शीर्ष नोट :
छोटा सा किस्सा थोड़े संकोच के साथ लिख रहा हूं . अगर सेंसर बोर्ड को ये वल्गर लगा तो पोस्ट हटाई भी जा सकती है .
ये पिछली शताब्दी के उस काल खंड की बातें हैं जब रुपए का मोल आज से बहुत बेहतर था . उसी के अनुरूप कहावतें और शब्दावली का समाज में प्रचलन भी था .
समय का चित्रण .
मुझे अच्छी तरह याद है नाहर गढ़ की सड़क पर मोहन हलवाई अपनी दूकान खोलता जब सुबह सुबह तो चवन्नी , अठन्नी की ढेरियां बनाता और इससे आगे लेन देन करता . गो कि तब रेजगी या रेजगारी का बड़ा महत्त्व हुआ करता था . रुपए की तो बड़ी कदर थी ही छोटे सिक्के भी खूब प्रचलन में थे . रुपया भुनाने पर रेजगारी मिल जाया करती थी . नए पुराने दोनों ही प्रकार के छोटे सिक्के प्रचलन में थे .
जो ' चवन्नी चलती थी ' वो भी अब तो शासन ने प्रचलन से हटा ली , अठन्नी वैध तो है पर लेता देता कोई नहीं अतएव प्रचलन से बाहर ही है .
खैर .जाने दीजिए ..
उसी काल खंड में हलके फुल्के मजाहिया बातचीत में बच्चों को रेजगारी कह दिया जाता था.
उस युग का एक संवाद :
एक बस में एक कस्बाई अल्प शिक्षित युवती सवार हुई जिसके साथ दो तीन छोटे बच्चे भी थे - एक गोद में और कुछ एक साथ . वो एक सीट पर जा बैठी और साथ बच्चे तो थे ही .
उसी के पास एक नई रौशनी की युवती भी आई और वहां बैठी . बच्चे तो बच्चे हैं उस ' टच मी नॉट ' युवती से भी अटक लिए . हालांकि सब कोई तो बच्चों से ऐसे परहेज नहीं करता पर शायद ये नई आई सवारी कुछ थी ही तुनक मिजाज उसने कस्बाई युवती से कह दिया :
" हटाओ अपनी ये रेजगारी ."
मां की भूमिका में जो युवती थी उसने बच्चे तो अपने से सटा लिए लेकिन एक कौतुक प्रश्न भी इस सम वयस्क युवती से पूछ लिया बाई द वे :
" बहन...आपका रुपया अभी भुना के नहीं ? "
क्या कहती ये युवती , मुहावरा उसी जमाने का था !
प्रातःकालीन सभा स्थगित.
सेंसर बोर्ड :
Manju Pandya
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
15 जुलाई 2015.
ब्लॉग पर प्रकाशित : जुलाई २०१८ .
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