुज और महिमा का जिक्र आ गया .असल में अपण हैं भी तो उनमें से जो गंगा गए गंगा दास , जमना गए जमना दास , ख़ैर वो हो गई बात . असल में वो लड़की ख़ुद ट्रेनी सर्विस इंजीनियर थी पड़ोस की एक कम्पनी में जिससे वो यूनीफ़ार्म को पहचान रही थी . अब मैं बन गया बनस्थली का ब्राण्ड एम्बेसेडर जो कभी किसी ने मुक़र्रर नहीं किया अलबत्ता . लड़की थोड़ा बहुत वहां के बारे में जानती निकली . एक बारी उसका दाख़िला भी हो गया बताया पर फिर उसने तकनीकी शिक्षा अन्यत्र ग्रहण की थी . अब वार्ता में अपनी अपनी पहचान थी हम दोनों की और तदनुरूप ही दोनों के बीच बातचीत हुई .

ज्यादा वक़्त नहीं लगा जीवन संगिनी घूम घाम कर लौट आई और जब मैंने मिलवाया तो हमेशा की तरह उनका वात्सल्य उमड़ पड़ा मानों मेरी ही कोई लड़की उन्हें फिर से मिल गई हो . कभी एक दूसरे के घर आवें जावें ये भी बात हुई पर काम क़ाज़ी लोगों को फ़ुरसत का तो घाटा ही होता है . उस दिन तो इत्ती ही बात हुई . 

इस प्रसंग के समर्थन में एक फ़ोटो भी संलग्न करूंग़ा .