लाओ खीर .....
बरसों पहले माता पिता के साथ मेहसाणा , गुजरात की यात्रा कर रहा था तब की एक बात याद आ गई .
एक कोई सौदागर यात्रा के दौरान बोली के जरिए तरह तरह की चीजें बेच रहा था . लंबी दूरी की यात्रा से ऊबे मुसाफिरों का इस सौदेबाजी से मनोरंजन भी हो रहा था और सौदागर का माल भी बिक रहा था इस तरह से .
भांत भांत के आयटम थे उसके पास बेचने को . जो सबसे ऊंची बोली लगाता वो उस बिक्री के आयटम को खरीदता . पर एक बात और भी थी कि कभी कभी सबसे ऊंची बोली लगाने वाले का भी सौदा नहीं पटता . सौदागर ये जताता कि उसे माल की वाज़िब कीमत नहीं मिल रही और वो बजाय आयटम देने के ऊंची बोली लगाने वाले को कोई गिफ्ट दे देता बजाय सौदा मुकम्मल करने के .
ये गिफ्ट देने वाला आइडिया ही वो सूत्र है जो मुझे आज की पोस्ट की तरफ धकेल रहा है . जो श्रृंखलाएं चल रही हैं अगर विचार मंथन के अभाव में कुछ रुकी हैं तो मेरे पाठक / श्रोता क्यों निराश हों और मुझे टोकें कि आज की पोस्ट क्योंकर नहीं आई . क्यों न स्मृतियों की चित्रशाला से कोई एक छोटा प्रसंग कह डालूं , सुना डालूं . श्रृंखला की पोस्ट मुकम्मल नहीं तो ये गिफ्ट ही सही इस बीच .
तो आज बल्ला काकाजी के बारे में :
- बल्ला काका काकाजी (हमारे पिता )के मामा के बेटे भाई थे और क्रॉनिक बैचलर थे . नाम तो वैसे उनका लक्ष्मी नारायण था पर घर के नाम " बल्ला" से ही पुकारे जाते थे . जीवन भर वे भारतीय रेल की सेवा में रहे . तबीअत के रईस थे . उनका एक स्टाइल था . पहली तारीख को वेतन मिलता तो वो जयपुर के जौहरी बाजार स्थित एल एम बी होटल में खाना खाने अनिवार्यतः जाते . तब का तो बेहतरीन शाकाहारी होटल और रेस्टोरेंट वही था . आज भी नाम है ही उस होटल का .
ये तो पचास के दशक की बात है . उन्हें भर पेट भोजन के शायद पचास रुपए चुकाने होते थे , मेरी स्मृति में दर्ज आंकड़ा कुछ भिन्न भी हो सकता है पर उससे क्या ? बात तो ये है बताने की कि उन्हें भर पेट भोजन करना था और एक मुश्त भुगतान करना था .
सवाल ये था कि ग्राहक सेवा की शर्तें होटल की हों या ग्राहक की ? साथ ही एटीकेटी की बात .
अब आता है किस्से का क्लाइमैक्स :
- डेजर्ट के नाम पर छोटो छोटी कटोरियों में बहुत गरम खीर लेकर बैरा आवे और "ल्यो खीर ...ल्यो खीर " कहकर चिड़ावे ग्राहकों को . ग्राहक चम्मचों से सिपड़ सिपड़ करें और खीर को उस ताप पर खा न पावें .
बल्ला काका , भरतपुर के मूल निवासी , मिठाई के शौक़ीन उनको ये स्थिति स्वीकार नहीं थी . काहे का एटीकेट उन्होंने बाजी पलट दी , वही आज बताता हूं जो मुझे आज तक याद है .
वो लट्टू सी छोटी कटोरियाँ बजाय एक के चार लेते वेटर से, थाली में उलटते और ठंडी करके खाते खीर .
थोड़ी देर पहले वेटर की बारी थी : "ल्यो खीर...ल्यो खीर..."
( लो खीर...लो खीर ...)
अब बल्ला काका की बारी थी : " ल्याओ खीर ....ल्याओ ..खीर..."
( लाओ खीर...लाओ खीर...)
ब्लॉग पर प्रकाशित : जुलाई २०१८.
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आपका किस्सागो सुमन्त ।
आज ये क़िस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई . बल्ला काकाजी की स्मृति को नमन ��.
ReplyDeleteखीर का। अनोखा अदाज वाह क्या कहना ।।
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