Friday, 29 December 2017

आइंदा ऐसा मत करना : बनस्थली डायरी

 बनस्थली डायरी : “आइन्दा ऐसा मत करना ! “

 ये बनस्थली की बातें हैं , पुराने जमाने की बातें हैं जब मोबाइल फोन तो दूर की बात हमारे घरों में लैंड लाइन फोन भी नहीं हुआ करते थे . लोगों में आत्मीयता हुआ करती थी , जिंदगी मशीनी नहीं हुई थी बनस्थली में आज की सी चक्राकार सड़कें नहीं बनी थीं . एक ही सीधा सपाट राज मार्ग था , वही जनपथ था , सब कोई उस सड़क पर पैदल चलते मिल जाते थे , विशिष्ट व्यक्ति से मिलने के लिए अपॉइंटमेंट लेना नहीं पड़ता था , कभी भी जाकर मिल सकते थे . आज के जमाने की तरह बहुत सी सवारियां नहीं दौडती थीं , पैदल चलने का रिवाज था . उस दौर का ये वाक्य मुझे बार बार याद आ जाता है आज उस की ही कुछ बात बताता हूं .

हुआ क्या था ?

शाम का समय था मैं बनस्थली विद्यापीठ परिसर की उसी मुख्य सड़क पर घूमने निकला था , रास्ते में कोई कोई साथी मिल गए और बाते करते जा रहे थे . सामने से आ रहे बुजुर्गवार ने मुझे रास्ते में रोका और दोस्तों के साथ हूं जानकर बिना अधिक समय लिए एक ही नसीहत दी :

“ सुमन्त .. आइन्दा ऐसा मत करना . “

मैं भला और क्या कहता, ये ही बोला:

“ जी ध्यान रखूंगा ..””

और बुजुर्गवार चले गए .

मेरे दोस्तों के लिए तो यही एक सवाल खड़ा हो गया कि आखिर मैंने ऐसा क्या कर दिया जिसकी बाबत बुजुर्गवार ये नसीहत दे गए और मैंने वो बात झेल भी ली . न बताता तो साथियों को पेट दर्द हो जाता . जो उनको बताई वो फिर बताता हूं कि बात क्या थी और और उस दिन हुए इस संवाद का निहितार्थ क्या था .

बात ये थी कि एक दिन उन्होंने शाम चार बजे मुझे मिलने के लिए बुलाया था , उनका बात करने का उपयुक्त समय भी प्रायः यही होता था और वे दोपहर के भोजन के बाद विश्राम कर चुके होते थे . अपना आलम ये था कि उन दिनों मैं घर में अकेला था और उस दिन दोपहर की क्लास पढ़ाकर आया था . चार बजे में समय बाकी जान थोड़ी देर को बिस्तर पर लेट गया और आंख लग गई . आंख खुली तो छह बजे थे और मैं उनकी हाजिरी में नहीं पहुंचा . उसी बात का वो उलाहना दे रहे थे बिना कोई कैफियत मांगे .

कितनी आत्मीयता थी उस जमाने के लोगों में वही बता रहा हूं इस संस्मरण के माध्यम से .

इसी लिए तो ये बात याद आ जाती है :

“ आइन्दा ऐसा मत करना !


Tuesday, 19 December 2017

“सो यू हैव ऑल्सो ज्वाइंड सुमन्त ?”:जयपुर डायरी

सो यू हैव आल्सो ज्वाइंड सुमन्त ?”:मेरे विद्यार्थी जीवन की वो याद .

  

 आज उस घडी को याद करता हूं तो भाव विभोर हो जाता हूं जब मैं राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में पढ़ने गया था .जुलाई 1968 :मैंने विभाग में एम ए में दाखिला ले लिया था और विभिन्न कक्षाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने लगा था . बी ए कक्षाओं में पढ़ते हुए इस विभाग में भी मेरा आना जाना रहा था उसी का परिणाम और प्रभाव बताता हूं जो इस प्रश्न वाक्य में परिलक्षित होता है .

विभाग का थियेटर नंबर वन : थियेटर की बैठक व्यवस्था कुछ इस प्रकार की थी कि किसी भी पेपर की क्लास में सबसे आगे की बैंच को छोड़ कर अगली तीन बेंचें तो लड़कियों से भरी होती थीं , ऐसी लड़कियां जो मुख्य रूप से जयपुर के महारानी कालेज और कानोड़िया से पढ़कर आई हुई होती थीं और उसके बाद की बैंचों पर लड़कों का नंबर आता . ये लडके मुख्य रूप से राजस्थान कालेज , जो आर्ट्स के लिए जाना जाता था और अन्य जिलों के कॉलेजों से पढकर आए हुए होते बैठते इन्हीं में मेरा भी स्थान था . इतना मुझे याद आता है कि इनमें लड़कियों का अनुपात ज्यादा ही होता था . लड़कों के लिए तब तक साइंस पढ़ने का चलन ज्यादा था .फिर भी काफी कुछ संख्या लड़कों की भी होती थी इनमें बाहर गांव से शहर में पढने आए लड़के भी होते थे . तब आज की तरह छोटी छोटी जगहों पर पी जी कॉलेज नहीं होते थे .

ये वो दिन था जब सब दाखिले मुकम्मल हो जाने के बाद राजनीतिशास्त्र विभाग के संस्थापक विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर एस पी वर्मा क्लास पढ़ाने आए थे और एम ए प्रीवियस में दाखिल विद्यार्थियों के नाम अपने हाजिरी रजिस्टर में दर्ज कर रहे थे . मुझे बताया गया था कि किसी जमाने में तो वो ये काम नहीं करते थे उनके लिए पहले आकर रत्नानी बाबू ये हाजिरी का काम कर जाया करता था . पर अब तो सब लड़का लड़की से परिचय पूछकर वर्मा साब खुद नाम दर्ज कर रहे थे . बारी बारी से सब कोई अपना नाम लिखवा रहे थे . ऐसे में कोई तीसरी चौथी पंक्ति पर वर्मा साब की निगाह पहुंची तो मेरी भी बारी आई और मेरे तमाम सहपाठी ये देखकर चकित थे कि वर्मा साब ने मुझसे कोई सवाल नाम , गाँव बाबत नहीं पूछा और वो बोले :

   “ सो , यू हैव आलसो ज्वाइंड सुमन्त . .? “

 मानो मेरे यहां पढ़ने आने की तो उन्हें बाट ही थी .

मेरे सहपाठी इस बाबत रश्क करने लगे कि मेरे विभाग में आने के पहले से ही वर्मा साब मुझे इतने अच्छे से कैसे जानते थे . 

इसकी भी एक लंबी कहानी है जो अगली किसी कड़ी में लिखूंगा .


Monday, 11 December 2017

गांव के स्कूल में : बतर्ज भास्कर

देखा सुना : गांव के स्कूल का किस्सा : बतर्ज भास्कर .

गांव के स्कूल का परीक्षा कक्ष:

माट साब कस्बे से चल कर परीक्षा में ड्यूटी करने आए है  स्कूल में  . हो गई कक्ष में परीक्षा शुरु . कापी पेपर बांट दिए और अब कमरे के दरवाजे के पास कुर्सी लगाकर डटे बैठे हैं माट साब . दरवाजे के पास कुछ हवा तो लगे , कमरे में तो कोई पंखा भी नहीं है . छोरे कर रहे हैं अपना काम सुविधा देखकर . अगर कोई सामग्री साथ लाए हैं तो उसको भी बरत रहे हैं  अब माट साब तो अपनी जगह से उठकर आने से रहे  , छोरे माट साब की इज्जत भी करते हैं और लिबर्टी भी लेते हैं . अब एक छोरे ने जब काफी कुछ सामग्री बरत ली तो माट साब हरकत में आए और बोले :

 “ छोरा ! करै  मन्नै ! न त रै देख आवूं छूं देख ! Q“

छोरा  , इत्ते कहे से कब  मानने वाला था  छोरा वो भी जिद्दी , करता रहा अपनी मन मानी  और माट साब को झुल्ला देता रहा :

” माट साब ! थोड़ो सो और कल्लेबा द्यो ! अजी माट साब .”

थोड़ी देर और हो  गई , फिर लगाई हांक माट साब ने  और फिर बोले :

” देख छोरा करै मन्नै  ! न त रै देख आवूं छूं देख ! “

अब आप पूछे बिना न मानोगे ,” फिर क्या हुआ ? “

होना क्या था  , माट साब ने उठ के जाने का श्रम नहीं किया , छोरा माना नहीं  , और छोरों को लाइसेंस और मिल गया .

ऐसे ही  चली परीक्षा.

Saturday, 9 December 2017

विदाउट परमीशन  : बनस्थली डायरी .

विदाउट परमीशन : बनस्थली डायरी 

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बनस्थली के स्वर्णिम इतिहास में एक काकाजी नाम के व्यक्ति थे आज उनके ही जलाल के बारे में है ये पोस्ट . उनकी सुदीर्घ सेवाओं के बारे में एक शिलालेख भी लगा हुआ है विद्या मंदिर में अब तो , बस उनकी ही बात है . आज के लोगों की जानकारी के लिए बताऊँ कि वर्तमान में बनस्थली के सीनियर सेकेण्डरी स्कूल की प्रिंसिपल सुकेश जी उन्हीं काकाजी की बेटी हैं . काफ़ी समय से मेरा विचार बन रहा था कि ये संस्मरण उन्हीं सुकेश जी की दीवार पर लिखूंग पर ऐसा हो न सका क्योंकि मैं अभी सुक़ेश जी की मित्र सूची में सम्मिलित नहीं हो पाया हूं . वैसे सुकेश जी हमारे ही विषय ( राजनीति शास्त्र ) की हैं और उनसे मेरा दीर्घ अवधि से परिचय है इसकी सब तस्दीक़ करेंगे .


काकाजी विद्यापीठ में मुख्य प्रशासनिक अधिकारी हुआ करते थे और तामीर और सुरक्षा प्रबंध से लगाकर रोज़मर्रा के अनेक प्रशासनिक काम काज उनके अधीन आते थे . विद्यापीठ के स्वागत द्वार के सुरक्षा प्रहरी भी उनके ही मातहद काम करते थे . ये तो बीते ज़माने की बातें हैं . दो बरस पहले स्वागत द्वार पर बैठे छोरे छापरों ने जब मुझे ही अंदर जाने से रोका था और मेरी पहचान पूछी थी तब मुझे भी काकाजी की याद आई थी , पर ख़ैर अभी वो बात रहने देवें , अभी काकाजी के ज़माने की बात :


ऐसा माना जाता था कि परिसर में पत्ता भी खड़कता है तो काकाजी की परमीशन से . भृत्य वर्ग में काकाजी का ख़ौफ़ रहता था , दरवाज़ा उनकी परमीशन से खुलता या बंद होता था . कोई नई गतिविधि होती तो या देखी जाती तो उसकी सूचना काकाजी को दी जाती थी . मेरे काकाजी से कैसे पारिवारिक सम्बंध थे वो अलग से क़हूंगा वरना आज का क़िस्सा छूट जाएगा तो अभी चलें आगे .


क़िस्सा ख़ास :

------------- हम्मा तुम्मा ने तो यहां तक वहम पाल लिया था कि काकाजी गेट खुलवा दें तो परिसर में मेह आ बरसे न तो मेह न बरस पावे . मैं तो महावीर जी के ज़रिए सुक़ेश जी तक बात पहुँचाया करता था कि वो काकाजी से गेट खुलवाने की सिफ़ारिश कर देवें तो और मेह बरस जावे , ख़ैर .


सच्ची बात :

----------- एक दिन की बात रोडवेज़ की सुबह जयपुर से बनस्थली आने वाली बस अपने नियत रूट पर बनस्थली की ओर आ रही थी उसमें यू को बैंक का अधिकारी प्रशांत निहलानी भी रोज़ की तरह आ रहा था जो रोज़ाना आया जाया करता था . 

इत्तफ़ाक़ की बात उस दिन अपनी जीप से काकाजी जयपुर जा रहे थे और उनकी जीप सामने से आकर बग़ल से निकली , ये चाकसू के आस पास की बात है , तो ठहाका लगाकर हंसा निहलानी :


“ ओ हो आज तो मेह को परमीशन की ज़रूरत ही नहीं है “


और ल्यो जी महाराज , चाकसू पर आकाश साफ़ था पर थोड़ी देर बाद जब बस परिसर में आकर रुकी तो झमाझम मेह बरस रहा था , उतरने वाले भीग गए .

अनायास कही गई निहलानी की बात सच हो गई उस दिन तो .


काकाजी का पुण्य स्मरण , बनस्थली के अच्छे दिनों को याद करते हुए .


-सुमन्त पंड़्या .

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क़िस्सा आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर

रविवार  १० दिसम्बर २०१७ .

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Friday, 8 December 2017

हम भी ब्लॉगर तुम भी ब्लॉगर : जयपुर डायरी .

कल दोपहर तो कमाल हो गया . जय और प्रेरिता लिवा लाए और ये लोग यहां आ गए . भाई कमाल ये भी ब्लॉगर निकले . कल तो जीवन संगिनी ने कहकर ये तस्वीर लिवाई . ये अपने जीवन अनुभव लिखे जा रहे हैं डच भाषा में . अनुवाद के उपकरण से भाषा की दूरी को पाट डाला है . कल शाम ही मेरे ब्लॉग की एकआध पोस्ट पढ़ भी ली इन्होंने और अपनी टिप्पणी लिखी अपनी भाषा में . अपण ही रहे अनाड़ी उनकी भाषा समझने की कोई जुगत नहीं भिड़ा सके . पर फिर भी बेल्ज़ियम के इस जोड़े से जो मेलमिलाप रहा है कल और आज में उसके क्या कहने . तो कुल मिलाकर दो बात मुकम्मल हुई :

१ .

अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री एक अलग महाद्वीप के लोगों के साथ .

२.

ये अहसास कि तुम भी ब्लॉगर और हम भी ब्लॉगर और दोनों लिखें अपनी अपनी ज़ुबान में फिर भी जानें एक दूसरे का लिखा और संवाद करें .

गुलमोहर कैम्प , जयपुर से सुप्रभात .

शनिवार  ९ दिसम्बर २०१७ । 

और ये आज सुबह का शिखर सम्मेलन :

चाय पर चर्चा *

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Thursday, 7 December 2017

कैश क्रंच में पंडिताई  : भिवाड़ी डायरी .

कैश क्रंच में पंडिताई 🌻


नमस्कार 🙏


मैं सोच रहा था आज कल पंडितों की पंडिताई कैसी चल रही होगी , वैसे ठीक ही चल रही है ख़ैर , पर वो बात ऐसी कि हर संकल्प में मुद्रा धराते हैं और आजकल नक़दी का है टोटा जिससे ये सवाल आया और ये बात ध्यान में आई . पर मुझे अभी बतानी एक और ही बात वो आएगी आगे . बस एक बार बाहर का चक्कर लगाकर लौटता हूं .


हां अब बात आगे : ये बात है जुलाई २०१० की जब अनुज - महिमा ने आशियाना में घर ले लिया था और यहां आ बसने की योजना बन रही थी . ये तय किया गया कि अच्छा दिन देखकर गृह प्रवेश कर लिया जाए और आगे मय सामान के आ जाने की सुविधा देखें . तब का ठीड़ा गुड़गाँव था वहाँ से आना था भिवाड़ी जो ख़ैर आए और सब काम ठीक से हो भी गया पर उससे ही जुड़ी और और बातें हैं जो बताने लायक हैं .


पास के ही टावर में सोनी जी ने भी मकान लिया था उन लोगों को भी साथ आना था और यही शगुन करना था जो कि साथ आए भी और ये शुभ आयोजन पारस्परिक सहयोग से सम्भव हुआ भी .


कैश क्रंच की बात :

------------- नया मकान बनाने या लेने वाले जन के पास प्रायः नक़दी का टोटा हो जाता है और वो बरकत की जुगत सोचता है वही सोच सोनी जी का था वो बोले :


" यहां से एक ही पंडित ले चलते हैं , दोनों जगह पूजा करा देगा , बचत रहेगी ."


इस बात पर महिमा ने कहा 


" हमारे पापा हैं न पंडित जी वो करा देंगे पूजा ."


" तब हमारे ...? " सोनी जी ने पूछा .


और महिमा ने कहा : " आपके यहाँ भी करा देंगे किसी और पंडित की ज़रूरत नहीं ."


ऐसे बन गई योजना और ये अभियान दल संयुक्त रूप से चला आया भिवाड़ी ये एक छोटा सा शिष्टमंडल था जो तब आया था भिवाड़ी .


अब आगे की बात :

------------ हमारे अश्वनी भाई बड़े दूरदर्शी आदमी हैं वो तो मेरी सीमा जानते थे और इसलिए एक मंत्र पुस्तिका भी साथ लेते आए थे ताकि ये लीक से हटकर काम में हमारी मदद रहे और वक़्त ज़रूरत का कोई मंत्र छूटे नहीं .


ख़ैर सांब हो गई पूजा , हो गया गृह प्रवेश यहीं दूध गरम हुआ , नाश्ता भी हुआ और भोजन भी और अब हम पंडित द्वय पहुंचे सोनी जी जोड़े के साथ उनके नए आवास का गृह प्रवेश करवाने . और वहाँ भी हमें अपेक्षित सफलता मिली पर वहाँ एक रोचक घटना हुई जो बताने लायक है .


दूसरा गृह प्रवेश :

.................. पूजा और गृह प्रवेश के बाद सोनी जी प्रथानुसार दक्षिणा सोंपणा चाहते थे पर हम कैसे लेते हम तो स्थानापन्न पंडित थे , उल्टे अश्विनी भाई ने उन्हें याद दिलाया :

" पूजा करके उठे हो , अब बड़े बुज़ुर्गों का आशीर्वाद भी लेओ .🙏 "


सोनी जी ने झुककर हम दोनों का आशीर्वाद लिया और हमने अलग अलग शतक सम्मान से उन्हें पुरस्कृत भी किया .

सोनी जी ख़ुश हो गए . 


मुझे याद आता है मैंने रोहित के विवाह में गणेश स्थापना करवाई थी क्योंकि भाभी ने ऐसा कहा था , चौधरी के घर लगन झिलवाया था क्योंकि परिस्थिति की माँग ही ऐसी थी और ये आशियाना में गृह प्रवेश करवाया जहाँ हम लोग अभी ठहरे हैं .

जय हो प्रभु 🙏 

मुझे ऐसे भरोसे लायक सामर्थ्य देते रहना .


प्रातःक़ालीन सभा इसी संस्मरण के साथ स्थगित .......


सुमन्त पंड़्या 

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

 गुरुवार ८ दिसम्बर २०१६ .

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गए बरस लिखा था ये संस्मरण , इसमें आगे पीछे की कई बातों का ज़िक्र आया है .

आज इस क़िस्से का पुनः लोकार्पण .

आज ब्लॉग पर प्रकाशित .

जयपुर 

शुक्रवार  ८ दिसम्बर २०१७ .

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Tuesday, 5 December 2017

“ लगन झिलवाओ  “  : बनस्थली डायरी .

दोस्त की खातिर 

वही बनस्थली की बातें


दोस्त अपने छोटे भाई का विवाह करने चले थे , घर से कोई बड़ा बुजुर्ग आया नहीं था वे ही उस समय शायद सबसे बड़े थे वहां उपस्थित घर के लोगों में । उस दिन मेरे घर आये , वही 44 रवीन्द्र निवास पर । मैं थोड़ी ही देर पहले पढ़ाने का काम पूरा कर घर लौटा था। बोले:


~ यार सुमन्त जी वो लड़की वाले आ गए एक बस भर के और कह रहे हैं , लगन झिलवाओ , यार ये कैसे होगा ? 


* श्रीमान , वो लगन नहीं है सम्मन है , झेलना तो पड़ेगा , नहीं झेला तो मैं आपके घर के बाहर चिपकवा दूंगा और दो की गवाही करवा दूंगा , खैर, चिंता मत करो , घर जाओ और कुछ पूजन सामग्री इकट्ठा कर लो , पड़ोस की महिलाओं को मंगल गायन के लिए बुला लो , कह दो पंडित जी अभी आते हैं । ये मैं बोला।


दोस्त अपने घर को लौटे , मैं अंदर जाकर पंडित जी बनने लगा । धोती , कुर्ता दुपट्टा धारण कर दोस्त के घर पहुंचा तब तक वहां उत्सव का सा वातावरण बन चुका था और लोग किन्हीं पंडित जी की प्रतीक्षा कर रहे थे जो भूमिका बहर हाल मुझे ही निभानी थी । वहां पहुंचकर मैंने संकल्प ग्रहण करवाया और आवश्यक पूजा पाठ करवाकर उस कथित लगन को उन लोगो को निरावृत अवस्था में थमा दिया और समझा दिया कि वास्तव में यह और कुछ नहीं एक प्रकार का निमंत्रणपत्र है जिसे कोई बड़ा बुजुर्ग यहां पढ़कर सुनावै

 

~ हमारे यहां तो हमेशा से लगन पंडित जी ही पढ़ते हैं । वे लोग बोले ।

मैं बोला , " कारण ये होगा कि गांव में शायद पंडित ही पढना जानता रहा होगा इसलिए ये रिवाज बन गया । खैर , लाओ मैं पढ़ देता हूं लगन ! "

और मैंने जस तस लगन भी पढ़कर सुना दिया , मंगल गायन तेज हो गया लड्डू बंट गए । 

 लगन क्या झिल गया था सम्मन तामील हो गया था जैसा मैंने उसे वैकल्पिक नाम दिया था ।


इति प्रातः कालीन सभा 

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आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर ६ दिसम्बर २०१७ .

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पोरंपरा  ... दो  : बनस्थली डायरी .

पोरम्परा......भाग----2****


सुबह फुरसत प्रसंग में उलझ गया था अतः इस प्रसंग को आगे न बढ़ा पाया था । अब कुछ फुरसत निकाल कर इस बाबत लिखने बैठा हूँ । बनस्थली की एक अपराह्न मेरे अभिन्न मित्र सेठजी 44 रवीन्द्र निवास में आये । फ्रैंच के सुयोग्य प्राध्यापक प्रदीप सेठ वैसे रहते तो अरविन्द निवास में थे पर शाम को उधर उनका मन नहीं लगता और इधर रवीन्द्र निवास में हम लोगों के पास चले आते ।दुनियां जहान की बातें होतीं । स्थानीय से लेकर प्रान्तीय , राष्टीय और अंतरराष्ट्रीय प्रसंगों पर मैं अपनी समझ जैसी बात कहता । मेरा भी जी हल्का हो जाता ,मोहल्ले के और लोग भी बात में बात मिला देते और इस तरह शाम बीत जाती । ऐसी शामों के लिए ही शायद गजल की पंक्तिया कही गई थी : कट गई वस्ल की शब और कोई आहट न हुई , वक्त इसी तरहा दबे पांव गुज़र जाता है ! सिलसिला.... *

       

खैर , आज सेठजी एक सुखद निमित्त से आये थे । विद्यापीठ का दीक्षांत समारोह होने जा रहा था और उन्हें पी एच डी की उपाधि मिलने वाली थी । वे यहां अधोवस्त्र धारण करने आये थे । धोती कुर्ता उत्तरीय लेकर आये थे , मुझे उन्हें धोती पहनानी थी । आदत के मुताबिक़ मैंने बाहरवाला कमरा खाली करवाया , दोनों कमरों को जोड़ने वाला दरवाजा बंद किया और सेठ जी से कहा : उतारो ये पतलून और हो जावो खुल्लमखुल्ला । सेठ जी को धोती पहनाई ,कुर्ता उन्होंने खुद पहन लिया , दुपट्टा लगाया और इस प्रकार एक दीक्षार्थी के रूप में सेठ जी को 44 रवीन्द्र निवास से विदा किया । कितने सुन्दर लग रहे थे सेठ जी यह तो आप मेरी आंखों से ही देख सकते हैं ।

   बात वैसे तो यहां आकर ठहरती है कि कभी यहीं कमरे में टाई लगाईं थी आज धोती पहनाई थी पर इस प्रसंग से जुड़ा हुआ एक लंबा इतिहास है जो किसी अगली पोस्ट में आ ही जाएगा । आज वह बात बताकर बात समाप्त करूं जो सेठ जी से हुई थी ।

       मैंने सेठ जी से पूछा : आप यहां तक चलकर क्यों आये ? अरविन्द निवास में भी कोई न कोई आप को धोती पहना देता ।

      इस बात पर सेठ जी जो बोले वो बोल कर मेरे ह्रदय सम्राट बन गए , वो बोले :


           पोरम्परा है ! ( परंपरा है ! )

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ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर .

बुधवार  ६ दिसम्बर २०१७.

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Monday, 4 December 2017

तेल , नून और लकड़ी  :  जयपुर डायरी .

                   — आपका क़िस्सागो .

तेल , नून और लकड़ी .

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बचपन की बाते याद आती हैं .


“ भूल गए राग रंग , भूल गए छकड़ी ,

तीन बात याद रही तेल , नून और लकड़ी ।”


जो समझ गए वो समझ गए , जो न समझ पाये उन्हें समझाकर करना भी क्या है , इस नव सुखवादी दुनियां में ।


लकड़ी का मतलब बळीता राजस्थानी में , आज के जमाने में फ्यूएल जो और कुछ भी हो सकता है । खैर छोड़िये .


मेरे बचपन के आवास , जंगजीत महादेव के सामने, नाहरगढ़ की सड़क , जयपुर के सामने से एक बावळी रोज निकलती और चबूतरों पर बैठे छोकरे यह कहने से बाज नहीं आते कि , तेल गुड़ को कांई भाव छै ?

ये बात किसी को संबोधित नहीं होती थी , पर बावळी यह सुनकर पत्थर फेंकती और रोज रोज ये कहानी दोहराई जाती । क्यों वो ऐसा करती ? क्या बात थी ?

असल में उसके लिए आरोपित आशनाई की तरफ इशारा होता था इस बात में । इस टोका टाकी और रंबाद को ख़तम करने के ख़याल से कुछ बड़े लोगों ने छोकरों को खबरदार कर दिया कि उसके आने पर कोई कुछ बोले नहीं ।


नियमानुसार उस दिन वो बावळी आई और कोई कुछ नहीं बोला। मरघट जैसी शांति देखकर वो जो वोली वो कहता हूं :


“ आज तो बापकाणा सब मरगा ईं मोहल्ला में , कोई छै ही कोनै , कोई बोलै ही कोनै ? “


अर्थात इस मोहल्ले के कम्बखत सभी मर गए , कोई कुछ बोलता ही नहीं , कोई है ही नहीं यहां तो ।


सीख क्या मिली ?


" मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ."


अरस्तू ने सही कहा था , वह संवाद करना चाहता हैं और ये हुआ रंबाद के बहाने संवाद . बावळी के व्यवहार से भी यही प्रमाणित होता है .

प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ...

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आज किस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

५ दिसंबर २०१७ ।

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वो अलाव जलाने के दिन . बनस्थली डायरी .

वो अलाव जलाने के दिन :

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अभी भिवाड़ी के आँगन में घूमकर आया हूं तो सर्दियों की वो शामें याद आ रही है जब बनस्थली में घर के बाहर अलाव जलाकर बैठा करते थे , कैसा आनंद था .


रवीन्द्र निवास की इस अलाव गोष्ठी की धमक ऐसी हुआ करती थी कि अरविन्द निवास से भी यार दोस्त यहां आ बैठते और किस्सागोई लगभग अंताक्षरी की तरह चलती . बात से बात निकलती चलती .


मुझे याद है महावीर जी , श्याम जी जैसे लोग अलाव में भूनने को आलू और शकरकंदी ले आते और भुने आलू और शकरकंदी झाड़ पोंछ कर वहीँ उड़ जाते .


सूरज चौकीदार जो लठ्ठ लिए घूमता होता वो भी दम लेने को अलाव के पास , हमारे पास आ बैठता और वहीँ अपनी बीड़ी सुलगाता .


कोई कोई दिन विनोद जोशी अपनी कविता की डायरी साथ लिए आ जाते और अलाव की रौशनी में कविता सुनाते , उनकी रचनाएं मौलिक होतीं और कोई कोई गीत तरन्नुम में सुनाते . 


ये सारी गतिविधि अग्निदेव को साक्षी मानकर हुआ करती .


बातें तो बहुत हैं पर सब बात सुनाने को बखत भी तो होवे , ये पोस्ट भी जल्दी जल्दी में बनाई है .


वे दिन और वो लोग बहुत याद आते हैं 


-- सुमन्त पंड्या .

  @ भिवाड़ी .

#बनस्थलीडायरी #स्मृतियोंकेचलचित्र #sumantpandya .


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यादों के पिटारे से निकली पोस्ट है . कल से ये बातें याद आए जा रही थीं . आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

५  दिसम्बर २०१७ .

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Sunday, 3 December 2017

अच्छे दिनों की आस .. : जयपुर डायरी .

आशियाना से नमस्कार 🙏


अब ऐसे अच्छे दिनों की इंतज़ार है जब क्या क्या होवेगा :

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१.

ए टी एम में घुसकर पहले की तरह वक़्त ज़रूरत को पैसा निकाल पावेंगे .


२.

किसी बैंक में जावेंगे तो बरोबर से वो ही सीनियर सिटीज़न सम्मान पाएँगे जो मौजूदा आफ़त के दौर से पहले पाया करते थे .

३.

 बाज़ार जाएँगे तो ज़रूरत की चीज लेकर ये नहीं सोचना पड़ेगा कि अब भुगतान की कैसे जुगत बैठे , विकल्प खुले होंगे कि ऐसे चाहो तो ऐसे और वैसे चाहो तो वैसे .

४.

आजकल की तरह बच्चों के सामने मंगत्यापणा नहीं दिखाना पड़ेगा कि मेरे लिए ये कर दो और मेरे लिए वो कर दो .

५.

या तो अपण पूरम पट्ट डिजिटल हो जाएँगे और न तो अंटी में ऐसा पैसा होगा जो झिलेगा बाजार में . वो पैसा धातु का हो , काग़ज़ का हो या प्लास्टिक का अब महाराज वो तो जैसी राज की मर्ज़ी होगी वो ही तो मुद्रा चलेगी .

६.

  और किसी ऐरे ग़ैरे की ये हिम्मत न होवेगी कि वो अपण से ये बोल देवे कि फ़लाँ जगह लाइन में लग सकते हो तो यहां क्यों नहीं ? और तब लाइन में लगे थे तो अब क्यों नहीं . 

७. 

ऐसी ताक़त बनाए रखना प्रभु कि अपण पलट कर पूछ सकें :

" तुम से मतलब .. ?...चोप !"


आज इन स्फुट विचारों को सूत्रबद्ध करने में समय बीत गया , आगे आएगी अपणी " एथिकल स्ट्राइक " की बात , देखें कैसी बण पड़ती है .


भरोसा है ऐसे दिन आएँगे . और फिर मेरा वो ही तकिया कलाम :


" ये तो बार की बात छै माट सांब ..... फेर तो थे जाणो !"


प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ....

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सच्ची बात ये है कि ये गए बरस का लेख है  , मेरी जो मनोदशा तब थी वो ही अब है . आप जाणो मैं जो मन में आता है कह देता हूं . आज अपने मित्रों से प्रोत्साहन पाकर इसे ब्लॉग पर दर्ज कर रहा हूं , देखिएगा .

जयपुर 

सोमवार  ४ दिसम्बर २०१७ .

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बाई का फूल ... चार  : बनस्थली डायरी .

बाईं का फूल -चार : बनस्थली डायरी 

----------------- -------------- इस शीर्षक से तीन कड़ी पहले लिखी थी और बात मजबूरी में रोकनी पड़ीं थी . कौन थे एम डी साब ? यहीं बात अटकीं थी . सीधे सीधे कह देता कि मेरे सहपाठी थे और इसलिए घर मिलने आए थे पर इत्ता कहने से मन भरता नहीं इसलिए उस दिन रोकी बात , शायद आज बात पूरी हो जावे .


४.


ये एम डी थे राजस्थान कोआपरेटिव सर्विस के ज्वाइंट डायरेक्टर हैसियत के राम अवतार जैन जो उस समय डेपूटेशन पर बैंक में लगे हुए थे और राजस्थान विश्वविद्यालय में एम ए कक्षाओं में मेरे सहपाठी रहे थे . पर यादों का सिलसिला और पीछे तक जाता है वो भी आज बताए देता हूं .

नवम्बर १९६७ में बिट्स , पिलानी में गांधी स्मारक बाद विवाद प्रतियोगिता थी , जैनेंद्र कुमार सभा की अद्यक्षता करने आए हुए थे . उस बड़े हाल में बोलना मेरा तो पहला ही अनुभव था , मैं विश्वविद्यालय राजस्थान कालेज का प्रतिनिधित्व करने गया था . ऐसा कम होता है पर उस दिन तो ऐसा ही हुआ कि एक प्रतियोगी के रूप में मैं जब बोल चुका तो सभाध्यक्ष ने भी ताली बाजाई . और लोगों ने मुझे ख़ास तौर से ये बात बताई .

उस प्रतियोगिता के परिणाम में एक ख़ास बात ये हुई कि एक तरफ़ तो मुझे प्रथम प्रथम पुरस्कार मिला और दूसरी तरफ़ टीम के प्राप्तांकों के आधार पर राजऋषि कालेज , अलवर के दो छोरे ट्राफ़ी ले गए . अब ये सब होनहार की बात उन दो लड़कों में से एक थे ये राम अवतार . कोई डेढ़ बरस बाद जब जयपुर में एम ए कक्षाओं में साथ पढ़ने आए तो हमारी वो यादें ताज़ा हो गईं ….

इसके अलावा और भी कई बातें हमें आपस में जोड़ने वाली थीं …..

एम ए का रिज़ल्ट निकलने के बमुश्किल दो हफ़्ते बाद मैं तो बनस्थली में काम करने लग गया था और ये शहर के साथी जयपुर में ही छूट गए थे . फिर मिले हम कन्वोकेशन के दिन जयपुर में , इस दिन राम अवतार भी डिग्री लेने आए थे . उसके छह दिन पहले इनके ही एक टीचर की बेटी से मेरा विवाह हो चुका था .

इस प्रकार कितने ही सूत्र थे हमें आपस में जोड़ने वाले …..

अब एम डी साब बनस्थली आए तो मेरे घर कैसे नहीं आते भला ? वो मेरे हबीब भी थे रक़ीब भी थे .

 

उस अच्छे समय को याद करते हुए प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ….


सुप्रभात  , नमस्कार 🙏 .

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ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

सोमवार   ४  दिसम्बर  २०१७ .

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Saturday, 2 December 2017

पोरंपरा  है ... एक : बनस्थली डायरी .

पोरम्परा है : भाग एक . मर्दाना धोती की बात : बनस्थली डायरी .


कहा गया शब्द वास्तव में परम्परा है पर इसे ऊपर इस प्रकार इसलिए लिखा गया है ताकि यह लगे कि यह किसी बांग्ला भाषी द्वारा कहा गया है । इस परम्परा को बताने के लिए पहले मैं आपको अपनी कहानी सुनाऊं । मैं और मेरा छोटा भाई विनोद  हवामहल के नीचे कैंची और चाकुओं पर धार लगवाने गए हुए थे जो ऐसे उपकरणों से लगाईं जाती है जो फौलाद की बनी चीजों को भी पैना कर देते हैं । ये वो कारीगर था जो कभी तलवारों को धार लगाता था , अब घरेलू उपकरणों पर धार लगाने लगा था जो बरतते बरतते भोंथरे हो जाते हैं । इस काम की लागत की बात चली , जमाने की बात चली ,रुपये पैसे की बात चली तो एक रोचक संवाद हो गया । उसने एक सुन्दर और लठ्ठ जनता धोती पहन रखी थी । उसका एक सिरा झोली की तरह फैलाकर वो बोला :

   “    या म्हारी बीस रिप्या की धोती छै , ईं मैं मैं धोण भर नाज बांध अर ल्या सकूं छूं ।”

अर्थात ये मेरी बीस रुपये की धोती है ,इसमें मैं आधा मण याने बीस सेर अनाज बांध कर ला सकता हूं ।


इसके बाद उसने मेरी पतलून का एक पायचा नींचे से पकड़ कर एक झटका दिया और बोला :

 “    या थां की कित्ताक की होली ? याने ये आपकी किस कीमत की है ? “ 

     मैं जवाब में पतलून की लागत बोला । जो कुछ भी मैं जवाब में बोला उसे तो जाने दीजिये , बल्कि मुझे याद भी नहीं कि तब पतलून कितने में बन जाती थी पर इतना याद है कि उसकी धोती की लागत और मेरी पतलून की लागत में जमीन आसमान का अन्तर था , और उसने जो पूछा वो मुझे आज तक याद है :

   

“ ईं मैं कित्तोक नाज बांध ल्यावोला .......? “

अर्थात : इसमें कितनाक अनाज बांध लावोगे.....?


        मुझे इस कारीगर ने निरुत्तर कर दिया था । धोती के प्रति आसक्ति शुरू हो गई थी । धोती के महत्त्व को कारीगर ने बहुत अच्छे से समझा दिया था । वे मेरे जयपुर प्रवास के दिन थे । मैं सारे जयपुर में धोती ही पहन कर घूमता । यह और सब को भी मैंने सुनाया , अनुयायी भी बनाये । उस समय के अध्ययन में विवेकानंद के लेख ' मॉडर्न इण्डिया ' और अरविन्द ( sri Aurobindo ) की कृति फाउंडेशन्स ऑफ़ इन्डियन कल्चर ने भी मेरी इस धारणा को मजबूत किया कि धोती के भारतीय पहनावे का कोई मुकाबला नहीं । बनस्थली लौटा तो भी धोती पहनने की अपनी आदत और प्रतिष्ठा साथ लेकर लौटा । ऊपर जिन कृतियों का उल्लेख आया है उनकी कुछ बात भी बताऊंगा और आज की पोस्ट को जो शीर्षक दिया है उसके साथ न्याय करने का भी प्रयास करूंगा । पर अभी के लिए ये एक भूमिका तो बन ही गई है । सेव करना मुझे आता नहीं इसलिए मैं इसे आपकी नजर के लिए पोस्ट करता हूँ।.......... 

     पिक्चर अभी बाकी है .... यह केवल अंतराल है..........

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ब्लॉग पर प्रकाशित . 

जयपुर

   रविवार ३ दिसम्बर  २०१७ .

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पोरंपरा ... आगे की बात : बनस्थली डायरी .

पोरम्परा : मरदाना धोती की बात ~~ आगे की कहानी  


 अन्य बातों में उलझकर कहीं ये प्रसंग पहले से छेड़ा हुआ है , भूल में न पड़ जाए , छूट न जाय इसी लिए इस पर आज बात .....

मैंने पहले बताया था कि कैसे एक सीधे से हिन्दुस्तानी आदमी ने मुझे धोती का महत्व समझा दिया था और मेरे पहनावे में धोती जुड़ गई थी । अरविन्द और विवेकानंद के लेखों ने मेरे पहनावे को वैचारिक आधार दिया था । किन्हीं आर्चर महोदय के एक लेख : is indin civilized ..? के जवाब में अरविन्द ने पूरी एक किताब ठोक दी थी Foundations of Indian culture नाम से और हर बार ये सवाल पूछा था कि क्या अब भी कुछ सन्देह रहा ? विवेकानंद ने इससे पहले ही अपने लेख Modern india में उस धारणा को उठाया था कि हिंदुस्तानी लोग कमर के नीचे कपड़ा लपेट लेते हैं । ये पश्चिमी सभ्यता की ओर से खिल्ली उड़ाने वाली बात थी । विवेकानंद ने उस मखौल का जवाब देते देशवासिओं का आवाहन किया कि भारत माता के सच्चे सपूत हो तो कमर के नीचे कपड़ा लपेटो । न तो मुझे विवेकानंद बनना था न अरविन्द बहरहाल धोती मैं पहनने लगा था और सब जगह धोती ही पहनता था घर बाहर बाजार से लगाकर शासन सचिवालय तक कहीं जाने में संकोच नहीं था । 

कई एक अनुभव :

    राजीव (राजीव मेहता ) आए । धोती पहने मुझे देखकर बड़े खुश हुए और खुद भी धोती पहनना चाहा 

मैं तो लाया ही धोती जोड़ा था , एक उन्हें पहना दी । वे चाहते थे  कि अब कही चलें ! कहां चलें तो तय रहा कि दोनों के दोनों छोटे भाइयो के दफ्तर चलें , वैसे तो राजीव भी मेरा छोटा भाई ही है । एक कठिनाई थी कि राजीव एक भारी मोटर साइकिल लाया था , पर वह भी सहज हल निकल आया । एक विज्ञापन आता था जिसमें दूध वाला मोटर साइकिल पर धोती पहन कर बैठता था । विज्ञापन तो मोटर साइकिल का था पर हमारा संशय दूर हो गया । जो वो कर सकता है.... हम क्यों नहीं ? मैं और राजीव दोनों दोनों गंतव्यों पर क्रमशः गए अपोलो टायर्स के दफ्तर और शासन सचिवालय , दोनों के दोनों छोटे भाइयों के पास । दोनों जगह हम कार्टून कहलाये पर इससे न तो राजीव निरुत्साहित हुए और न मैं । राजीव उन दिनों International cooperative alliance में काम करता था और देश देशान्तरों में अब कोई एक धोती नहीं धोतियां ले गया । मुझे तो बनस्थली जाना ही था , वहां मेरा धोती का पहनावा जारी रहा......


बनस्थली का एक रोचक प्रसंग कहकर आज की बात को विराम दूं :


मैंने एक बंटवारा कर कर रखा था ।एक दिशा में पढ़ाने जाता तो खादी का सफारी पहनकर जाता ,दूसरी दिशा में मेहमान घर खाना खाने जाता तो धोती कुरता ही पहनकर जाता । मेहमान घर में जमीन में बैठकर पट्टे पर पत्तल दोने में भोजन होता । यह सब चल ही रहा था कि एक दिन कुछ दो पारियों के बीच समय की कमी के चलते इधर की पोशाक में ही उधर चला गया । देखने वाले के मन में आपकी एक प्रतिमा | इमेज बन जाती है वही कह रहा हूँ । वहां खाना बनाने वाली बाई जी उस दिन मुझे देखकर बोली :


“   भाई साब... आज तो अंग्रेजी पोशाक मैं ! “


शेष फिर कभी ...... ये पोरम्परा की कहानी जरा लंबी है .....

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ब्लॉग पर प्रकाशित 

जयपुर 

रविवार  ४ दिसम्बर २०१७ .

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बाई का फूल ... तीन : बनस्थली डायरी .

बाईं का फूल - तीन : बनस्थली डायरी 

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बात चली थी और सारा प्रसंग द टोंक सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक और उसकी विस्तार शाखा के इर्द गिर्द घूम रहा था , जिसमें लक्ष्मी नारायण का विशेष उल्लेख आया था . पहली कड़ी में ख़ास जुमला ये था कि माया मेम साब का नाम मेरे साझे में जुड़ गया था और दूसरी कड़ी में इस राजस्थानी कहावत की पुनर्स्थापना थी : “ बाई का फूल बाई कै ही लाग जायला .” इसके पीछे मेरी वही धारणा पुत्री संतान को मज़बूत बनाना . ख़ैर वो बातें हुईं , अब चूँकि बात की शुरुआत लक्ष्मी नारायण से जुड़ी है तो आज तीसरी बात कहकर इस चर्चा का समापन करूंग़ा जिसकी पूरक बातें लक्ष्मी नारायण की ही बताई हुई हैं .


३.

एक बार की बात द टोंक सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक के एम डी साब बनस्थली दौरे पर आए साथ में उनकी पत्नी भी आई हुई थी . एक तीर से दो शिकार , सरकारी दौरा भी हो जाएगा और ये लोग विद्यापीठ भी देख जाएँगे ये विचार रहा होगा . जब वे प्रधान शाखा में आकर बैठे उसके बाद उन्होंने मेरा नामोल्लेख किया और इच्छा प्रकट की कि वो मुझसे भी मिलना चाहेंगे , बैंक का दौरा तो ख़ैर अपनी जगह था ही .

उधर कच्चे क्वार्टर की तरफ़ थी तब बैंक की प्रधान शाखा , मैनेजर गुप्ता साब और लक्ष्मी नारायण दोनों ने ही सुनी थी एम ड़ी साब की बात पर बात सुनकर लक्ष्मी नारायण ने कुछ ज़्यादा ही फुर्ती दिखाई और वो टेबिल पर से स्कूटर की चाबी उठाकर बाहर जाने लगा . पूछा एम ड़ी साब ने तो बोला :

“ साब को यहीं लियाता हूं .”

तब बोले एम ड़ी साब :

“ मैंने कहा क्या उनको लेकर आने के लिए ? न न मुझे उनके घर जाकर मिलना है .”


ख़ैर वो हो गई बात बैंक से फ़ारिग़ होकर ये टीम चवालीस रवीन्द्र निवास आई और प्रोटोकाल में दोनों बैंक अधिकारी भी साथ आए . एक बात और हुई इस आने में कि साब ने सरकारी गाड़ी घर से दूर खड़ी करवा दी और बोले :

“ …..आगे पैदल पैदल ही ज़ाएंगे उन के घर के बाहर .”

ये सब बात लक्ष्मी नारायण ने ही बताई मुझे क्योंकि उस दिन उसे लगा कि ‘ माट साब ‘ का ओहदा ‘ एम डी साब ‘ से ऊँचा है .


कौन थे एम डी साब ? 


ये बात भी आएगी पर अब बज गई घंटी ।🔔🔔

प्रातःक़ालीन सभा स्थगित …..

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ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

रविवार  ३ दिसम्बर  २०१७ .

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बाई का फूल ... दो : बनस्थली डायरी .

बाई का फूल : भाग दो 🌹: बनस्थली डायरी 


इस शीर्षक से रविवार को पोस्ट लिखना शुरु की थी . बात पूरी होने तक बैठ न सका अतः उस दिन बात अधूरी रही . आज बढ़ाता हूं बात आगे . पोस्ट भी करूंग़ा , ब्लॉग पर भी जोड़ूँगा . बात का सिरा टोंक सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक की बनस्थली विद्यापीठ शाखा से जुड़ा हुआ है . हो सका तो दो बातें छेड़ूँगा आज . एक बात तो पहली कड़ी में आ गई थी बहरहाल . अब दूसरी बात :


२.

  बात आई थी एफ ड़ी कराने की और उसमें दर्ज नाम के इंदराज की , वो तो हो गई बात . माया का नाम आया था उसमें . आप साथियों ने सराहा उस प्रसंग को . यादवेंद्र का कहना कि माया से कौण बच पाया महाराज और प्रभात का कहना कि लो बोलो माया का ही नाम हटा दिया बहुत भाए , और सब के साथ .

ये शीर्षक क्यों दिया वो बताता हूं आज . वो क्या था कि बनस्थली में हम जैसे गृहस्थ स्टाफ़ की गिनती में कम होने लगे थे और पढ़ाने के काम में लड़कियों , युवतियों की गिनती बढ़ने लगी थी . इन लड़कियों में एक बड़ा वर्ग वहीं हमारी पढ़ाई लड़कियों का हुआ करता था . किसी को बुरा न लगे पर लोक भाषा में इन्हें हम कहते छोरी - छापरियाँ .

अनुदान मिलने में देरी और अन्यान्य कारणों से खाते में वेतन चढ़ने में देर अवेर हो ही जाती और उसी दौर की ये बात बताता हूं कि हम्मा तुम्मा तो लक्ष्मी नारायण से ये पूछने जाते कि खाते में वेतन चढ़ गया के नहीं और उधर ये छोरी छापरियाँ पहुँचती एफ डी बनवाने और रिन्यू करवाने . फरक बड़ा साफ़ था . दाल रोटी तो हमारी भी चल जाती थी पर वैसी इफ़रात नहीं होती थी . ख़ैर उसी दौर में मैंने इस राजस्थानी कहावत को पुनर्स्थापित किया था :

“ बाई का फूल बाई कै ही लाग जायला .”


अभी भी अधूरी रही बात पर बातें तो चलती ही रहेंगी ….

संध्या वंदन .

नमस्कार 🙏


सुमन्त पंड़्या 

आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

शनिवार २  दिसम्बर  २०१७ .

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सी डी के विशेषज्ञ  : बनस्थली डायरी  📕

सी डी के विशेषज्ञ  💐


बनस्थली की वह शाम रवीन्द्र निवास में ..........


बनस्थली में वह परिवर्तन का दौर था । विभागों का विस्तार हो  रहा था  । इसी विस्तार के तहत होम सायन्स में पहला एम एस सी कोर्स शुरू हुआ था । पेड़ के  नीचे से स्टाफ रूम उस कक्ष में आ गया था  जो कभी प्रिंसिपल का कक्ष  हुआ करता था । होम सायन्स में कभी बी एस सी तक की ही पढ़ाई होती थी  , अब आगे की पढ़ाई होने को थी । सुधा नारायणन  सन्यास लेकर चली गयी थीं और नई नई प्राध्यापिकाएं  आ गयी थीं । एम एस सी की पढ़ाई के लिए अधिक स्टाफ जो चाहिए था । मेरा विभाग  बहुत पहले से था । ब्रदर डॉक्टर शिव बिहारी माथुर  हमारे सिरमौर थे ,  मैं उनके वहां पहुंचने से पांच वर्ष बाद इस विभाग , राजनीति शास्त्र , से जुड़ा था । अरुणा वत्स और पांच वर्ष बाद  इस विभाग से जुड़ी थीं  ।   बहरहाल जो बात हमें जोड़ने वाली थी वह ये कि हम तीनों एक ही जगह के प्रोडक्ट थे  , राजस्थान विश्वविद्यालय राजनीतिशास्त्र विभाग ।  दो विभागों का काम चलाऊ परिचय हो गया , अब आगे की बात :


      दोपहर का समय मैं स्टाफ रूम में बैठा था  और  सामने होम सायन्स की एक टीचर बैठी थी  जिसने बमुश्किल पढाना शुरु किया  होगा यह अवस्था देखकर लगता था । युवती से परिचय हुआ  , उसने अपना सुन्दर सा नाम भी  बताया जिसे मैं यहां दोहराऊंगा नहीं । थोड़ी सी देर बातचीत हुयी  , कक्षा का समय हो गया दोनों अपने अपने गन्तव्य को चले गए  । जो थोड़ी सी बात हुई वो इस प्रकार -------


~ आपका स्पेशलाइजेशन क्या है  ?


*    सी . डी .


~  मायने बताइये ?


*    चाइल्ड   डेवलपमेंट  ( बाल विकास ).


~ साइंस सब्जेक्ट है तो  इसमे प्रैक्टीकल भी करवाते होंगे  ?


*  जी हां  वो भी होता है  ।


~  तब  अब  आप मुझे  जरा सा ये बताइये कि  सी डी की विशेषज्ञ आप हैं  या मैं हूं   ?

   विभाग में किसी का भी लगन नहीं हुआ , बच्चे बड़े करने का  कोई  अनुभव नहीं  और आप लोग सी डी के विशेषज्ञ  कहलाते हैं ।  मैंने दो बड़े कर दिए  , खड़े कर दिए सो  कोई बात ही नहीं .... स्पेशलिस्ट तो आप हैं । मैं समझा बात हो गयी  , पर ये तो इंटरेक्शन की शुरुआत थी ये बात आगे तक गई  जो मैं अगली बैठक में  जोड़ूंगा..........


शुभ प्रभात


good morning .

दूसरी पारी :


जो बात स्टाफ रूम में हुई थी  वह वहां खतम नहीं हुई  , बात  दूसरे विभाग से होते हुए  कार्यशील  महिला आवास तक चली गई  और उसका जो परिणाम  निकला  :


  उसके लिए मेरी तैयारी बहुत कमजोर थी  जो आगे मैं बताने जा ही रहा हूं  ।   हमारे विभाग , राजनीतिशास्त्र , में साधना अस्थाई नियुक्ति पर  काम कर रही थी और कार्यशील महिला आवास में ही रह रही थी ।  साधना जो कि दयालबाग , आगरा  से आई थी उसका अन्य विभागों की शिक्षिकाओं से  सह आवास के कारण संपर्क था  और विभाग में हम लोगों से तो खैर संपर्क था ही । साधना के  माध्यम से सूचना आई कि कार्यशील महिला आवास  में रहने वाली छह   प्राध्यापिकाएं मुझसे मेरे घर आकर मिलना चाहती हैं  । मेरे लिए अजीब संकट  न समय दूं तो  घमंडी कहलावूं  और समय दूं तो झेलूं कैसे ?  हालात ने मुझे अकेला रख छोड़ा था । जीवन संगिनी का साथ हो तो मैं बरात झेल लूं  , और आगे  ऎसा हुआ भी पर उस दिन , या यों कहें कि उन दिनों तो घर की हालत ये थी  कि एक कमरा तो मय कुर्सियों के बन्द पड़ा था उसमे धूल भरी थी  । सारा जरूरत  का सामान मय किताबों कागजों के मेरे बिस्तर के इर्द गिर्द आ गया था  । आगंतुकों के लिए बहुत जगह नहीं थी । खैर अब समय तो देना  ही था , हालांकि ये भी  लग रहा था कि एक को चुनौती दी , जवाब  देने को छह आ  रही हैं  । मैंने साधना के ही  जरिए समय  दे दिया  । हारे के हरिनाम  विभाग में  उन दोनों से मदद मांगी जिनका ऊपर ज़िक्र किया है   । ब्रदर ने कहा ,  तुमको उस होम सायन्स वाली   से अटकने की क्या जरूरत थी ?   

ब्रदर अब तो हो गया  , आप  शाम को आ जाना  और सभा की अध्यक्षता करना ,  मैं बोला । खैर वो आये थे और स्थिति को सम्हाला शाम को । 


अरुणा जी को भी कहा , वे हमेशा  की तरह मेरे दुःख सुख में साथी थीं  और उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि उनका पूरा सहयोग  मुझे मिलेगा ।  तत्काल मैं 44 नम्बर को बैठने लायक बनाने में जुट गया । जब शाम आई और मेहमान आये तब तक मैं गुजराती ढोकला    बना चुका था  और अरुणा जी मसाले दार  मूंगफली तैयार कर लायीं थीं   जो  वो हमेशा बहुत बढिया बनाती थीं  । हम लोगों ने उन सब का ख़ुशी से स्वागत किया , जब कॉफी बनाने की बारी आई तो  इन मेहमानो  ने हम तीनो को न उठने दिया ।  हालांकि ब्रदर ने आदतन यह भी कहा : मेहमां  जो हमारा होता है वो जान से प्यारा होता है  ।  पर साब अब तो  मेरी रसोई उनके हवाले थी । बहुत बढ़िया   कॉफी  उनलोगों ने बनाकर पिलाई ।


मुख्या बात तो  छूट ही गई उन लोगों के आने से बाल मनो विज्ञान और बाल व्यवहार पर  लंबी चर्चा हुई । शास्त्र सम्मत  बातें  हमें भी जानने को मिलीं  , जीवन अनुभव की बातें मैंने भी कहीं । लंबी बैठक तब तक चली जब तक कार्यशील  महिला    आवास     के दरवाजे  रात भर के लिए बंद हो जाने का समय  नजदीक न आ     गया    जब मेहमान चले गए तो ब्रदर बोले :  देखो सब की सब ऐसे  तैयार होकर आईं थीं जैसे किसी पार्टी में आई हों !


#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandyaसी डी के विशेषज्ञ  💐


बनस्थली की वह शाम रवीन्द्र निवास में ..........


बनस्थली में वह परिवर्तन का दौर था । विभागों का विस्तार हो  रहा था  । इसी विस्तार के तहत होम सायन्स में पहला एम एस सी कोर्स शुरू हुआ था । पेड़ के  नीचे से स्टाफ रूम उस कक्ष में आ गया था  जो कभी प्रिंसिपल का कक्ष  हुआ करता था । होम सायन्स में कभी बी एस सी तक की ही पढ़ाई होती थी  , अब आगे की पढ़ाई होने को थी । सुधा नारायणन  सन्यास लेकर चली गयी थीं और नई नई प्राध्यापिकाएं  आ गयी थीं । एम एस सी की पढ़ाई के लिए अधिक स्टाफ जो चाहिए था । मेरा विभाग  बहुत पहले से था । ब्रदर डॉक्टर शिव बिहारी माथुर  हमारे सिरमौर थे ,  मैं उनके वहां पहुंचने से पांच वर्ष बाद इस विभाग , राजनीति शास्त्र , से जुड़ा था । अरुणा वत्स और पांच वर्ष बाद  इस विभाग से जुड़ी थीं  ।   बहरहाल जो बात हमें जोड़ने वाली थी वह ये कि हम तीनों एक ही जगह के प्रोडक्ट थे  , राजस्थान विश्वविद्यालय राजनीतिशास्त्र विभाग ।  दो विभागों का काम चलाऊ परिचय हो गया , अब आगे की बात :


      दोपहर का समय मैं स्टाफ रूम में बैठा था  और  सामने होम सायन्स की एक टीचर बैठी थी  जिसने बमुश्किल पढाना शुरु किया  होगा यह अवस्था देखकर लगता था । युवती से परिचय हुआ  , उसने अपना सुन्दर सा नाम भी  बताया जिसे मैं यहां दोहराऊंगा नहीं । थोड़ी सी देर बातचीत हुयी  , कक्षा का समय हो गया दोनों अपने अपने गन्तव्य को चले गए  । जो थोड़ी सी बात हुई वो इस प्रकार -------


~ आपका स्पेशलाइजेशन क्या है  ?


*    सी . डी .


~  मायने बताइये ?


*    चाइल्ड   डेवलपमेंट  ( बाल विकास ).


~ साइंस सब्जेक्ट है तो  इसमे प्रैक्टीकल भी करवाते होंगे  ?


*  जी हां  वो भी होता है  ।


~  तब  अब  आप मुझे  जरा सा ये बताइये कि  सी डी की विशेषज्ञ आप हैं  या मैं हूं   ?

   विभाग में किसी का भी लगन नहीं हुआ , बच्चे बड़े करने का  कोई  अनुभव नहीं  और आप लोग सी डी के विशेषज्ञ  कहलाते हैं ।  मैंने दो बड़े कर दिए  , खड़े कर दिए सो  कोई बात ही नहीं .... स्पेशलिस्ट तो आप हैं । मैं समझा बात हो गयी  , पर ये तो इंटरेक्शन की शुरुआत थी ये बात आगे तक गई  जो मैं अगली बैठक में  जोड़ूंगा..........


शुभ प्रभात


good morning .

दूसरी पारी :


जो बात स्टाफ रूम में हुई थी  वह वहां खतम नहीं हुई  , बात  दूसरे विभाग से होते हुए  कार्यशील  महिला आवास तक चली गई  और उसका जो परिणाम  निकला  :


  उसके लिए मेरी तैयारी बहुत कमजोर थी  जो आगे मैं बताने जा ही रहा हूं  ।   हमारे विभाग , राजनीतिशास्त्र , में साधना अस्थाई नियुक्ति पर  काम कर रही थी और कार्यशील महिला आवास में ही रह रही थी ।  साधना जो कि दयालबाग , आगरा  से आई थी उसका अन्य विभागों की शिक्षिकाओं से  सह आवास के कारण संपर्क था  और विभाग में हम लोगों से तो खैर संपर्क था ही । साधना के  माध्यम से सूचना आई कि कार्यशील महिला आवास  में रहने वाली छह   प्राध्यापिकाएं मुझसे मेरे घर आकर मिलना चाहती हैं  । मेरे लिए अजीब संकट  न समय दूं तो  घमंडी कहलावूं  और समय दूं तो झेलूं कैसे ?  हालात ने मुझे अकेला रख छोड़ा था । जीवन संगिनी का साथ हो तो मैं बरात झेल लूं  , और आगे  ऎसा हुआ भी पर उस दिन , या यों कहें कि उन दिनों तो घर की हालत ये थी  कि एक कमरा तो मय कुर्सियों के बन्द पड़ा था उसमे धूल भरी थी  । सारा जरूरत  का सामान मय किताबों कागजों के मेरे बिस्तर के इर्द गिर्द आ गया था  । आगंतुकों के लिए बहुत जगह नहीं थी । खैर अब समय तो देना  ही था , हालांकि ये भी  लग रहा था कि एक को चुनौती दी , जवाब  देने को छह आ  रही हैं  । मैंने साधना के ही  जरिए समय  दे दिया  । हारे के हरिनाम  विभाग में  उन दोनों से मदद मांगी जिनका ऊपर ज़िक्र किया है   । ब्रदर ने कहा ,  तुमको उस होम सायन्स वाली   से अटकने की क्या जरूरत थी ?   

ब्रदर अब तो हो गया  , आप  शाम को आ जाना  और सभा की अध्यक्षता करना ,  मैं बोला । खैर वो आये थे और स्थिति को सम्हाला शाम को । 


अरुणा जी को भी कहा , वे हमेशा  की तरह मेरे दुःख सुख में साथी थीं  और उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि उनका पूरा सहयोग  मुझे मिलेगा ।  तत्काल मैं 44 नम्बर को बैठने लायक बनाने में जुट गया । जब शाम आई और मेहमान आये तब तक मैं गुजराती ढोकला    बना चुका था  और अरुणा जी मसाले दार  मूंगफली तैयार कर लायीं थीं   जो  वो हमेशा बहुत बढिया बनाती थीं  । हम लोगों ने उन सब का ख़ुशी से स्वागत किया , जब कॉफी बनाने की बारी आई तो  इन मेहमानो  ने हम तीनो को न उठने दिया ।  हालांकि ब्रदर ने आदतन यह भी कहा : मेहमां  जो हमारा होता है वो जान से प्यारा होता है  ।  पर साब अब तो  मेरी रसोई उनके हवाले थी । बहुत बढ़िया   कॉफी  उनलोगों ने बनाकर पिलाई ।


मुख्या बात तो  छूट ही गई उन लोगों के आने से बाल मनो विज्ञान और बाल व्यवहार पर  लंबी चर्चा हुई । शास्त्र सम्मत  बातें  हमें भी जानने को मिलीं  , जीवन अनुभव की बातें मैंने भी कहीं । लंबी बैठक तब तक चली जब तक कार्यशील  महिला    आवास     के दरवाजे  रात भर के लिए बंद हो जाने का समय  नजदीक न आ     गया    जब मेहमान चले गए तो ब्रदर बोले :  देखो सब की सब ऐसे  तैयार होकर आईं थीं जैसे किसी पार्टी में आई हों !


#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya

Friday, 1 December 2017

बावळी की कहानी : बनस्थली डायरी .

बावळी ...बावळी : बनस्थलीडायरी 💐

यह राजस्थानी या शायद गुजराती  का  भी एक ऐसा शब्द है जो अत्यंत प्रेमाभिव्यक्ति में ही कहा जाता है  । अगर आप एक अक्षर नहीं  पहचानते हैं तो बावली कह लीजिये  पर वो बात ऐसा कहने में समझ न आएगी । खैर एक संवाद सुनिए :

     ~  सर , ये तीन बजे वाली बस कित्ते बजे जाती है  ?

            आमना  सामना होने पर उसने पूछा ,  मुझसे ही पूछा ।

    मैं बोला  आप मुझसे पूछ  रही हो या   मुझे बता रही हो  बस का टाइम ।

     खैर सवाल से ही साफ़ होता है कि सवाल पूछने वाली को आप क्या  मानेंगे ,  क्या कहेंगे  , वही तो मैं कह बैठा था उस दिन जब वो बनस्थली में  मेरे घर  की और आ रही थी  और मैं  बाहर बैठा था ।

   अरे ये बावळी कहां से आ गई  !     मैं बोला और शायद उसने सुन भी लिया । उस समय  तो वो यह कहकर चली गयी कि  मुझे  सब पता है लोग क्या बात कर रहे हैं । पड़ोस में आई थी पड़ोस से लौट गई  ।  पर अगली बार  मुझे पुस्तकालय के काउंटर पर अटकाया और  लगी सवाल पर सवाल करने उस दिन की बात पर  अब बात हो गई सो हो गई  पर एक तूफ़ान खड़ा  हो गया उस शांत क्षेत्र में । मेरे बचाव में पुस्तकालय स्टाफ के कई एक लोग भी आगये और उससे कहा कि इनकी बेटी के बराबर हो इसी लिए कह दिया होगा । कहा गया शब्द कोई अपशब्द नहीं  है यह  भी समझाया । मैं तो माफ़ी भी मांगने को तत्पर हो  गया  , तभी वो बोली  :

सर  और सब तो मुझे ऐसे कहते ही हैं  पर मुझे आपने भी ऐसे कह दिया  । रेखांकित शब्द आपने ।

    उसने मुझे यह अहसास करा दिया कि  उसे मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।

अब बारी मेरी थी ,   मैंने उसे  भरोसा  दिलाते   हुए  कहा   :

"  हो तो तुम बावळी ही पर  पर मैं आगे से ऐसा नहीं कहूंगा ।"

#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी .

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बावळी की हिमायत में सबसे बढ़िया टिप्पणी मिहिर की रही वो भी यहां जोड़ता हूं , उसने कहा :

  " बावली सुनकर धोखे में ना अाएं। "तीन बजे वाली" बस का सवाल सच में वाजिब सवाल हुअा करता था बनस्थली में। रोडवेज़ बसों को उनके समय से जाना जाता था − दस, साड़े ग्यारह, साड़े बारह, दो, तीन, चार अौर सवा पाँच। लेकिन उनका चलना इस पर निर्भर होता था कि वे अाई कितने बजे हैं। देर से अाएंगी कैम्पस में तो जायेंगी भी देर से। इसलिए, ज़रूरी नहीं कि तीन बजे वाली बस तीन बजे निकल ही जाए। होशियार लोग बस के अाने के समय अौर उसमें हुई देरी से जाने का समय भांप लिया करते थे। "

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आज ये किस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

शनिवार २ दिसंबर २०१७ .

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बाई का फूल ... एक :  बनस्थली डायरी .


कबाड़ में जा रही थी ये पोस्ट , सहेजने को ब्लॉग पर दर्ज कर रहा हूं . 

आज शुरुआत है  , बात और आगे चलेंगीं .

बाई का फूल ...भाग एक : बनस्थली डायरी 


बाई का फूल …। : बनस्थली डायरी

---------------- ----------------- ये पिछली शताब्दी की बनस्थली की बातें हैं जब टोंक सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक की विद्या मंदिर विस्तार शाखा में हमारा महीने का वेतन चढ़ता था . वहां लक्ष्मी नारायण नाम का एक युवा अधिकारी बैठता था लैज़र और कैश लेकर . मुझ पर बहुत भरोसा करता उसकी एक बानगी :

“ साब आप बैठे हो थोड़ी देर , मैं थोड़ी देर बाहर हो आवूं ? “

अपना बिखरा कैश मेरे भरोसे छोड़कर चला जाता . ख़ैर , उस बख़त की एक आध छुटपुट बातें बताता हूं आज .


१. 

कोई दस बीस हज़ार की एफ डी करवाई मैंने और अगले दिन लक्ष्मी नारायण ने एफ डी रसीद बनाकर दे दी , निर्देश रहे “ पेएबल टू आइदर ऑर सरवाइवर “ . जीवन संगिनी का नाम साथ में .

रसीद घर भी ले गया . ध्यान से देखा तो पाया कि जीवन संगिनी का नाम लिखा था ‘ माया पंड़्या ‘.

वापिस गया विस्तार शाखा में और ग़लती सुधारने को बोला . लक्ष्मी नारायण क्या कहता है :

“ साब , क्या फरक पड़ता है ? “

और मैं बोला :

“ तेरे तो कोई फरक नहीं पड़ता , मेरे तो पड़ता है , घर पर सवाल नहीं उठेगा ये महा ठगिनी म’ माया ‘ कौण आ। गई बीच में ?”

और मैं बोला आगे :

“ रद्द कर इस रसीद को और ठीक से नई बना के दे .”

ख़ैर अपनी ग़लती सुधारी उस दिन लक्ष्मी नारायण ने …

जैसा शीर्षक दिया था वो बात तो आगे आएगी पर वो कल आएगी .

समयाभाव ..🔔

प्रातःक़ालीन सभा स्थगित 


आशियाना आँगन से नमस्कार 🙏 


सुमन्त पंड़्या 

@ भिवाड़ी 

रविवार १९ फ़रवरी २०१७ .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी

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आज क़िस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

शुक्रवार १ दिसम्बर २०१७ .

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