" लड़ो मन्नै !"
जयपुर डायरी
पुरानी बात याद आ गई . नाहर गढ़ की सड़क पर घोषी समुदाय का पपैया पहलवान कबूतर पालता था , बड़ा सुन्दर बांस का मचान था उसके घर " पपैया मंजिल " की छत पर , उस पर भांत भांत के कबूतर बैठे रहते . इनमें कई एक सफ़ेद कबूतर भी होते मुझे लगता ये ठंडे मुल्कों से आए हुए हैं . इन कबूतरों से जुडी हुई कई एक यादें हैं , बताऊंगा और अभी क्यों बात याद आई वो भी बताऊंगा .
ये कबूतर खुले आकाश में खूब उड़ते और लौट कर अपने घर के मचान पर आ बैठते बड़ा ही सुन्दर दृष्य होता . बाकी उनके लिए घर की नीचे की मंजिल में , पोळी में , जालीदार घर भी बने थे जहां ज्वार के चुग्गे का भरपूर इंतजाम होता था . पोळी में एक साथ चुग्गा डाल दिया जाता और कबूतरों की घुटर घूं - शुरु हो जाती . घूम घूम कर सारे कबूतर चुग्गे के पास भी आते , दाना भी चुगते और लड़ते भी .
एक दिन की बात
एक कबूतर रास्ता भटक कर या पता नहीं क्यों सामने हमारे घर की दूसरी मंजिल में आ गया और वो वापिस न जा पावे . सामने के घर में पुकार कर बताया कि एक कबूतर यहां आ गया है , सुनकर पपैया पहलवान का बड़ा बेटा सिकंदर आया , उसने पास जाकर कबूतर को उठाया और अपने कंधे पर बैठा लिया और सिकंदर के कंधे पर बैठकर वो कबूतर अपने घर गया साब वैसे ही जैसे यज्ञोपवीत के दौरान बटुक मामा की गोद में चढ़कर यज्ञस्थल पर आता है . दो अलग अलग बातें हैं पर मुझे उपमा निमित्त ऐसे ही बातें याद आ जाती हैं . कबूतरों का वो ही सिलसिला कभी मचान पर कभी विश्राम और भोजन के लिए पोळी में .
और एक पुरानी याद
ये उन दिनों की बात है जब जयपुर में टी वी प्रसारण सायंकालीन सभा में शुरु ही हुआ था . घर घर में टी वी लाए जा रहे थे और घरों की छतों पर टी वी के पुराने किस्म के एंटीना लगने लगे थे . पपैया मंजिल के कबूतरों के मचान और टी वी के एन्टीनाओं में बहुत कुछ एक जैसा था पर थोड़ा फरक भी था , मचान बांस का था और एंटीना मैटल के . हमारे घर की छत पर भी था एंटीना और जाहिर था इसका सम्बन्ध ऊपर की मंजिल में रखे टी वी से था . हुआ क्या कि मैं घर की छत पर मन बहलाव के लिए छोटी सी महिमा को लेकर गया था . बमुश्किल बोलना सीखी थी बेटी लेकिन एंटीना और मचान का फरक उसने मुझे समझाया था इस प्रकार :
" जे फूटू , जे फ़ूटू , जे फूटू , जे फूटू ना ! "
उसने अपनी जुबान में मुझे समझाया था कि बाकी सब तो टी वी एंटीना थे और कबूतरों का मचान एक अलग वर्ग था .
तब तो महिमा उस अवस्था से भी कुछ छोटी थी जित्ता अब सैम है .
आज का शीर्षक : लड़ो मन्नै . *
एक दिन मेरे सामने की घटना , मैं पपैया के पास कुछ दूध का हिसाब करने गया था कि वहां कबूतरों के झुंड में ज्वार के दानों के आस पास कुछ लड़ाई शुरु हो गई आपस में , कुछ कबूतरों ने दादागिरी शुरु कर दी , घुटर घूं की आवाज तेज हो गई . इस गतिविधि को देखकर पपैया दो ही शब्द बोला :
" लड़ो मन्नै . "
और फिर शान्ति हो गई . कबूतर कित्ती आसानी से उस्ताद की बात समझ गए ये देखना बहुत आश्चर्य जनक था .
अभी क्यों याद आई बात
"...... मैं उनसे लड़ी सर ,’ ये तो हमारे सर हैं , आप इनकी फ्रैंड कैसे बन गईं ??? "
दिल्ली से मेरे पास मेरी विद्यार्थी के भेजे लंबे सन्देश में से एक कतरन उद्धृत की है मैंने . कितना अपनत्व है ऐसा कहने में वही बताने को मैंने इत्ती सी बात खोली है . ऐसे अपनापन जताते सन्देश मुझे और जीवन संगिनी को बहुत भाव विभोर करते हैं और बनस्थली के दिनों की याद दिला जाते हैं .
और मैं यहीं पपैया की कही बात दोहराता हूं :
" लड़ो मन्नै .
माने , " लड़ो मत . "
दोनों ही दोस्त बनो , मेरे और गुरु मां के आशीर्वाद दोनों को .
और चलते चलाते दुष्यंत का कहा
" …. राम जाने किस जगह होंगे कबूतर ,
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है . "
सुप्रभात
Good morning
Sumantpandya
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
शुक्रवार , 1 जुलाई 2016 .
ब्लॉग पर प्रकाशित जुलाई २०१८.
आज दुष्यंत की इस ग़ज़ल के बहाने आगे चर्चा बढ़ाऊँगा ।
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