Sunday, 8 July 2018

घोड़े बेचकर सोया : बातें बनस्थली की 

घोड़े बेचकर सोया : बातें बनस्थली की .


    क्षमा कीजिएगा ' नानगा द ग्रेट ' श्रृंखला की एक कड़ी में लिखते लिखते बात आई थी कि नानागा छत पर बिस्तर बिछाता था और मैं जाकर सो जाता था . उस श्रृंखला की तो शायद सात कड़ियां लिख चुका उसे आगे लिखूंगा ही उस बात से ये बातें याद आने लगीं वही आज बताता हूं .

जयपुर में हमारे शहर वाले घर में तो धीरे धीरे छत पर जाके सोने का चलन कम हो गया था पर गर्मियों में 44 रवींद्रनिवास की छत पर जाकर सोना बदस्तूर जारी था . ये बात बनस्थली की है . बच्चे इकठ्ठा होते तो रात को छत पर जाकर सोने का आनंद सब अनुभव करते .

जय भैया रोज रात को सोने से पहले 'चार दोस्तों' वाली कहानी सुनता .

जय को और कोई पास न सुलाता , कौन झेले उसकी लात जो वो नींद में चलाता. मैं उसे अपने पास जगह देता . एक तरफ दीवार होती जय के और दूसरी तरफ मैं होता . मैं भी घोड़े बेचकर सोता इसलिए मुझे उसकी लात की कोई परवाह नहीं होती . याद करता हूं तो हंसी आ जाती है . जय कहता , " जयपुर जाऊंगा तो ये छत अपने साथ ले जाऊंगा ."


मेरी नींद के भी कई किस्से हैं , वो किस्सा जब दरवाजा तोड़ने की नौबत आ गई थी सुनाऊंगा तो तो जुलुम हो जाएगा . आज वो नहीं , आज तो बनस्थली की यादों से जुडी दो बात बताकर समाप्त करूंगा .


मैंने एक बात प्रचारित कर रखी थी कि काकाजी परेशान रहते हैं कि मैं तो नए नए घोड़े खरीदवाता हूं और पंड्या जी बेच देते हैं . 

बाहरी लोगों के लिए बताता चलूं कि और सब बातोँ के अलावा ये काकाजी नाम के व्यक्ति जीवन पर्यन्त मुख्य प्रशासन अधिकारी रहे और घुड़ सवारी मैदान में वो घोड़ों का परफार्मेंस देखने आते थे और मैं मेहमानों की अगवानी के लिए खड़ा होता था . उन्हें दिल्लगी की बातों में बहुत रुचि होती थी सो एक बात मैंने अपनी नींद से भी जोड़ रखी थी .


अब घर की छत की बात :

    एक रात की बात . शाम से ही छोटे वाले को बुखार की शिकायत थी . हम दोनों लोग आदतन घर की छत पर बच्चों के साथ जाकर सो गए थे . अब ये तो मानी हुई बात है कि बच्चे को बुखार हो तो मा तो निश्चिन्त होकर नहीं सो सकती और बाप चाहे तो सो जाए . वही हुआ उस दिन भी . आधी रात के बाद किसी समय छोटे वाले का बुखार तेज हो गया , शायद नाप भी लिया गया . जरूरत आन पड़ी कि उसे गोली दी जाए . मुझे जगाया जीवन संगिनी ने और कहा :


" उठो, छुटकू नै गोळी आपवी छै."

( उठो , छुटकू को गोली देनी है .)

उन्होंने मान लिया कि मैं उठ गया और जो बताया वो करने को चल पड़ा हूं . यहीं गड़बड़ हो गई . मैं चला तो सही , पर कहां चला अलमारी समझकर जीने की ओर चल दिया और अगला पैर नीचे उतरने की कोई चौथी सीढ़ी पर टिका . धमाका सुन जीवन संगिनी भी चौंकी. कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई पर चेत होने से पहले तो मुझे दिन रात और स्थान का भी ठीक से पता नहीं था . अलमारी समझकर जीने की ओर जा रहा था .

फिर तो सब कुछ ठीक ठाक हो गया और मैंने अपना आगे का कर्तव्य भी निभाया . पर उस दिन हम दोनों ने संयुक्त रूप से निर्णय लिया कि जब तक जीवन संगिनी पूरी तरह आश्वस्त न हो जाएं कि मैं पूरी तरह जाग गया हूं मेरी बात पर कत्तई भरोसा न करें और मुझे ढीला न छोडें .

उस दिन ऐसे में तो मैं दवा भी क्या दे बैठता, क्या भरोसा ?


तो ये था सिर्फ एक किस्सा घोड़े बेचकर सोने वाली नींद का ...


प्रातःकालीन सभा स्थगित..   

सुप्रभात .

सह अभिवादन :

Manju Pandya

सुमन्त पंड्या .

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .

9 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित  जुलाई २०१८.



No comments:

Post a Comment